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भारत-चीन के बीच तनाव का 'पहाड़' कैसे हटा? मोदी-जिनपिंग को बातचीत की टेबल पर लाने में पुतिन का क्या रहा रोल

यह वह समय था, जब अमेरिका और तमाम यूरोपीय देश रूस पर एक के बाद एक प्रतिबंध लगाते जा रहे थे. पुतिन समझ गए थे कि अमेरिका को टक्कर देने के लिए रूस को भारत और चीन का सपोर्ट हासिल करना होगा. लेकिन रूस की चुनौती थी गलवान की घटना के बाद से भारत और चीन के बीच के कोल्ड वॉर को खत्म कराना.

 भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रूस के राष्ट्रपति पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रूस के राष्ट्रपति पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग
Ritu Tomar
  • नई दिल्ली,
  • 23 अक्टूबर 2024,
  • अपडेटेड 7:41 PM IST

रूस में वोल्गा और कजानका नदी के मुहाने पर बसा कजान शहर इस समय सत्ता का केंद्र बना हुआ है. यूक्रेन युद्ध के बाद से अमेरिका और यूरोप को ठेंगा दिखाते रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की मेजबानी में कई देशों के राष्ट्रप्रमुख कजान में जुटे हैं. लेकिन सबकी नजरें एशिया की दो बड़ी पावर चीन और भारत पर टिकी हुई हैं. लेकिन 2020 में गलवान की घटना के बाद नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग का एक साथ एक छत के नीचे होना यकीनन बड़ी खबर है. मगर अहम सवाल है कि चार साल के टकराव और गतिरोध के बाद चीन के तेवर नरम कैसे पड़ गए? पीएम मोदी और जिनपिंग बातचीत की टेबल तक कैसे पहुंचे? इस सैन्य गतिरोध को सुलझाने में पुतिन की भूमिका क्या थी? 

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1962 की जंग के बाद अतीत में बेमुश्किल ही ऐसा मौका आया, जब भारत और चीन के सैनिक सीमा पर इस तरह लहूलुहान हुए. लेकिन 15 जून 2020 को गलवान घाटी पर जो कुछ हुआ, उसने एशिया की इन दो महाशक्तियों के बीच की खाई को और गहरा कर दिया. हालांकि, इस बीच दोनों देशों के बीच लगातार सैन्य और राजनयिक स्तर पर बातचीत होती रही. लेकिन समस्याएं जस की तस बनी रहीं.

फिर आया साल 2022 जब रूस ने अमेरिका की धमकियों को दरकिनार कर यूक्रेन पर धावा बोल दिया. पूरी दुनिया बेशक दो खेमों में बंटी नजर आई. लेकिन यूक्रेन का समर्थन करने वाले देशों की संख्या रूस की तुलना में कहीं ज्यादा रही. लेकिन पावर बैलेंसिंग के इस गेम में भारत और चीन संभवत: दो ऐसे देश रहे, जिन्होंने ना तो खुलकर रूस का समर्थन किया और ना ही विरोध. 

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यह वह समय था, जब अमेरिका और तमाम यूरोपीय देश रूस पर एक के बाद एक प्रतिबंध लगाते जा रहे थे. एक्सपर्ट्स का मानना है कि पुतिन समझ गए थे कि अमेरिका को टक्कर देने के लिए रूस के लिए भारत और चीन का सपोर्ट बहुत जरूरी है. लेकिन गलवान की घटना के बाद से भारत और चीन के बीच के कोल्ड वॉर को खत्म करना चुनौती थी. 

क्या SCO समिट में लिख दी गई थी एग्रीमेंट की स्क्रिप्ट!

चीन के विदेश मंत्री और पोलित ब्यूरो के सदस्य वांग यी को चीन में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बाद दूसरा सबसे ताकतवार नेता माना जाता है. इस साल जुलाई में कजाकिस्तान में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक से अलग विदेश मंत्री जयशंकर ने चीन के विदेश मंत्री वांग यी से मुलाकात की थी, मुद्दा एलएसी सैन्य गतिरोध को सुलझाना था. 

इस दौरान सिर्फ जयशंकर ने ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल ने भी वांग से मुलाकात की थी. कई रिपोर्ट्स में कहा गया कि बेशक उस समय इन मुलाकातों को सामान्य बैठकों के तौर पर देखा गया लेकिन दोनों देश सैन्य गतिरोध सुलझाने की दिशा में काम कर रहे थे. ये भी कहा गया कि दोनों देशों के बीच इस पेट्रोलिंग एग्रीमेंट में पुतिन ने एक बड़ी भूमिका निभाई. इसके बाद लाओस में भी दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने मुलाकात कर एलएसी गतिरोध को तत्काल खत्म करने पर जोर दिया. 

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पुतिन से अजीत डोभाल की मीटिंग के मायने क्या?

सितंबर में रूस के राष्ट्रपति पुतिन के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की तस्वीरें खूब वायरल हुई थीं. डोभाल 12 सितंबर को पुतिन से मिलने सेंट पीट्सबर्ग पहुंचे थे. इस मुलाकात के बारे में आधिकारिक तौर पर कहा गया कि पीएम मोदी के यूक्रेन दौरे के दौरान हुई बातचीत और निष्कर्षों से पुतिन को वाकिफ कराने के लिए डोभाल उनसे मिले थे. लेकिन एक्सपर्ट्स का कहना है कि पुतिन से डोभाल की मुलाकात की असली वजह चीन के साथ भारत के सैन्य गतिरोध को खत्म करना था.

