भारत परंपराओं का देश है और हर परंपरा को बताने या कहने की जो शैली है वह है कहानी, यानी कि कथा. इसी कथा को जब हाव-भाव और सुर-लय ताल के साथ कहा गया तो यह बन गया कथक. कथक नृत्य की बात आती है तो अनायास ही उत्तर भारत के मैदानी हिस्सों की छवि मन में आती है और इस छवि को गढ़ने का काम किया है घरानों ने. इन घरानों में कथक का लखनऊ घराना और बनारस घराना बहुत ही प्रसिद्ध रहे हैं. घराने और भी हैं और उनकी विशेषताएं भी बेजोड़ हैं, लेकिन अभी जिस बारे में बात की जानी है, वह है कथक की एक खास शैली, 'कथक बैठकी'
सहज अभिव्यक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका
कथक की कला में विशेष रूप से इसकी कहानी कहने की शैली में सहज अभिव्यक्ति (इम्प्रोवाइजेशन) की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. कथक कलाकार कहानी की भावनात्मक टेंडेंसी को न सिर्फ मंचन के दौरान आत्मसात कर पाते हैं, बल्कि जब वे अपने मानसिक चित्रों को मंच पर भाव के जरिए गढ़ रहे होते हैं तब, वह चेहरे के भावों और शारीरिक मुद्राओं के जरिए उन्हीं भावों को अंदर से बाहर भी लाते हैं. सहज अभिव्यक्ति की सबसे चुनौती पूर्ण शैलियों में से एक है बैठक. इसे कथक का बैठकी भाव भी कहते हैं.
इस विधा में कलाकार बैठकर गीत या कवित्त के शब्दों को सुनाता है और केवल अपने धड़, हाथों और चेहरे के जरिए प्रतिक्रिया देता है. इसमें कोई जटिल पद संचालन या नृत्य रचनात्मकता नहीं होती, जिससे पात्र के आंतरिक जीवन पर पूर्ण ध्यान केंद्रित किया जाता है. जब वही पंक्ति बार-बार दोहराई जाती है, तो नर्तक पहले प्रत्येक शब्द के अर्थ को दर्शाने (बोल बताना) से शुरू करता है और फिर धीरे-धीरे एक संपूर्ण दृश्य और भावनात्मक परिदृश्य (भाव बताना) प्रस्तुत करता है.
बिंदादिन महाराज की प्रसिद्ध ठुमरी पर भाव बैठकी
"घिर घिर आए बदरा..." – लखनऊ घराने के महानतम कवि बिंदादिन महाराज द्वारा रचित यह ठुमरी बैठक प्रस्तुति के लिए आदर्श माध्यम रही है. एक तूफानी रात का यह सरल चित्रण एक विस्तृत भावनात्मक परिदृश्य को जन्म देता है. चारों ओर घने काले बादल उमड़ रहे हैं, भारी बारिश होने वाली है.
यह बाहरी वातावरण नायिका के अंतर्मन के उथल-पुथल और प्रियतम के वियोगजनित अकेलेपन को प्रतिबिंबित (सामने रखता है) करता है. प्रेम में डूबी स्त्री के मन में उमड़ते-घुमड़ते विचार और भावनाएं, अकेलापन... भय... आशा... आनंद. उसके हर हाव-भाव और मुद्राओं में झलकते हैं. अकेलापन, क्योंकि उसका शयन कक्ष खाली है; भय, कि कहीं प्रियतम ने उसे छोड़ तो नहीं दिया! आशा, कि उसे किसी के कदमों की आहट सुनाई देती है! आनंद, कि शायद उसके प्रियतम का आगमन होने वाला है. मात्र चार पंक्तियों की इस कविता में नायिका जीवनभर के जटिल भावों का अनुभव कर लेती है.
अब पूरी ठुमरी की स्थाई देखकर कथक के बैठकी भाव का अंदाजा लगाइए.
"घिर घिर आए बदरा,
चमके बिजली, गरजे घनवा, बरसे जलधारा...
मोरा जिया डराए, सखी मोरा जिया डराए...
बिंदादिन कहत, तन मोरा कांपे, पिया बिनु घबराए..."
यह ठुमरी कथक में बैठक शैली में प्रस्तुत की जाती रही है, जिसमें नर्तक केवल अपने चेहरे, हाथों और शरीर के ऊपरी भाग से भाव व्यक्त करता है. इसे गाने में भवात्मक आलाप, मींड, गमक, बोल-बनाव और लयकारी का विशेष महत्व होता है. ठुमरी में नायिका की मनोदशा विरह और श्रृंगार रस के जरिए प्रकट होती है, जो इसे बेहद संवेदनशील और भावपूर्ण बनाती है. ठुमरी लखनऊ और बनारस घराने की गायकी में खास तौर पर प्रसिद्ध है.
कई प्रसिद्ध ठुमरी गायकों और कथक कलाकारों द्वारा इसे प्रस्तुत किया गया है, जिनमें पं. बिरजू महाराज, शोभा, गिरिजा देवी, निधि नारायण आदि प्रमुख हैं. कथक नृत्य में इसे भाव प्रदर्शन (अभिनय अंग) के रूप में खास दर्जा मिला हुआ है. यह ठुमरी न केवल संगीत प्रेमियों के लिए एक अनमोल धरोहर है, बल्कि कथक कलाकारों के लिए भी एक सजीव अनुभूति का माध्यम है, जिसमें बारिश की नमी के साथ नायिका की भावनाएं भी छलक उठती हैं.