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ढोला-मारू की प्रेम कहानी, जिससे निकला 'केसरिया बालम' गीत और बन गया राजस्थान की पहचान

जैसे हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल हैं और शीरीं-फरहाद मशहूर हैं, वैसे ही रेतीली जमीन में प्यार के फूल खिलाए थे, ढोला और मारू ने. आज भी राजस्थान में नए दूल्हा-दूल्हन के जोड़े को ढोला-मारू की जोड़ी कह देते हैं. ढोला शब्द तो पति और प्रेमी का पर्यायवाची बन गया है. जानिए 'केसरिया बालम' गीत की कहानी

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राजस्थान में साज-सज्जा की लोक परंपरा में भी बिखरे हैं ढोला-मारू के प्रेम गाथा के रंग
राजस्थान में साज-सज्जा की लोक परंपरा में भी बिखरे हैं ढोला-मारू के प्रेम गाथा के रंग

युद्ध, जो केवल मैदानों में नहीं लड़े गए, बल्कि इससे भी बड़े युद्ध हुए घर की उस दहलीज के भीतर, जहां से योद्धाओं को विदा किया गया और फिर किवाड़ बंद कर वीरनियों ने आंसुओं को गालों तक ढुलक आने से खूब रोका. अश्कों की पलकों से हुई इस लड़ाई पर कोई बहुत कालजयी कहानियां नहीं लिखी गईं, लेकिन धरती धोरां री और रंगीले राजस्थान की मरुभूमि में जो नमी का अहसास कराते हैं विरहणियों के गीत. 

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गीत, जो राजस्थान की पहचान है
जहां, पति या प्रेमी युद्ध में गए हुए हैं और महीनों-वर्षों से वापस नहीं लौटे हैं और उनकी याद में प्रेमिकाएं और पत्नियां विरह में व्याकुल हैं. इसी तरह कुछ गीत ऐसे भी हैं, जहां प्रेमी और प्रेमिका किसी वजह से बिछड़ गए और मिल नहीं सके. बिछड़न के इसी अहसास से कुछ ऐसे शब्द निकले और सुरों में ऐसे बिंध गए कि अब राजस्थान की पहचान बन गए हैं. बिना राजस्थान बोले, राजस्थान को समझाना हो तो 'केसरिया बालम' गीत की एक ही पंक्ति काफी है.

राजस्थान की पहचान बनने वाला ये खूबसूरत गीत आया कहां से? क्या है इसकी कहानी?

ढोला-मारू की प्रेम कहानी
इस गीत में एक खूबसूरत सी प्रेम कहानी है और ये गीत खुद भी एक पुरानी प्रेम कहानी का हिस्सा है. रानी लक्ष्मीकुमारी चुण्डावत की प्रसिद्ध किताब 'राजस्थान के प्रेम कथाएं' में इस गीत का ब्यौरा दर्ज है, और ये गीत जिस गाथा का हिस्सा है, वह है 'ढोला-मारू की प्रेम कहानी'

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जैसे हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल हैं और शीरीं-फरहाद मशहूर हैं, वैसे ही रेतीली जमीन में प्यार के फूल खिलाए थे, ढोला और मारू ने. आज भी राजस्थान में नए दूल्हा-दूल्हन के जोड़े को ढोला-मारू की जोड़ी कह देते हैं. ढोला शब्द तो पति और प्रेमी का पर्यायवाची बन गया है.

सिंगर बी प्राक का ही एक गाना देखिए, जो उन्होंने शेरशाह फिल्म के लिए गाया था....

चुप माही चुप है रांझा
बोले कैसे वे ना जा
बोले कैसे वे ना जा
आजा आजा

वे मेरा ढोला नी आया ढोला
वे मेरा ढोला नी आया ढोला
रब भी खेल है खेले,
रोज लगावे मेले 

इस गीत में ढोला शब्द प्रेमी के पर्याय में ही इस्तेमाल हुआ है. खैर, लौटते हैं ढोला-मारू की प्रेम कहानी पर. राजस्थान की लोककथा में शुमार ढोला-मारू की प्रेम कहानी तकरीबन आठवीं सदी की बताई जाती है. कहानी कुछ ऐसी है कि, नरवर के राजा नल का एक बेटा हुआ, नाम था ढोला. वैसे उसका नाम शाल्वकुमार था, लेकिन बचपन में गोल-मटोल से किलकारी मारकर हंसते राजकुमार को मां ने नाम दिया ढोला.   

