भारतीय संस्कृति में अगर अध्यात्म का सिरा पकड़ कर चलें तो इसका एक छोर हमें ललित कलाओं की ओर ले जाता है. ललित कलाएं, चाहे वह मूर्ति शिल्प हो, चित्रकारी हो, गायन-वादन हो या फिर नृत्य. प्राचीन काल से ही ललित कलाएं साधना का अंग रही हैं और इनके साधकों ने इसके माध्यम से अपने-अपने आराध्य की आराधना ही की है. मीरा सुरीले स्वर में भजन गाते हुए कहती हैं, 'पायो जी मैं तो राम रतन धन पायो...' तो वहीं संत तुलसीदास लिखते हैं, 'सिया राम मैं सब जग जानी, करऊं प्रनाम जोरि जुग पानी'. संत कवि सूरदास की साधना के रंग में तो ऐसा प्रेम समाया है कि वह जब-जब अपने कन्हैया का ध्यान करते हैं तो उनके प्रति वात्सल्य से भर जाते हैं, फिर इसी भाव में वह गाते हैं, 'मैया मोरी मैं नहीं माखन खाय़ो...'
यह जो भी पद, गीत, काव्य या छंद हैं, सभी में एक ही भाव है और भाव को और भी गहराई से समझें तो इनमें जो रस है वह भक्ति का रस है और इस भक्ति रस का पक्ष है शृंगार. अपने-अपने तरीके से सभी कवियों और भक्ति पदावली लिखने वाले रचनाकारों ने शृंगार के ही अलग-अलग भावों और पक्षों को खूबसूरती से रखा है.
शृंगार सिर्फ कलात्मक रूप नहीं, जीवन की धड़कन
नृत्यांगना शोभना नारायण शृंगार के गहरे अर्थ पर रौशनी डालते हुए कहती हैं कि, “शृंगार, मेरे लिए, केवल एक कलात्मक रूप नहीं है. यह जीवन की धड़कन है, एक ऐसी भाषा है जो सीधे दिल से बात करती है. शृंगार एक ऐसा भाव है, जो वहां भी मौजूद है, जहां कुछ नहीं है. यह विलोपन, यह वियोग भी शृंगार का ही एक पक्ष है. इसके कैनवस को प्रेम, संयोग-वियोग, राग-द्वेष के बजाय और बड़ा व विस्तृत करके देखने की जरूरत है.'
नृत्यांगना मधुरा फाटक जो कथक के बैठकी भाव को कई मौकों पर प्रस्तुत कर चुकी हैं. वह शृंगार रस को अपनी प्रस्तुति के जरिए परिभाषित करते हुए कहती हैं कि शृंगार के कई पक्ष हो सकते हैं. जब भक्त का भगवान से रिश्ता गहरा हो जाता है तो वह उनसे आशीष लेता ही नहीं, बल्कि उन्हें भी आशीर्वाद दे देता है. इसकी एक बानगी सूरदास के पद में देखिए.
'रानी तेरो चिरजीयो गोपाल.
बेगिबडो बढि होय विरध लट, महरि मनोहर बाल.
उपजि पर्यो यह कूंखि भाग्य बल, समुद्र सीप जैसे लाल,
सब गोकुल के प्राण जीवन धन, बैरिन के उरसाल.'
इंडिया हैबिटेट सेंटर में जनवरी 2025 को उन्होंने इसी बैठकी भाव पर एक खूबसूरत प्रस्तुति दी थी. मधुरा सूरदास के इस पद को सुनाते हुए इस पर नृत्य के भाव प्रस्तुत करती थीं और हर शब्द को अपनी अंगुलियों, आंखों के इशारों, हाथेलियों की मुद्राओं से स्पष्ट करते हुए बैठकी भाव को जीवंत करती जाती थीं. वह कहती हैं कि, शृंगार का अर्थ मेकअप से मत लगाइए, न ही ये ग्लैमर है. ये सिर्फ स्त्री और पुरुष के बीच के प्रेम का भी नाम नहीं है, ये सारी बातें शृंगार के पक्ष को, इसके तथ्य को सीमित कर देते हैं.
असल में शृंगार, मन का भाव है. अब ये आप पर है कि आप अपने भाव को कितने सुंदर तरीके से सजा पाते हैं. वह कहती हैं कि, जैसे किसी में अगर जलन की भावना भी है, तो इसके पीछे भी शृंगार रस ही है. इसके उदाहरण में वह श्रीकृष्ण और गोपियों के बीच की एक और बातचीत के प्रसंग को सामने रखती हैं.
जब गोपियों को हुई कृष्ण की वंशी से जलन
प्रसंग है कि गोपियां कृष्ण को उलाहना दे रही हैं कि आप तो दिनभर बंसी ही बजाते हो. फिर वह अपनी ईर्ष्या की वजह बंसी को बताती हैं कहती हैं कि 'हे बंसी, तुमने कौन सा तप किया है. कृष्ण तुम्हें सदैव ही अपने हाथों में रखते हैं और तुम्हें होठों से भी लगाते हैं.'
'री बंसी, कौन तप ते कियो
रहत गिरधर मुख ही लागत
अधरन को रस पियो...'
उन्होंने अपने पारंपरिक प्रदर्शनों से दर्शकों को एक गीत, नृत्य, काव्य और रस के गहरे भाव पूर्ण अनुभव से परिचित कराया है. उन्होंने यह दिखाया कि कैसे शृंगार शास्त्रीय नृत्य में गहरे भावनात्मक संबंधों को पैदा करता है और कैसे इसके भाव मन को सुकून पहुंचाते हैं.