
तुर्की राष्ट्रपति चुनावों में एक बार फिर रेचेप तैय्यप एर्दोगन की जीत हुई है. दूसरे चरण के मतदान में एर्दोगन को 52.16% मत हासिल हुए हैं और वो अगले पांच सालों के लिए तुर्की के राष्ट्रपति बन गए हैं. एर्दोगन दो दशक से तुर्की की सत्ता पर काबिज हैं, फिर भी तुर्की में उनकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है.
एर्दोगन ने ऐसे वक्त में चुनाव जीता है जब उनकी आर्थिक नीतियों पर सवाल खड़े किए जा रहे थे. तुर्की में बढ़ती महंगाई के पीछे उनकी आर्थिक नीतियों को जिम्मेदार बताया गया. वो केंद्रीय बैंक पर ब्याज न बढ़ाने का दबाव डालते रहे हैं जिस कारण देश में बेतहाशा महंगाई बढ़ी हैं. आम लोग अपनी मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में खुद को नाकाम पा रहे हैं. पिछले साल तुर्की से ऐसी तस्वीरें लगातार सामने आ रही थीं जिसमें लोग सस्ती ब्रेड की दुकानों के सामने लंबी लाइनों में खड़े दिख रहे थे.
महंगाई से परेशान तुर्की के लोगों के लिए मुश्किलें तब और बढ़ गईं जब इसी साल फरवरी की शुरुआत में तुर्की दो विनाशकारी भूकंपों से हिल उठा. इस भूकंप के कारण हजारों लोगों को मौतें हुई और 10 से अधिक राज्योंं में इमारतें जमींदोज हो गई. एर्दोगन पर आरोप लगे कि उन्होंने राहत और बचाव कार्य में तेजी नहीं दिखाई. इससे भूकंप प्रभावित तुर्की के लोगों में एर्दोगन के प्रति भारी नाराजगी देखने को मिली.
विश्लेषकों ने तब कहा कि एर्दोगन को इस नाराजगी की कीमत चुनावों के वक्त चुकानी पड़ेगी. कई विश्लेषकों ने तो एर्दोगन की हार की भविष्यवाणी कर दी लेकिन एर्दोगन ने सभी को गलत साबित करते हुए एक बार फिर से राष्ट्रपति का चुनाव जीत लिया है.
उनकी इस लोकप्रियता के पीछे कई कारण हैं लेकिन एक कारण जिससे उनके प्रशंसक उन्हें पसंद करते हैं, वो है- एर्दोगन का पश्चिम से टकराना.
एर्दोगन का पश्चिम विरोध का आलम यह है कि उन्होंने चुनाव जीतने के साथ ही पश्चिमी देशों की मीडिया पर निशाना साधा है. अंकारा में राष्ट्रपति भवन के बाहर अपने समर्थकों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि तुर्की के 8.5 करोड़ लोगों की जीत हुई है और पश्चिम का प्रोपेगैंडा हारा है. उन्होंने कहा कि पश्चिम की मीडिया ने उन्हें हराने के लिए पुरजोर कोशिश की लेकिन वो अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हुए.
एर्दोगन की पश्चिम विरोधी नीति
तुर्की की नई विदेश नीति पश्चिम विरोधी है. एर्दोगन ने साल 2015 के बाद से पश्चिम विरोधी नीति को अपनाया. तुर्की के लोगों के लिए पश्चिम विरोध की यह नीति बिल्कुल नई थी क्योंकि इससे पहले के सभी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पश्चिमपरस्त होते थे. एर्दोगन के नेतृत्व में तुर्की अब पश्चिमी देशों को पिछलग्गू बनने के बजाए रूस और चीन से अपने रिश्ते बढ़ाने पर जोर देता है.
एर्दोगन और उनकी जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी (एके पार्टी) के नेता पश्चिमी देशों पर तुर्की की घरेलू नीति में भी दखल का आरोप लगाते हैं. राष्ट्रपति चुनावों के दौरान भी एर्दोगन और उनकी पार्टी ने आरोप लगाया कि पश्चिम की मीडिया ने अपनी पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग से चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश की है.
तुर्की की संसदीय विदेश मामलों की समिति के अध्यक्ष अकिफ कैगाटे किलिक ने राष्ट्रपति चुनाव के दौरान कहा था कि पश्चिम की मीडिया द्वारा तुर्की राष्ट्रपति चुनावों की पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग करना चुनाव के दौरान एक सामान्य घटना है.
टीआरटी वर्ल्ड से बातचीत में उन्होंने कहा था, 'पक्ष लेने का उनका एक ट्रैक रिकॉर्ड है. कुछ पश्चिमी न्यूज आउटलेट तुर्की के वोटर्स के फैसले को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन अब उन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता.'
तुर्की के विदेश मंत्री तुर्की के विदेश मंत्री, मेव्लुट कावुसोग्लु ने भी कथित रूप से तुर्की चुनावों के पक्षपाती कवरेज की आलोचना की थी.
एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान, उन्होंने कहा कि कुछ देश गलत सूचना के माध्यम से तुर्की की जनता की राय में हेरफेर करने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने पश्चिमी मीडिया से आग्रह किया कि वो तुर्की के लोगों की तरफ से खुद फैसला लेने या उन्हें सलाह देने के बजाए निष्पक्ष रूप से रिपोर्टिंग करें.
उन्होंने कहा, 'कोई भी तुर्की के लोगों की इच्छा को दबा नहीं सकता है.'
राष्ट्रपति एर्दोगन ने इस मुद्दे पर पश्चिमी मीडिया के लताड़ते हुए कहा था कि देश की इच्छा के प्रति किसी हस्तक्षेप को वो बर्दाश्त नहीं करेंगे. उन्होंने कहा था, 'हमारी घरेलू राजनीति को वो अखबार नहीं चला सकते जो वैश्विक शक्तियों के लिए एक टूल की तरह काम करते हैं.' एर्दोगन की पश्चिम को लताड़ने की इस नीति ने मतदाताओं को आकर्षित किया है.
नेटो का सदस्य लेकिन नहीं बना पश्चिम का पिछलग्गू
एर्दोगन ने नेटो का सदस्य होने के बावजूद तुर्की को पश्चिम का पिछलग्गू नहीं बनने दिया. नेटो यानी नॉर्थ अंटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन यूरोपीय देशों का सैन्य गठबंधन है जिसका उद्देश्य सोवियत संघ का मुकाबला करना था. 1949 में बने इस गठबंधन में फिलहाल 31 देश हैं.
तुर्की 1952 में इसका सदस्य बना था और एर्दोगन से पहले की सभी सरकारें नेटो देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए जानी जाती थीं. लेकिन एर्दोगन ने सत्ता में आने के बाद से ही तुर्की की विदेश नीति में बदलाव करना शुरू किया और 2015 के आते-आते उनकी नीति पश्चिम विरोधी हो गई.
कई पश्चिमी देशों से इस्लाम के मुद्दे को लेकर तुर्की के संबंध खराब हो गए. फ्रांस, स्वीडन आदि देशों पर वो इस्लाम विरोधी होने का आरोप लगाते रहे हैं. साल 2020 में फ्रांस और तुर्की के संबंध बेहद खराब स्थिति में चले गए थे. राष्ट्रपति एर्दोगन, जो खुद को दुनिया के मुसलमानों का रहनुमा मानते हैं, उन्होंने फ्रांस द्वारा मुसलमान कट्टरपंथियों के खिलाफ कार्रवाई पर भारी रोष जताया था.
उस दौरान मैक्रों ने कहा था कि 'इस्लाम ऐसा धर्म है जो कि आज पूरी दुनिया में संकट में है और हम ऐसा केवल फ्रांस में नहीं देख रहे.'
उनके इस बयान पर एर्दोगन ने कहा था, 'इस्लाम की संरचना पर बात करने वाले आप कौन होते हैं? एक औपनिवेशिक गवर्नर की तरह काम करने के बजाए हम उनसे एक जिम्मेदार नेता होने की उम्मीद करते हैं.'
स्वीडन में भी इस्लाम के कथित अपमान और कुरान की प्रतियां जलाए जाने की घटनाओं से भी एर्दोगन भड़के हुए हैं. यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के बाद से स्वीडन कोशिश में है कि वो नेटो में शामिल हो जाए लेकिन एर्दोगन ने स्वीडन की इन कोशिशों पर पानी फेर दिया है. नेटो में किसी देश के शामिल होने के लिए जरूरी है कि सभी देश उसके शामिल होने पर सहमति जताएं. स्वीडन के मामले में तुर्की राह का रोड़ा बना हुआ है.
नेटो का एक प्रमुख देश होने के बावजूद, तुर्की ने खुद को रूस-यूक्रेन युद्ध में एक मध्यस्थ के रूप में पेश किया है. एर्दोगन की इस कूटनीति से यूरोप और उसके सहयोगी देश चिढ़ गए हैं.
इधर, राष्ट्रपति चुनावों में एर्दोगन के विरोधी कमाल कलचदारलू एर्दोगन से बिल्कुल उलट विदेश नीति की बात करते हैं. उन्होंने राष्ट्रपति चुनावों के दौरान कहा था कि अगर वो सत्ता में वापस आते हैं तो नेटो सहयोगियों के साथ तुर्की से संबंधों को पुनर्जीवित करेंगे.
एर्दोगन की इस्लामवादी नीति
1920 में स्थापना के बाद से ही तुर्की ने एक धर्मनिरपेक्ष नीति का पालन किया था. मुस्लिम बहुल तुर्की के रुढ़िवादी एर्दोगन से पहले की सरकारों में खुद को अलग-थलग महसूस करते थे. एर्दोगन की इस्लामवादी नीति ने उन्हें बहुत प्रभावति किया और एर्दोगन उनके बीच सबसे लोकप्रिय नेता बन गए.