केसरिया बालम

कौन ढोला- कौन मारू
ढोला की शादी बालपन में ही बीकानेर के पूंगल राज्य की राजा पिंगल की बेटी मारुवणी से हुई थी. तब ढोला सिर्फ तीन साल का था और मारू महज डेढ़ साल की. अब शादी हो गई, लड़के वाले अपने राज्य लौट आए और मारू को बचपने के कारण ही पीहर में रोक लिया गया और तय हुआ कि समझदार होने पर उसकी धूम-धाम से विदाई कर दी जाएगी. इस बात को दिन-महीने साल और बरस बीतने लगे. इसी बीच पिंगल में अकाल आया और पता चला कि पूरा राज्य ही तितर-बितर हो गया.

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ढोला की हो गई दूसरी शादी
रह-रहकर इस बात के भी कई साल गुजर गए. ढोला जवान हुआ तो उसकी दूसरी शादी कर दी गई. बचपन में हुई शादी के बारे में ढोला भी लगभग भूल चुका था, लेकिन उसकी पत्नी को कहीं से ढोला की शादी के बारे में पता चल गया और ये भी पता चला कि पिंगल राजा, अकाल के कारण किसी और जगह चला गया था, उसका परिवार अभी जिंदा है और मारू तो ऐसी खूबसूरत है कि उसके जैसी कोई सात देशों तक नहीं है.

संदेश लाने वालों को जान से मार देती थी ढोला की पत्नी
उधर, मारू के घरवालों ने राजा नरवर के पास विदा करा लाने के लिए कई संदेश भेजे, लेकिन सौतिया जलन के कारण ढोला की पत्नी हर बार संदेशवाहकों को नरवर की सीमा पर ही मरवा देती थी और उसने एक भी संदेश राजा तक या ढोला तक नहीं पहुंचने दिया. एक दिन मारू ने सपने में देखा कि कोई उसे पुकार रहा है, लेकिन वो उसका चेहरा न देख पाती थी. प्रेम भरी इस पुकार से विकल हुई मारू ने अपने पिता पिंगल से फिर से ढोला तक संदेशा भेजने की विनती की. 

राजा पिंगल ने संदेश भिजवाने के लिए बनाई योजना
इस बार राजा पिंगल ने सोचा सन्देशा ले जाने वाला कोई ऐसा हो, जो संदेशा दे भी आए और लगे भी नहीं कि वो कोई संदेश दे रहा है. तब राजा ने इस काम के लिए एक चतुर ढोली को चुना और उसके साथ एक नर्तकी भी गई. ढोली, ढोल की थाप पर विरही गीत सुनाता हुआ आगे बढ़ा और नर्तकी ने खूबसूरत नृत्यों से उन गीतों को साकार किया. इस तरह दोनों सात महीने की लंबे सफर के बाद नरवर पहुंचे. 

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इस बार कोई दूत तो आया न था, आया था तो ढोली और साथ में थी नाचने वाली, तो ढोला की पत्नी के जो सैनिक थे, उन्होंने इन दोनों को नहीं रोका और उल्टे उनका गीत सुनने में मगन हो गए. इस तरह ढोली और नर्तकी राजा की हवेली के पास पहुंच गए. 

जब ढोली नरवर के लिए रवाना हो रहा था तब मारुवणी ने उसे अपने पास बुलाकर मारू राग में दोहे बनाकर दिए और समझाया कि कैसे ढोला के सामने जाकर गाते हुए उसे सुनाना है. ढोली (गायक) ने मारुवणी को वचन दिया था कि वह जीविता रहा तो ढोला को जरूर लेकर आएगा और नहीं ला पाया तो समझना मर गया. 

ढोला मारू

चतुर ढोली ने कैसे सुनाया संदेश?
चतुर ढोली याचक बनकर किसी तरह नरवर में ढोला के महल तक पहुंच गया और फिर रात होते ही उसने ऊंची आवाज में गाना शुरू किया. उस रात बादल छा रहे थे,अंधेरी रात में बिजली चमक रही थी और वर्षा की फुहारों के शांत वातावरण में ढोली ने मल्हार राग में गाना शुरू किया ऐसे सुहाने मौसम में ढोली की मल्हार राग का मधुर संगीत ढोला के कानों में गूंजने लगा और ढोला बड़े मन से ढोली के गाने सुनने लगा. तब ढोली ने साफ शब्दों में गाया -

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"ढोला नरवर सेरियां, धण पूंगल गलियांह"

गीत में पूंगल सुनते ही ढोला का सिर चकराने लगा. उसे ये नाम कुछ सुना हुआ और जाना-जाना सा लगा. उसका दिल तड़पने लगा. उसने ढोली को आवाज देकर कहा- और गाओ... तब ढोली और नर्तकी ने ऊंची टेर लगाकर गाया.

