बसंत पंचमी के आगमन पर सरस्वती पूजा हुई और चौराहे पर रख दी गई सम्मत. ये सम्मत रखे जाने का दिन ही इस बात का ऐलान है कि अब क्या तो दिन, क्या रात, क्या दोपहर और क्या शाम. अब चलेगा फाग... हालांकि ये महीना माघ का ही होता था, लेकिन गुनगुनी धूप में कुनकुनी सी लगती हवा जब तन-बदन को छेड़ जाती है और हरी-पीली चुनरिया पहने धरती सुहागिन सी लगने लगती है तो गांवों में ये मौसम बहार का होता है. जब इतनी भाग-दौड़ नहीं हुआ करती थी तब ये बहार पहले शहरों तक भी आती थी, लेकिन अब तो गांव भी शहर हो चले हैं लिहाजा वहां फाग वाली बहार आती है कि नहीं, कह नहीं सकते.
माघ पंचमी, सरस्वती पूजा और फाग
फिर भी दौर को थोड़ा ही पीछे ले जाकर देखें तो माघ की पंचमी के बाद से ही गांव में एक अलग ही माहौल खिलने लगता था. फसल पक चुकी होती थी और उनकी पहली खेप कटकर खलिहान में जमा होने लगती थी. सरस्वती पूजा एक तरीके से प्रकृति पूजा भी हुआ करती है और मां शारदे के चढने वाले फूलों में कनेर, पलाश, गुलमोहर, सरसों के फूल, महुआ के फूल और आम के बौर हुआ करते थे. नवान्न (नए अनाज की बाली) भी चढ़ाई जाते और खेत से लेकर बाग-बगीचे तक में मदनोत्सव ऐसा छा जाता था कि लगता था खुद कामदेव आकर हर ओर अपने तीर चला रहे हैं.
इन्हीं तीरों से घायल मन गा उठता है और वह जो गान करता है, उसे ही फाग कहते हैं. फाग दो महीने तक चलने वाली पारंपरिक गायन की एक विधा है, जो है तो शास्त्र में ही समाई हुई, लेकिन शास्त्रीय मान्यताओं से कुछ परे. फाग की खासियत ये है कि बस ताल के साथ मेल करते हुए गाए जाओ, एक बारगी स्वर से भटके तो कोई समस्या नहीं, लेकिन बेताला नहीं होना चाहिए.
यूपी-बिहार में फाग की गूंज
उत्तर प्रदेश के पूर्वी ओर से लेकर पूरे बिहार में फाग की ऐसी गूंज है कि इसके आगे सब सूना है. ऐसा नहीं है कि फाग पर भोजपुरी भाषी इलाकों का एकाधिकार है, बल्कि फाग की परंपरा तो अवध, ब्रज, बुंदेलखंड, राजस्थान और हरियाणवी रागिनी में भी है, लेकिन यूपी-बिहार के फाग में मस्ती भी है, पलायन का दर्द भी है. विरही की वेदना भी है. इसमें सास-ननद और परिवार का ताना भी है और सामाजिक बाना भी.
इस फाग में चिड़िया (चिरई), तोता (सुग्गा), सांप-बिच्छू (संपिनिया- बीछी) से लेकर खेत-खलिहान, गांव-दुआर सब कुछ है. इसके अलावा इसमें राम भी हैं, कृष्ण भी हैं. राधा और सीता भी हैं. शिव-पार्वती तो अनिवार्य रूप से हैं, जो-जो भी हैं वह सब जी भरकर रंग खेल रहे हैं, अबीर-गुलाल उड़ा रहे हैं और सबको प्रेम रंग में सराबोर कर रहे हैं. भोजपुरी भाषा के मशहूर कवि रहे हैं महेंद्र मिश्र (1865-1946) जिन्हें साधारण तौर पर महेंदर मिसिर के नाम से पहचाना जाता है. उन्होंने अपनी कई लोक रचनाओं में फाग के रंग को खास तौर पर बिखेरा है, और भोजपुरी की स्वर कोकिला कही जाने वाली शारदा सिन्हा ने उनके लिखे कई गीतों को गाकर अमर कर दिया है.
