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शव की राख का सूप, लाश के मोती, पक्षियों को डेड बॉडी खिलाना... रूह कंपा देंगे अंतिम संस्कार के ये रिवाज

दुनिया में कई धर्मों के लोग रहते हैं और हर धर्म में इंसान की मौत (Death) के बाद अंतिम संस्‍कार करने की अपनी परंपराएं होती हैं. हिंदू धर्म मौत के बाद शव को जलाने की परंपरा है. तो वहीं, ईसाई और मुस्लिम धर्म में शवों को दफना दिया जाता है. लेकिन कुछ देशों में अंतिम संस्कार के नियम बहुत अजीब और डरावने हैं. चलिए जानते हैं अंतिम संस्‍कार (Burial) करने के कुछ ऐसे तरीकों के बारे में...

दुनिया के अजीबो-गरीब अंतिम संस्कार (फाइल फोटो) दुनिया के अजीबो-गरीब अंतिम संस्कार (फाइल फोटो)
तन्वी गुप्ता
  • नई दिल्ली,
  • 16 मार्च 2023,
  • अपडेटेड 1:47 PM IST

इंसान, जानवर, या पक्षी. चाहे कोई भी हो. सबकी मौत (Death) निश्चित है. क्योंकि मौत ही जीवन का एकमात्र सच है, जिसे कभी भी झुठलाया नहीं जा सकता. अगर हम इस धरती पर आए हैं तो हमें एक न एक दिन मरना भी है. इंसान की जब मौत होती है तो उसका अंतिम संस्कार (Burial) भी किया जाता है.

लेकिन हर धर्म में अंतिम संस्कार के तौर-तरीके अलग-अलग होते हैं. कोई शव को दफनाता है तो कोई उसे जलाता है. लेकिन आज हम आपको कुछ ऐसे अंतिम संस्कारों के बारे में बताएंगे जिनके बारे में शायद ही आपको पता हो.

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शव के टुकड़े कर परिंदों को खिलाना
तिब्बत में बौद्ध धर्म के लोगों का अंतिम संस्कार करने का तरीका बेहद अनोखा है. दरअसल, जब भी यहां किसी की मौत होती है तो उसका आकाश अंतिम संस्कार (Sky Burial) किया जाता है. इसमें मृतक के परिजन या उसकी जान पहचान के लोग शव को लेकर सबसे पहले पहाड़ की एक चोटी में जाते हैं, जहां अंतिम संस्कार के लिए जगह बनी होती है. वहां पर अंतिम संस्कार करने के लिए कुछ लामा या बौद्ध भिक्षु मौजूद होते हैं. सबसे पहले वे शव की विधि विधान से पूजा करते हैं. फिर वहां मौजूद कर्मचारी जिसे रोग्यापस (rogyapas) कहते हैं, वो उसके छोटे-छोटे टुकड़े करता है.

बाद में दूसरा कर्मचारी उन टुकड़ों को जौ के आटे के घोल में डुबोता है. फिर उन टुकड़ों को आस-पास फेंक दिया जाता है. ताकि गिद्ध (Vultures) और चील (Eagles) आकर उन टुकड़ों को खा जाएं. बाद में शव की हड्डियों को फिर से एकत्रित कर उसका चूरा बनाकर दोबारा जौ के आटे के घोल में डुबोकर चील या कौओं को डाल दिया जाता है. यह परंपरा हजारों सालों से चलती आ रही है.

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Daily Mail के मुताबिक, यह परंपरा के कुछ प्रमुख कारण हैं. एक तो यह कि तिब्बत काफी ऊंचाई पर है. यहां पेड़ नहीं पाए जाते. इसलिए शव को जलाने के लिए लकड़ियों का अभाव होता है. दूसरा कारण है कि वहां जमीन काफी पथरीली है. शव दफनाने के लिए जमीन को ज्यादा गहरा नहीं खोदा जा सकता. और सबसे अहम कारण है बौद्ध धर्म के लोगों की मान्यता. उनका मानना है कि मौत के बाद इंसान का शरीर एक खाली बर्तन के समान है. इसलिए उसे सहेज कर रखने की जरूरत नहीं. उनका ये भी मानना है कि दफनाने के बाद भी लाश को कीड़े-मकौड़े ही खाते हैं. इससे बेहतर है कि उसे परिंदों को खिला दिया जाए. इसे वो 'आत्म-बलिदान' भी कहते हैं.

शव को निकालना, और जश्न मनाना
अफ्रीका के पूर्वी तट पर स्थित मैडागास्कर (Madagascar) में भी शव का अंतिम संस्कार बेहद अजीबो-गरीब तरीके से किया जाता है. यहां जब भी किसी की मौत होती है तो वहां शव को दफनाने के बाद उसे बीच-बीच में निकाल कर देखा जाता है. दरअसल, वहां के लोगों की मान्यता है कि जब तक शव का मांस गल नहीं जाता, तब तक मृतक को दूसरा शरीर नहीं मिल पाता.

जब शव गल जाता है और बस कंकाल रह जाता है तो लोग उसका जश्न मनाते हैं. वे शव को निकालकर पहले खूब नाच-गाना करते हैं और धूमधाम से खुशियां मनाते हैं. उन्हें लगता है कि अब मृतक को नया शरीर मिल गया है. बाद में उस शव को वे लोग फिर से दफना देते हैं. इस परंपरा को वहां के लोग फामाडिहाना (Famadihana) कहते हैं.