केसरिया बालमा... आवो नी, पधारो म्हारे देस

मारू थारे देस में निपजे तीन रतन-
एक ढोला, दूजी मारुवन, तीजो कसूमल रंग

केसर सू पग ला धोवती, घरे पधारो जी..
हे केसर सू पग ला धोवती, घरे पधारो जी..

और बड़ाई क्या करूं पल-पल वारू जीव
पधारो म्हारे देस, आओ म्हारे देस नि
केसरिया बालम आओ सा पधारो म्हारे देस

ये सुनते ही ढोला को अपनी मारू, अपनी ससुराल पिंगल और अपना प्रेम सब याद आ गया. वह तुरंत तेज दौड़ने वाले काले ऊंट पर सवार हो, पिंगल पहुंचा और मारू को विदा करा लाया. हालांकि उनका मिलन अभी भी आसान नहीं था. नरवर से पिंगल तक के रास्ते में ढोला को कई संघर्षों से गुजरना पड़ा, जिसका विस्तार से वर्णन ढोला-मारू की लोककथा में होता है, बल्कि ये पूरी लोकगाथा इसी तरह की गीत शैली में ही हैं, जिसमें ढोला-मारू के हर संघर्ष को शब्द दिए गए हैं. 

इसकी एक बानगी देखिए, कि पिंगल से आया ढोली कैसे अपनी राजकुमारी मारू की खूबसूरती का बखान कर रहा है. 
आखडिया डंबर भई,नयण गमाया रोय,
क्यूं साजण परदेस में, रह्या बिंडाणा होय.

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ढोली कह रहा है, रो-रो कर आंखें लाल हो गईं हैं और यही हाल रहा तो कुछ दिनों में फूट भी जाएंगी. ऐसा सिर्फ इसलिए है, क्योंकि मारू का साजन परदेस में जाकर पराया हो गया है.

जे थूं साहिबा न आवियो, सांवण पहली तीज.
बीजल तणे झबूकडै, मूंध मरेसी खीज.

ढोली कहता है, हे शाल्वकुमार ढोला, सुन लीजिए... अगर आप सावन की तीज के पहले नहीं गए तो बेचारी मारू अब बस बिजली की चमक देखते ही खीजकर मरने ही वाली है. आपकी मारू के रूप का बखान नहीं हो सकता है. वह तो ऐसी स्त्री है, जो बहुत पुण्य कर्म करने वालों को मिलती है और जिसके सौभाग्य का वर्णन पुरणों में भी बताया गया है. 

अब ढोली गाकर बता रहा है, कि वह कैसी है, इसकी बानगी देखिए.

नमणी, ख़मणी, बहुगुणी, सुकोमली सुकच्छ,
गोरी गंगा नीर ज्यूं , मन गरवी तन अच्छ.

बहुत से गुणों वाली, विनम्र, क्षमाशील, सुकोमल, गंगा के पानी जैसी गौरी है, गर्वीली है, और उसका मन और तन श्रेष्ठ है.

गति गयंद, जंघ केल ग्रभ, केहर जिमी कटि लंक,
हीर डसण विप्रभ अधर, मरवण भ्रकुटी मयंक.

उसकी हथिनी जैसी चाल है, हीरों जैसे दांत हैं, मूंगे के जैसे सुंदर होंठ हैं. आपकी मारुवणी की सिंहों जैसी कमर है चंद्रमा जैसी भौंहें हैं.

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आदीता हूं ऊजलो , मारूणी मुख ब्रण,
झीणां कपड़ा पैरणां, ज्यों झांकीई सोब्रण.

मारवणी का मुंह सूर्य से भी उजला है और मखमली कपड़ों में से शरीर यों चमकता है जैसे  स्वर्ण झांक रहा हो.

रेगिस्तानी की धरती के इस खूबसूरत गीत को लोककथा से निकालकर एक मुक्त गीत के रूप में पहली बार किसने गाया था, तो इसका जवाब है अल्लाह जिल्लाही बाई. इसकी सबसे पुरानी प्रसिद्ध प्रस्तुति पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित लोकगायिका अल्लाह जिल्लाही बाई ने महाराजा गंगा सिंह जी के दरबार में दी थी.

