
दूध में मिलावट के आरोप में 42 साल पुराने मामले में गिरफ्तार 90 साल के एक शख्स ने सुप्रीम कोर्ट में राहत के लिए गुहार लगाई है. बुजुर्ग शख्स पर खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम (पीएफए) के तहत दोषी ठहराए जाने पर छह महीने कैद और 2000 रुपये जुर्माने की सजा को चुनौती देते हुए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.
खुर्जा के रहने वाले 90 साल के वीरेंद्र कुमार को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लगभग दस साल पहले दूध में मिलावट के अपराध में सजा सुनाई थी. हाईकोर्ट ने 2013 में ये फैसला दिया था. उसी फैसले के आधार पर वीरेंद्र कुमार को पिछले महीने गिरफ्तार किया गया. क्योंकि वीरेंद्र ने फैसला सुनाए जाने के 30 दिनों के भीतर सजा काटने के लिए आत्मसमर्पण नहीं किया था.
वीरेंद्र के वकील अजेश कुमार चावला ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस अनिरुद्ध बोस और जस्टिस राजेश बिंदल की अवकाशकालीन पीठ के सामने मामला उठाया. पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ उनकी अपील लंबित है. जमानत के लिए याचिका पर पीठ बुधवार को सुनवाई करेगी.
हाईकोर्ट को ट्रायल कोर्ट के फैसले के मुताबिक दोषसिद्धि को बरकरार रखने का फैसला देने में लगभग 26 साल लग गए. सात अक्टूबर, 1981 को फूड इंस्पेक्टर ने उस समय 48 साल के वीरेंद्र को मिलावटी दूध बेचते हुए पकड़ा था.
खुर्जा न्यायिक मजिस्ट्रेट ने 29 सितंबर, 1984 को पीएफए अधिनियम के तहत कुमार को दोषी ठहराया था. इस फैसले को 14 जुलाई, 1987 को बुलंदशहर सत्र न्यायाधीश ने भी बरकरार रखा गया था. ट्रायल कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील को 30 जनवरी, 2013 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा था.
फूड इंस्पेक्टर द्वारा लिए गए नमूनों से दूध के मिलावटी होने की पुष्टि हुई थी. वसायुक्त ठोस पदार्थ यानी दूध में खोया की मात्रा मानक से 28% कम थी. जबकि गैर-वसायुक्त ठोस मानक से 12 फीसदी कम थे. कुमार ने ट्रायल कोर्ट के सामने दलील दी थी कि वह एक बस कंडक्टर था और दूध बेचने के व्यवसाय में नहीं था. वो 7 अक्टूबर, 1981 को धार्मिक अनुष्ठान के लिए दूध ले जा रहा था.
जब अभियुक्त के वकील ने हाईकोर्ट के समक्ष दलील दी कि मामला 32 साल पुराना है और वह पहले से ही 80 वर्ष का है, तो हाईकोर्ट ने दोषसिद्धि को बरकरार रखा लेकिन सजा को घटाकर छह महीने कर दिया पर जुर्माने की राशि 2000 रुपये ही बरकरार रखी. दोषी को 30 दिनों के भीतर आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया गया, जिसमें असफल रहने पर उसने निचली अदालत से गैर-जमानती वारंट जारी करने को कहा था.
हाईकोर्ट द्वारा फैसला सुनाए जाने के एक दशक से भी अधिक समय बीतने के बाद पिछले महीने वारंट जारी किया गया. वीरेंद्र के वकील चावला ने दलील दी कि बुजुर्ग गंभीर रूप से बीमार है और उन्हें इलाज के लिए जमानत पर रिहा करने की जरूरत है.