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शव की राख से को मोती में रखना
दक्षिण कोरिया में भी अंतिम संस्कार की कुछ ऐसी परंपरा है जो सबसे हटकर है. दरअसल, यहां के जब किसी की मौत हो जाती है तो, मृतक के परिजन शव को जलाने के बाद उसके अवशेषों को अलग-अलग रंगों के मोतियों (फिरोजी, गुलाबी या काला) में संरक्षित कर देते हैं. इसके बाद इन्हें कांच के बर्तन में डालकर घर की खास जगहों पर रख दिया जाता है. दरअसल, दक्षिण कोरियाई लोगों का मानना है कि इससे उन्हें लगता है कि उनके प्रियजन उनके आस-पास ही हैं.

Los Angeles Times के मुताबिक, दक्षिण कोरिया की एक "डेथ बीड" कंपनी बोनहयांग (Bonhyang) भी शवों  की राख को मोतियों में संरक्षित करने का काम करती है. कंपनी के संस्थापक और सीईओ बा जे-यूल (Bae Jae-yul) का कहना है कि उन्होंने पिछले एक दशक में 1,000 से अधिक ग्राहकों को अपनी सेवा दी है. इसी तरह कई कंपनियां इस तरह के मोती बनाती हैं. ऐसी ही एक कंपनी मिकवांग (Mikwang) ने भी बताया किया कि उनकी कंपनी ने हजारों ग्राहकों के लिए मोती बनाए हैं. इन मोतियों के हार नहीं बनाए जाते. सिर्फ उन्हें घर में कांच के बर्तन में डालकर ही रखा जाता है.

शव की राख का सूप पीना
अमेजन के जंगलों में पाई जाने वाली यानोमानी जनजाति की अगर बात करें तो इनका मृतक का अंतिम संस्कार करने का तरीका काफी हैरान करने वाला है. वे लोग एंडोकैनिबलिज्म (Endocannibalism) रिवाज को फॉलो करते हैं. इस रिवाज के मुताबिक, जब भी घर में किसी की मौत होती है तो वे लोग पहले मृतक के शव को पत्तों से ढक कर कहीं रख देते हैं. फिर एक महीने बाद शव को जलाकर उसकी राख एक बर्तन में डाल देते हैं. फिर उस राख का सूप बनाकर पूरा परिवार उसे पीता है. The Guardian के मुताबिक, इस समुदाय का मानना है कि मृत व्यक्ति की आत्मा को शांति तभी मिलती है, जब उसके शव को रिश्तेदारों ने खाया हो.

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मौत के बाद भी साथ रखते हैं परिजनों का शरीर
इंडोनेशिया का एक समाज अपनों से इतना प्यार करता है कि उनकी मौत के बाद भी उन्हें खुद से अलग नहीं कर पाता. दक्षिण सुलावेसी के पहाड़ों पर रहने वाले तोरजा समाज के लोग अपने परिवार के किसी सदस्य की मौत के बाद शव को नहीं दफनाते बल्कि उसे अपने साथ ही रखते हैं. तोरजा समाज के लोग मृत्यु के बाद भी शव को परिवार का ही हिस्सा मानते हैं. शव को घर में वैसे ही रखा जाता है जैसे वो व्यक्ति मृत्यु से पहले था. ये लोग मृतक को बीमार व्यक्ति की तरह मानते हैं, जिसे 'मकुला' कहते हैं. वो रोजाना उनकी देखभाल करते हैं. उनका शरीर सुरक्षित रहे इसके लिए फॉर्मल्डिहाइड और पानी का मिश्रण नियमित रूप से उनके शरीर पर लगाते हैं. अपने घर में शव के साथ रहना इनके लिए जरा भी अजीब नहीं है, क्योंकि ये इनकी संस्कृति है.

Daily Mail के मुताबिक, इस समाज की मान्यता है कि इंसान के अंतिम संस्कार में पूरा कुनबा साथ रहना चाहिए. इसलिए जब तक परिवार के सभी लोग इकट्ठा नहीं होते शव का अंतिम संस्कार नहीं किया जाता. अंतिम संस्कार में पूरा कुनबा शामिल होता है. इसमें भव्य भोज का आयोजन किया जाता है. इस अवसर पर भैंसे की बलि देते हैं. मान्यता के अनुसार, जो व्यक्ति मर जाता है उसके साथ भैंसे का होना जरूरी है क्योंकि मरने के बाद भैंसा ही दूसरी दुनिया तक जाने का माध्यम होता है.

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इन शव को दफनाते नहीं, बल्कि पहाड़ियों पर बनी प्राकृतिक गुफाओं में उन्‍हें एक ताबूत में रख दिया जाता है. इन गुफाओं में जरूरत की सभी चीजें ताबूत के साथ रखी जाती हैं. इस समाज का मानना है कि आत्माएं उनका इस्तेमाल करती हैं. अंतिम संस्कार करने के बाद भी तोरजा समाज अपने अपनों को नहीं भूलता. हर तीन साल में दूसरा अंतिम संस्कार किया जाता है जिसे 'मानेन' कहते हैं. इसे शवों का सफाई संस्कार भी कहते हैं. शवों को ताबूतों से निकाल कर उस जगह लाया जाता है जहां इनकी मौत हुई थी.

तीन साल के बाद शव का रूप बदल जाता है. ये लोग शव को साफ करते हैं, उनके बाल बनाते हैं, और नए कपड़े पहनाते हैं और उनके साथ तस्वीरें खिंचवाते हैं. इस दौरान ताबूतों की मरम्मत की जाती है. बाद में शवों को ताबूत में रखकर उनके जगह पर वापस छोड़ दिया जाता है.

ये संस्कार अपने अपनों को याद करने और उनके प्रति प्यार दिखाने का एक तरीका होता है. ऐसा करने की एक खास वजह ये भी होती है परिवार का जो वंश आगे बढ़ चुका है वो अपने पूर्वजों की मृत्यु पर के प्रति आभार व्यक्त करते हैं.

 

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