रूस के राष्ट्रपति पुतिन के साथ एनएसए अजित डोभाल

डोभाल ने पुतिन से मुलाकात के बाद चीन के विदेश मंत्री वांग यी से भी मुलाकात की थी. लेकिन भारत और चीन के बीच हुए इस एग्रीमेंट में पुतिन की कितनी बड़ी भूमिका थी? इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 12 सितंबर को जब एनएसए अजीत डोभाल ने पुतिन से मुलाकात की थी. उसके ठीक बाद चीन के विदेश मंत्री वांग यी भी पुतिन से मिले थे.

रूसी राष्ट्रपति पुतिन से चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने की थी मुलाकात

बंद कमरे के भीतर दो देशों के प्रतिनिधियों से पुतिन की मुलाकात का एजेंडा बाहर नहीं आ पाया. एक तरफ भारत ने इसे पीएम मोदी के यूक्रेन दौरे की ब्रीफिंग से जोड़ा जबकि चीन ने इसे सामान्य मुलाकात बताया. लेकिन कई एक्सपर्ट्स ने खुलकर जाहिर किया कि पुतिन के साथ हो रही ये बैठकें एलएसी पर चार साल से जारी सैन्य गतिरोध खत्म करने की कवायद थी.

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दोनों देशोें की ओर से मुलाकातों का ये दौर सिर्फ पुतिन तक सीमित नहीं था. बाद में डोभाल और वांग यी ने भी एक दूसरे से मुलाकात की थी, जिसकी तस्वीरें बाद में सोशल मीडिया पर वायरल हुई. 

चीनी विदेश मंत्री वांग यी के साथ एनएसए अजित डोभाल.

भारत और चीन का एक साथ आना रूस के लिए फायदे का सौदा!

इस समय दुनिया कई मोर्चों पर जंग लड़ रही है. फरवरी 2022 में यूक्रेन पर रूस के हमले से दुनिया में एक नई जंग शुरू हुई. लेकिन ये सिर्फ शुरुआत थी, इसके बाद मिडिल ईस्ट के कई देश जंग की आग में कूद पड़े. यूक्रेन पर रूस के हमले से अमेरिका और यूरोप ने रूस को अलग-थलग कर दिया. अंतरराष्ट्रीय बाजार में रूस के तेल पर प्रतिबंध लगाया गया. कई देशों ने रूस के साथ राजनयिक संबंध खत्म कर दिए. 

रिपोर्ट्स के मुताबिक, इस बीच अलग-थलग पड़े पुतिन ने ग्लोबल साउथ पर जोर दिया. इसके लिए उन्होंने ब्रिक्स को G-7 के वर्चस्व को चुनौती देने वाले विकल्प के तौर पर पेश करने की कवायद शुरू कर दी. लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं है कि ब्रिक्स की मजबूती पूरी तरह से भारत और चीन से जुड़ी हुई है. ऐसे में पुतिन ने दोनों देशों के बीच चल रहे सैन्य गतिरोध को खत्म करने में दिलचस्पी दिखाई. इसके लिए सिलसिलेवार तरीके से कभी जयशंकर तो कभी डोभाल तो कभी वांग यी से मुलाकातों का दौर शुरू किया गया. 

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सऊदी अरब और UAE को ब्रिक्स में शामिल करना स्ट्रैटेजिक कदम

राष्ट्रपति पुतिन को इस बात का पूरा इल्म है कि अमेरिका के दबदबे को खत्म करने के लिए ग्लोबल साउथ का उभार बहुत जरूरी है. ऐसे में जितना हो सके, ब्रिक्स का विस्तार किया जाएगा. शुरुआत में चार देशों की पहल से शुरू हुए ब्रिक्स में साउथ अफ्रीका को जोड़कर इसकी संख्या पांच की गई. इसी साल जनवरी में सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, ईरान, इथियोपिया और मिस्र को भी ब्रिक्स में एंट्री दी गई. सऊदी अरब और यूएई के जुड़ने से तेल बाजार पर ब्रिक्स देशों का दबदबा हो गया है. 

दुनिया के 9 सबसे बड़े तेल उत्पादकों में से 6 ब्रिक्स के सदस्य हैं. इनमें सऊदी अरब, रूस, चीन, ब्राजील, ईरान और यूएई है. दुनिया का 43 फीसदी से ज्यादा तेल का उत्पादन इन्हीं देशों में होता है. इस वजह से ब्रिक्स के विस्तार से अमेरिका की चिंता बढ़ सकती है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एक बार कहा था कि वो नहीं चाहते कि उनके दोस्त बाकी देशों के साथ रिश्ते बनाएं.

ब्रिक्स से पहले भारत और चीन के सुलह की टाइमिंग

ऐसे में सवाल उठाए जा रहे हैं कि जब जुलाई में ही भारत और चीन के बीच सैन्य एग्रीमेंट की रूपरेखा तैयार कर ली गई थी तो ब्रिक्स समिट से ठीक एक दिन पहले इसका ऐलान क्यों किया गया? तो इसकी वजह है कि पुतिन ब्रिक्स समिट जैसे अंतरराष्ट्रीय मंच से अमेरिका और यूरोप को बड़ा संदेश देना चाहते थे. वह यह दिखाना चाहते थे कि उनकी पहल से दोनों देश बातचीत की मेज तक आ पाए हैं और ब्रिक्स की ताकत घटने के बजाए लगातार बढ़ रही है.

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