गोरकी पतरकी रे, मारे गुलेलवा जियरा उड़े,
बातिया बनावे, नैन मिलावे,
अंखिया लड़ावे, मारे गुलेलवा जियरा उड़े
एक सबसे फेमस फाग गीत की बानगी भी देखिए. इसमें शिव-पार्वती के फाग खेलने का खास तौर पर वर्णन है. इसमें कहा जा रहा है कि शिव अपनी पत्नी गौरी यानी पार्वती को संग में लेकर फाग खेलने निकले हैं. किसीकी लाल चुनरी भीग रही है, किसी की पगड़ी रंग से तर बतर हुई जा रही है. ये मूल रूप में किसका लिखा हुआ फाग है, इसकी जानकारी नहीं है, लेकिन इसकी शैली इसे महेंदर मिसिर के लेखन के करीब ले जाती है.
गौरी संग लिए शिवशंकर खेलें फाग
केकर भीगे हो लाली चुनरिया?
केकर भीगे हो लाली चुनरिया?
केकरा भीगे ल सिर पाग?
केकरा भीगे ल सिर पाग?
गौरी संग लिए शिवशंकर खेलें फाग
भोजपुरी अंचल में फाग गायन की परंपरा प्राचीन काल से जारी है. इसकी जड़ें वैदिक काल के सामगान से लेकर कृष्ण भक्ति धारा तक फैली हुई हैं. होली का मौका ऐसा होता है, जब गांवों में चौपालों, मंदिरों और घर-आंगनों में भी फाग गीत गाने की परंपरा जीवंत हो उठती है. ढोलक, मंजीरा, झांझ, करताल और नाल की संगत में जब फाग गीत गाए जाते हैं, तो सारा वातावरण रसीला और रंगीन हो जाता है. वैसे तो विदाई का क्षण सबसे करुण समय होता है, लेकिन फाग की मस्ती में वो करुणा भी हंसने-हंसाने की वजह बन जाती है. मिथिला वासी आज भी सीता को बेटी मानते हैं. एक फाग गीत में सीता की विदाई की तैयारी हो रही है तो उसका रंग भी फाग में घुल-मिल गया है.
अरे, गोरिया करी के सिंगार
अंगना में पीसे लीं हरदिया
होए, गोरिया करी के सिंगार
अंगना में पीसे लीं हरदिया
ओ अंगना में पीसे लीं हरदिया
ओ अंगना में पीसे लीं हरदिया
गोरिया करी के सिंगार
अंगना में पीसे लीं हरदिया
अरे, जनकपुर के हवे सिल सिलबटिया
जनकपुर के हवे सिल सिलबटिया
अरे, अवध के हरदी पुरान
अवध के हरदी पुरान
बिहार के फाग में रचा है राधा-कृष्ण का प्रेम
राधा और कृष्ण भले ही ब्रज परंपरा की पहचान हैं, लेकिन बिहार के फाग में उनका प्रेम खूब रचा-बसा है. कई फाग गीतों का आधार राधा-कृष्ण का प्रेम प्रसंग ही है, जिसमें श्रीकृष्ण की रासलीला, होली खेलना, ग्वालों के साथ हास-परिहास जैसे विषय फाग गीतों में शामिल हुए हैं. भोजपुरी में इन फाग गीतों की गायन शैली में जो लय होती है, उन्हें चारताल और खासतौर पर दादरा में पेश किया जाता है.
दादरा ताल में गायन होने से फाग लय के साथ बंधकर स्वर से आजाद हो जाता है और चारताल में बंधे होने से इसमें स्पीड आती है. फाग की समूह गायन परंपरा में एक बार गाना और फिर समूह का उसे रिपीट करना बहुत सुहाता है. यह समूह गान लोक संगीत के जरिए सामाजिकता को बांधता है.
दादरा ताल में बंधा होता है फाग गायन
यहां ये बताना भी जरूरी हो जाता है कि दादरा ताल तबले और ढोलक पर समान रूप से बजाई जा सकने वाली ताल है. इसमें छह बीट होती हैं और इसके बोलों को आसानी से स्पीड बढ़ाते हुए गीत के साथ भी गाया जा सकता है, बल्कि कई गीतों में बड़ी स्वतंत्रता के साथ गाया भी गया है.
xधा धी ना | 0 ता ती ना |
इस ताल की बोल में पहली बीट पर ताली और चौथी बीट पर खाली होती है, यहां से गीत या तो सम पर उठाया जाता है, या फिर खाली पर अंतरा की बोल को खत्म करते हुए फिर से सम पर आ जाते हैं. गाना इस तरह इन छह बीट्स पर फिट होता है कि ताल देने वाला इन्हीं बोलों को लूप पर बजाता रहता है और फाग गाने वाले इसी आधार पर गाते रहते हैं.