एर्दोगन साल 2003 से ही तुर्की की सत्ता पर काबिज हैं. अपने नेतृत्व में उन्होंने तुर्की को एक इस्लामिक रुढ़िवादी देश बनाने की कोशिश की है. एर्दोगन ने इसी कारण देश में ब्याज दरों को बढ़ने नहीं दिया है क्योंकि, उनके मुताबिक, इस्लाम में कर्ज के पैसे पर ब्याज लेना हराम है.
महिलाओं को लेकर भी उनके विचार रुढ़िवादी हैं. वो कहते हैं कि महिला को एक आदर्श पत्नी और आदर्श मां बनना चाहिए. वो नारिवादियों की आलोचना करते हैं और कहते हैं कि महिलाओं और पुरुषों के साथ एकसमान व्यवहार नहीं किया जा सकता. उन्होंने अपने प्रयासों से तुर्की को एक इस्लामिक देश बनाने की
कोशिश की है.
उनकी इन नीतियों को एक मुस्लिम बहुल देश में बहुत पसंद किया गया है और इसी कारण वो राष्ट्रपति चुनावों में लगातार जीत दर्ज करते आ रहे हैं.
इधर, एर्दोगन के विरोध उम्मीदवार कमाल ने कहा था कि वो अगर सत्ता में आए तो देश में लोकतंत्र को वापस लाएंगे और तुर्की इस्लामवादी नीति नहीं बल्कि उदारवादी नीति अपनाएग. लेकिन अधिकांश लोगों ने उन्हें नकार दिया है.
एर्दोगन ने तख्तापलट की कोशिशों को भी किया है नाकाम
तुर्की की सत्ता पर एर्दोगन की काफी मजबूत पकड़ है. एर्दोगन से पहले तुर्की में अक्सर तख्तापलट होता था लेकिन एर्दोगन ने इस पर अब रोक लगा दी है. हालांकि, साल 2016 में एर्दोगन के खिलाफ ऐसी कोशिश हुई थी जिसे उन्होंने बेहद सख्ती से दबा दिया.
तख्तापलट की इस साजिश के लिए एर्दोगन ने गुलेन आंदोलन को जिम्मेदार बताया. इस आंदोलन का नेतृत्व अमेरिका के रहने वाले इस्लामिक विद्वान फतुल्लाह गुलेन ने किया था. इस तख्तापलट को रोकने के लिए तुर्की के 300 नागरिक मारे गए. एर्दोगन ने तख्तापलट में शामिल सैन्य अधिकारियों पर कठोर कार्रवाई की.
लगभग डेढ़ लाख अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया गया और 50,000 लोगों को हिरासत में लिया गया. तख्तापलट की कोशिश को सख्ती से दबाने के बाद एर्दोगन और मजबूत नेता बनकर उभरे.
एर्दोगन का राजनीति सफर
रेचेप तैय्यप एर्दोगन का जन्म 1954 में हुआ था. एर्दोगन ने एक इस्लामिक स्कूल में पढ़ाई की और उसके बाद इस्तांबुल के मरमार यूनिवर्सिटी से मैनेजमेंट की डिग्री हासिल की. एर्दोगन 1980 के दशक में नेमेटिन एरबाकन की इस्लामवादी वेलफेयर पार्टी में शामिल हो गए. 1994 में एर्दोगन इस्तांबुल मेयर पद के लिए खड़े हुए और जीत गए. 1997 में एर्दोगन को जेल भी जाना पड़ा क्योंकि उन्हें एक कविता के जरिए नस्लीय घृणा फैलाने का दोषी पाया गया.
एर्दोगन जिस पार्टी से जुड़े हुए थे साल 1998 में धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों का उल्लंघन करने के कारण उसे बैन कर दिया गया.
इसके बाद एर्दोगन ने साल 2001 में अपने एक सहयोगी अब्दुल्ला गुल के साथ मिलकर जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी (एके पार्टी) बनाई. एर्दोगन की इस्लामवादी पार्टी को लोगों का भरपूर समर्थन मिला और अगले ही साल संसदीय चुनावों में पार्टी ने बहुमत हासिल किया और एर्दोगन प्रधानमंत्री बन गए.
एर्दोगन ने बतौर प्रधानमंत्री तीन कार्यकाल पूरे किए और इस दौरान उन्होंने तुर्की के विकास के लिए काफी काम किया. उन्हें विश्वभर में तुर्की के सुधारक के रूप में जाना जाने लगा. एर्दोगन ने तुर्की से गरीबी को कम करने में काफी योगदान दिया. एर्दोगन साल 2014 में तुर्की के राष्ट्रपति बने और अब तक अपने पद पर कायम हैं.