
कुछ समय पहले ग्लोबल टेररिज्म डेटाबेस ने माना कि अफ्रीका के ज्यादातर देशों में अंदरुनी झगड़ा-फसाद चलता रहता है. इसके मुताबिक, नब्बे के दशक में आर्म्ड कन्फ्लिक्ट अपने चरम पर था. तब दुनिया में कोल्ड वॉर खत्म हो रहा था और देश अपनी सीमाएं ग्लोबल व्यापार के लिए खोलने को तैयार हो रहे थे. वहीं अफ्रीका के कई देश सिविल वॉर में उलझे हुए थे. अगले कुछ सालों के बाद युद्ध के हालात हल्के पड़े, लेकिन पूरी तरह थमे नहीं. साल 2015 में इस महाद्वीप के कई बड़े देश एक बार फिर से अस्थिर हो गए. सूडान में आया भूचाल इसमें से एक है.
सबसे पहले ताजा मामला समझते चलें
भारत की आजादी के लगभग 10 सालों बाद सूडान भी आजाद हुआ. इसके बाद शुरुआती उथलपुथल के बाद देश स्थिर हो सकता था, लेकिन यहां लगातार गृहयुद्ध होता रहा. इसे कन्फ्लिक्ट ट्रैप कहते हैं. युद्ध के जानकार दावा करते हैं कि गुलामी से आजादी के बाद ज्यादातर देश विकास के रास्ते पर नहीं चल पाते, बल्कि दूसरी लड़ाइयों में उलझकर रह जाते हैं. आजादी में सहयोग कर चुके गुट आपस में लड़ने लगते हैं और गृहयुद्ध के हालात बन जाते हैं. ऐसा अक्सर होता है. सूडान के साथ भी यही हुआ. आजादी के बाद से वहां लगातार लोकल समूह ही सत्ता के लिए झगड़ते रहे.
फिलहाल वहां सैनिक और अर्धसैनिक बलों के बीच लड़ाई जारी
सत्ता पाने के लिए छिड़ी इस जंग का खतरनाक पहलू ये है कि ये दो सबसे ताकतवर जनरलों के बीच की लड़ाई है. सूडान सेना के कमांडर जनरल अब्देल फतह अल बुरहान और अर्धसैनिक रैपिड सपोर्ट फोर्स के कमांडर जनरल मोहम्मद हमदान दगालो के बीच लंबे समय से तनाव चल रहा है. साल 2021 में दोनों साथ थे और तत्कालीन सत्तापलट के लिए मिलकर काम किया. इस दौरान कुछ कथित तौर पर कुछ समझौते हुए थे, जिन्हें लेकर दोनों जनरलों की ठनी हुई है.
वे सूडान की राजधानी खारतूम से लेकर सभी बड़े शहरों पर कब्जे की कोशिश कर रहे हैं, जिससे पूरे देश में इमरजेंसी के हालात बन चुके हैं. आशंका जताई जा रही है कि आजादी के इतने सालों बाद भी चला आ रहा संघर्ष देश को बिल्कुल तोड़कर रख देगा.
लगभग सारे देश कहीं न कहीं अस्थिर रहे
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अफ्रीकी महाद्वीप में कुल 54 देश हैं. ये सभी देश कम-ज्यादा समय के लिए लड़ाई में उलझे रहे. किसी भी मुल्क के बारे में ये नहीं कहा जा सकता कि वहां आंतरिक लड़ाई या आपसी लड़ाई नहीं हुई. यहां के दूसरे सबसे बड़े देश कांगो में एक नहीं, बल्कि दो बार भारी युद्ध छिड़ा.
कांगो युद्ध में हुए भारी नुकसान पर मामूली चर्चा
नब्बे के मध्य में छिड़ी इन दो लड़ाइयों के बारे में कहा जाता है कि इनमें उतना ही नुकसान हुआ, जितना दुनिया को दूसरे विश्व युद्ध से हुआ. इस दौरान लगभग 50 लाख लोग मारे गए. लाखों लोगों का घर-बार छूटा और करोड़ों लोग भुखमरी का शिकार हुए. एक्सपर्ट इसे ऐसी मानवीय आपदा मानते हैं, जिस बारे में बात नहीं हुई.
फिलहाल क्या हालात हैं?
इस वक्त भी अफ्रीका में कई देशों, जैसे अल्जीरिया, बुर्किना फासो, चाड, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य, घाना, आइवरी कोस्ट, मॉरिटानिया, मोजाम्बिक, नाइजर, सूडान, तंजानिया, टोगो, ट्यूनीशिया और युगांडा में आंतरिक लड़ाई-झगड़े के हालात बने हुए हैं. यहां चल रही लड़ाइयों की किस्म अलग-अलग है. कहीं गृहयुद्ध हो रहा है तो कहीं जातीय संघर्ष. कई देशों में गरीबी के चलते आतंकवाद बढ़ रहा है.
ISIS और दूसरे आतंकी दलों के लिए सॉफ्ट टारगेट
बुर्किना फासो को इस्लामिक स्टेट ने लंबे समय तक अपना गढ़ बनाए रखा. वो गरीबी से जूझते यहां के युवाओं को जेहादी बनने की ट्रेनिंग देता, उन्हें हथियार मुहैया कराता और अपने साथ आतंकी बना डालता. कई इंटरनेशनल एजेंसियों आगाह करती रहीं कि इस्लामिक स्टेट सीमा-पार नशे के व्यापार और मानव तस्करी में भी इन लोगों का इस्तेमाल कर रहा है. ये सारी बातें भी देश को कमजोर बनाए हुए हैं.