भिखारी ठाकुर के फाग भी हैं प्रसिद्ध
खैर, दोबारा फाग के सौंदर्य पर लौटते हैं. भोजपुरी में भिखारी ठाकुर का नाम स्वर्ण अक्षरों से लिखा हुआ है और उनकी रचनाओं में फाग को जरूरी जगह मिली है. भिखारी ठाकुर भोजपुरी के ‘शेक्सपियर’ कहे जाते हैं. उन्होंने अपने फाग गीतों में सामाजिक संदेशों को प्रमुखता दी है तो इसके अलावा उनके गीतों में स्त्री-विमर्श, प्रवासी मजदूरों की पीड़ा, पारिवारिक अलगाव का दर्द भी देखने को मिलता है, लेकिन सबसे अधिक तवज्जो उन्होंने दी है, राधा-कृष्ण के प्रेम को...
उनके एक प्रसिद्ध फाग गीत की बानगी देखिए.
कि हरे रामा...
हरियर रसिया खेले होली,
रंग बरसे गगनवा से,
राधा संग कान्हा झूमे,
साजे गुलाल गुलनवा से.
बजावत बंसी मधुर सुर,
ग्वालन संग फाग खेलें,
रंग-गुलाल उड़त अंबर,
संग सखी मनवा झूमें.
इसी तरह 19वीं सदी के उत्तरार्ध और 20वीं सदी के शुरुआती दौर में एक कवि हुए रंगपाल. खुद भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उन्हें जनरंग का कवि कहा था. कवि रंगपाल का जन्म तो यूपी में आज के खलीलाबाद में हुआ था, लेकिन उनकी रचनाओं में ब्रज भाषा और अवध की रंगीनियत दिखाई देती है. उनकी फाकामस्ती में रंगे फाग गीतों का असर इतना गाढ़ा है कि ठेठ बिहार में भी उनके ब्रज रज के गीतों को खूब गाया जाता है. उन्होंने ब्रजभाषा में लगभग 700 से अधिक फाग गीतों की रचना की. उनके गीतों में श्रृंगार, सौंदर्य, वियोग और मिलन का सुंदर वर्णन मिलता है.
उनके एक फाग गीत की बानगी देखिए.
सखि आज अनोखे फाग खेलत लाल लली,
बाजत बाजन विविध राग, गावत सुर जोरी.
रेलत रंग गुलाल-अबीर को झेलत झोरी.
कुमकुम चोट चलाय परस्पर,
अति बिहंसहिं युत अनुराग, बरसहिं सुमन कली.
तिहि छल छलिया छैल बरसि रंग करि रस बोरी.
प्यारी की मुख चूमि मली रोरी बरजोरी.
तबलौं आतुर छमकि छबीली, छी
नी केसरिया पाग लीनी पकर अली.
सखि आज अनोखे फाग खेलत लाल लली,
कुल मिलाकर होली के जो पांच खास घटक हैं, भंग, चंग, रंग, अंग और तरंग ये पांचों ही फाग के असली रंग है. पूर्वांचल के कई क्षेत्रों में लोग होली के दिन धूल-मिटटी से भी होली खेलते हैं. इसे धुड़खेल कहा जाता है. इसके बाद रंगो वाली होली की बारी आती है और फिर नहाने के बाद अबीर और गुलाल का दौर चलता है. इस दौरान घर-घर जाकर फगुआ गाने की भी परंपरा है, जो आज सिमटने लगी है, लेकिन दूसरे रूप में जिंदा है. अब गांव में भी लोग फाग गा नहीं रहे हैं, बल्कि डीजे पर बजा रहे हैं. इसमें भी विडंबना ये है कि एक-दो फगुआ गीत के बाद फिल्मी गाने लूप में आ जाते हैं.