अल्लाह जिल्लाही बाई

अल्लाह जिल्लाही बाई (1 फरवरी 1902 - 3 नवंबर 1992) का जन्म बीकानेर में एक संगीतकार परिवार में हुआ था और महज 10 वर्ष की आयु में वे महाराजा गंगा सिंह के दरबार में गाने लगी थीं. उन्होंने उस्ताद हुसैन बख्श खान और बाद में अच्छन महाराज से संगीत की शिक्षा ली. वे मांड़, ठुमरी, ख़याल और दादरा में निपुण थीं और उनके सबसे प्रसिद्ध गीतों में केसरिया बालम प्रमुख है.
भारत सरकार ने उन्हें 1982 में कला के क्षेत्र में प्रतिष्ठित पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया. इसके अलावा, उन्हें 1988 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी प्रदान किया गया था.

'धरोहर' आयोजन में स्वागत गान की तरह है केसरिया बालम
झीलों की नगरी उदयपुर में पिछोला झील के तट पर मौजूद है बागोर की हवेली. यह हवेली पश्चिमी क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र की धरोहरों में से एक है और सबसे बड़ी बात है कि ये हवेली राजस्थान के लोक-संगीत की परंपरा को जीवित रखने का काम कर रही है. उदयपुर आने वाले पर्यटकों के लिए ये हवेली संस्कृति के करीब होने का जरिया है. 

'रेगिस्तान की संस्कृति को समझने का प्रवेश द्वार'

हर शाम यहां एक घंटे तक सांस्कृतिक प्रस्तुतियों का आयोजन होता है. जिसकी पहचान 'धरोहर' नाम से है. धरोहर के निर्देशक दीपक दीक्षित बताते हैं कि इस कार्यक्रम का आयोजन बीते 25 सालों से यहां हो रहा है और इसका शुरुआती गान ही 'केसरिया बालम' है. इस गीत की प्रस्तुति देते हुए महज 2 से तीन मिनट में ही ढोला-मारू की कहानी की एक झलक दिखाई देती है.

दरअसल, ये गीत रेगिस्तान की उबली हुई रेत की पहचान है और बिना इसके राजस्थानी संस्कृति की बात ही अधूरी लगती है. हालांकि वह यह भी बताते हैं कि सिर्फ 'केसरिया बालम' ही राजस्थान की पहचान नहीं है, बल्कि राजस्थान में भी हर क्षेत्र की अलग-अलग और बहुत समृद्ध संस्कृति है. फिर भी 'केसरिया बालम' गीत राजस्थानी संस्कृति के द्वार खोलने का जरिया भी है. 

मांड शैली का गीत है 'केसरिया बालम'
आज यह उन लोगों के लिए स्वागत गीत की तरह है, जो राजस्थानी सभ्यता और संस्कृति को जानना-समझना चाहते हैं. यह मांड शैली का गीत है. ऐसा समझ लीजिए कि 'मन की बात' है. इस शैली में नवरसों का समावेश होता है. कई बार विरह इसका प्रमुख रस बन जाता है, लेकिन इसमें शृंगार, वीर, करुण, रौद्र आदी रस भी जरूरत के अनुसार आते रहते हैं. इस शैली की शुरुआत कब से मानी जाए, ये एक सवाल की तरह है, फिर भी आठवीं-नौवीं सदी तक बात पहुंच जाती है. 

वैसे इसकी शुरुआत इतनी पुरानी मानी जानी चाहिए, जितनी पुरानी विवाह परंपरा और पीहर से बेटियों की विदाई. या फिर उतनी पुरानी, जितना पुराना संसार में प्रेम और विरह है, या फिर जब से युद्धों की शुरुआत हुई और योद्धाओं को रणभूमि में जाने के लिए घरों से विदा किया गया.  

केसरिया बालम लोकगीत उन राजपूत योद्धाओं के सम्मान का गीत बन गया है, जो युद्ध से लौटकर अपने घर आते थे. यह उनकी वीरता, बलिदान और परंपराओं का यह गीत गौरवगान करता है, लेकिन असल में केसरिया बालम की प्रेरणा ढोला-मारू की प्रेमगाथा है, जहां मारू का बिछड़ा प्रेमी घर लौटकर आता है और फिर उसे मिलता है. हालांकि विरह के मामले में मारू और तमाम उन स्त्रियों की दशा एक सी ही है, जिनके प्रेमी और पति युद्ध में गए हैं. ढोला-मारू की कथा और केसरिया बालम गीत प्रेम के प्रतीक के ही साथ युद्ध की विभीषिका के अंजाम भी हैं, जो सदियों से अमर हैं और आगे भी रहेंगे.

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