गरीबी है जंग का बड़ा कारण
पूरे के पूरे महाद्वीप में कुछ वजहें कॉमन हैं, जिनके चलते लड़ाइयां होती आई हैं. सबसे पहली वजह है- गरीबी. इंटरनेशनल फीचर्स फॉरकास्टिंग सिस्टम का डेटा कहता है कि लगभग 37% अफ्रीकी बेहद गरीबी में जी रहे हैं. यानी साढ़े 4 सौ मिलियन से भी ज्यादा की आबादी. साल 2030 तक ये आंकड़ा साढ़े 5 सौ मिलियन से ऊपर चला जाएगा.
लोकतंत्र की बढ़ती मांग भी एक वजह
लेकिन वो कैसे? असल में अफ्रीका के ज्यादातर देश आजादी के बाद भी सैन्य शासन में रहे. बीते समय से वहां भी लोकतंत्र और पारदर्शी चुनावों की बात होने लगी है. सैन्य शासक इसके लिए हामी तो भर देते हैं, लेकिन चुनाव के दौरान वादे से पलटने या जोर-जबर्दस्ती करने लगते हैं. इसपर लोकल ग्रुप उनसे भिड़ जाते हैं. अक्सर ये संघर्ष कागजी या जबानी न रहकर सशस्त्र लड़ाई में बदल जाता है.
अफ्रीकी देशों में जातीय लड़ाइयां भी कॉमन
पूरे महाद्वीप में मोटे तौर पर तीन एथनिक समूह हैं, बर्बर, होसा और योरुबा. इसमें भी कई सब-डिवीजन हैं. खानपान और पूजा-पाठ से लेकर बोली के आधार पर लोग खुद को अलग मानते हैं. तो होता ये है कि अक्सर सत्ता में बदलाव के दौरान लोकल समूह एक-दूसरे से लड़ने लगते हैं. सभी चाहते हैं कि उनके लोगों के पास ज्यादा ताकत आए. बड़े स्तर पर इसे धार्मिक रंग भी दिया जाता है, जैसे मुस्लिमों में शिया-सुन्नी के बीच का भेद. चूंकि अफ्रीका में युवा आबादी बहुत ज्यादा है, लिहाजा लड़ाइयां भी वहां खुलकर होती हैं.
एजेंडा नहीं हो सका कामयाब
इसके अलावा भी कई कारण हैं, जो मिलकर पूरे के पूरे महाद्वीप में लगातार उथलपुथल मचाए हुए हैं. इसे देखते हुए अफ्रीकन यूनियन ने एक एजेंडा बनाया था, जिसमें एक गोल था- साल 2020 तक सशस्त्र संघर्षों को कम करना. हालांकि अब 2023 आ चुका लेकिन हालात जस के तस हैं.
क्या पश्चिमी देशों की साजिश!
अफ्रीकी मामलों के जानकार ये भी संदेह जताते हैं कि महाद्वीप पर दिखता अंदरुनी संघर्ष असल में इंटरनेशनल स्तर की साजिश है ताकि वहां के कच्चे माल और मैनपावर का पूरा फायदा पश्चिम ले सके. जर्नल ऑफ मॉडर्न अफ्रीकन स्टडीज के आर्टिकल में सिलसिलेवार ढंग से ये दावा किया गया कि अफ्रीका में चल रही सिर्फ 30% लड़ाई ही आपसी है, जबकि बाकी 70% इंटरनेशनल देन है.
कहीं न कहीं इस बात में सच्चाई भी लगती है
अफ्रीका के कांगो में इतनी बड़ी लड़ाई चली, लाखों लोग मारे गए, लेकिन इंटरनेशनल लेवल पर इसकी खास बात नहीं हुई. इसे एक गरीब देश की आपसी चिल्ल-पों की तरह ट्रीट किया गया. ये वैसा ही है, जैसे इंसानों की मौत पर हंगामा हो जाता है, जबकि फैक्ट्री में प्रयोग के दौरान लाखों पशु मरते हैं और कानोंकान खबर तक नहीं. अंदेशा जताया जाता है कि अफ्रीकी आबादी को भी कुछ इसी स्तर पर देखा गया.
इस तरह हो रहा देशों का इस्तेमाल
फिलहाल रूस-यूक्रेन युद्ध पर खूब बात हो रही है. दुनिया के छोटे-बड़े सारे देश किसी न किसी तरह लड़ाई में जुड़ चुके हैं. कोई यूक्रेन को बचाने की बात करता है, तो कोई जंग रोकने की. वहीं अफ्रीका के सूडान या अल्जीरिया में चल रही लड़ाई का कोई जिक्र नहीं होता. या फिर इथियोपिया और कैमरून के लिए कोई खुलकर खड़ा नहीं हो रहा. वहीं चीन से लेकर अमेरिका तक अफ्रीका में भारी निवेश कर रहे हैं. कई देश अफ्रीकी देशों के साथ नया ही खेल कर रहे हैं. जैसे ब्रिटेन ने एक करार करके अपने यहां आए शरणार्थियों को अफ्रीका भेजना शुरू कर दिया. बदले में वो उन्हें नियत रकम देगा. हालांकि आशंका जताई जा रही है कि इससे पहले ही लड़ाई में उलझे देश और बदहाल हो जाएंगे.