फागुन (फाल्गुन) का महीना लगते ही चारों ओर मद और मस्ती छा गई है. मौसम में हल्की-फुल्की तपिश है और इसी बीच थोड़ी बहुत सरसराती सी सर्द हवा की भी मौजूदगी है. वातावरण में गर्म और ठंडे का ये संयोग मन को भी ऐसी ही दुविधा में डाले दे रहा है. कहीं प्रेम है तो वह तड़प उठता है और तड़प है तो वह और भी बढ़ जाती है. जहां इस मौसम में प्रेम की तलाश भी खुद प्रकृति की इच्छा है तो जिसकी प्रीत पहले से ही भगवान से हो रखी है तो वह क्यों न इस रंग में रंगे.
वैष्णव मंदिरों से निकलती है होली की परंपरा
वैष्णव संप्रदाय के पुष्टिमार्गी संतों के केंद्र बिंदु कहे जाने वाले तमाम मंदिरों में आजकल इस प्रेम के जीवंत दर्शन किए जा सकते हैं. ये मंदिर होलिका दहन और धुलैंडी की तय तारीख के एक महीने पहले से अबीर-गुलाल के रंग में रंगे हुए हैं. इस रंगत को और बढ़ा रहे हैं राजस्थानी लोक गीतों की शैली, रसिया, जो खास तौर पर होली के मौकों पर गाए जाते हैं और इनकी चुहल में भी राधा-कृष्ण का प्रेम शामिल रहता है.
भगवान के साथ सखा भाव में होली
भक्त यहां अपने ईष्ट के साथ सखा भाव रखते हैं और इस सखा भाव में कभी तो उनसे ठिठोली करते हैं, कभी उनका मजाक उड़ाते हैं, कभी उलाहना देते हैं, डांटते-डपटते भी हैं, माफी भी मांगते हैं और अगले ही पल उन्हें राजा भी घोषित कर देते हैं. कृष्ण भक्ति शाखा से जुड़े इन मंदिरों को और इनकी परंपरा को आप सिर्फ मथुरा-वृंदावन तक सीमित मत समझिए. ब्रज क्षेत्र का दायरा बहुत बड़ा है, जिसमें उत्तर प्रदेश के अलावा, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान भी शामिल है.
पुष्टिमार्गी मंदिरों में गाए जाने वाले रसिया गीत
राजस्थान के कई जिलों में वैष्णव संप्रदाय की पुष्टिमार्गी शाखा वाले मंदिर स्थापित हैं. इन मंदिरों में श्रीकृष्ण के बालरूप स्थापित हैं और उन्हें ही यहां राजा की तरह भी पूजा जाता है. ये मंदिर हर जगह मध्यकालीन हवेशी शैली में बने हैं और इसीलिए यहां भगवान के दर्शन के लिए झरोखा दर्शन, गद्दी दर्शन, पीठम दर्शन जैसी शब्दावलियां बहुत प्रसिद्ध हैं, लेकिन इन मंदिरों में जो बात सबसे अधिक आकर्षित करती है, वो है यहां होने वाले रसिया आयोजन.
चंग-मृदंग के साथ संगत करते गीत गाते हैं हुरियारे और रसिया
बड़ी-बड़ी डफलियों के साथ चंग और मृदंग की संगत कराते हुए भक्तों और श्रद्धालुओं की भीड़ मंदिर प्रांगड़ में जुटी हुई और 'रसिया' जमा हुआ है. वह ताल के साथ सुर मिलाते हुए जनसमूह के उत्साह और जोश को बढ़ाता जा रहा है और बीच-बीच में सांवलिया सरकार (श्रीकृष्ण) की जय का नाद भी गीतों का हिस्सा बन रहा है.
रास से हुई है रसिया की उत्पत्ति
रसिया शब्द की उत्तपत्ति ही रास से हुई है और अपनी उत्पत्ति के कारण ही यह श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र से जाकर जुड़ जाता है. इसीलिए रसिया गीतों में श्रीकृष्ण नायक हैं और राधा रानी इसकी नायिका हैं. राधा की अन्य सखियां, इन गीतों में साथी कलाकारों की तरह अलग-अलग प्रसंगों के वर्णन में आती हैं और रसिया जमता जाता है. होली के मौके पर इन गीतों में होली का रंगीन जिक्र खास तौर पर शामिल होता है और राधा-कृष्ण के बीच होली खेलने के प्रसंगों का शृंगारिक वर्णन बहुत लुभाता है.
कांकरोली (राजसमंद) के द्वारिकेश मंदिर में रसिया आयोजन
राजस्थान के कांकरोली (राजसमंद) में एक मंदिर है, द्वारिकेश नाथ मंदिर. ये मंदिर श्रीकृष्ण के गिरधारी स्वरूप को राजा की तरह पूजता है और मंदिर प्रांगण में इन दिनों रसिया का आयोजन बड़े पैमाने पर हो रहा है. मंदिर में पूजा व प्रबंधन से जुड़े ओम व्यास बताते हैं कि ये मंदिर, यहां लाल पत्थर से बनी भगवान की भाव प्रतिमा की बड़ी मान्यता है और यहां उन्हें रक्षक मानकर भू पूजा जाता है. यह मंदिर वैष्णव और वल्लभाचार्य संप्रदायों के अंतर्गत आता है. फाग उत्सव के दौरान यहां 'राल दर्शन' सबसे प्राचीन परंपरा है.
क्या है राल दर्शन की परंपरा?
इस दौरान बड़े-बड़े बांसों पर कपड़ा बांधा जाता है. उन कपड़ों को तेल में भिगोया जाता है. फिर एक खुले मैदान के बीच इसमें अग्नि प्रज्वलित की जाती है, फिर मंदिर के ही गोस्वामी परिवार की ओर से उस अग्नि में राल और सिंघाड़े का आटा डाला जाता है. इसमें अग्नि प्रज्जवलित होती है और उससे जबरदस्त लपटें उठती हैं. इसके दर्शन के लिए बड़ी संख्या में राजस्थान और अन्य इलाकों से लोग पहुंच रहे हैं. माना जाता है कि ऋतु परिवर्तन के कारण हो रहे बदलाव और पनपने वाली बीमारियों को इसके जरिए रोकथाम की जाती है.
वसंत पंचमी से शुरू हो जाता है भगवान का गुलाल शृंगार
वसंत पंचमी के दिन से ही भगवान को अबीर-गुलाल का शृंगार चढ़ने लगता है और राल दर्शन के दौरान बड़ी ही स्वर में प्रभु कीर्तन गाए जाते हैं, जिनमें होली का वर्णन होता है. पुष्टिमार्गीय वल्लभ संप्रदाय के अष्टछाप कवियों में से एक भक्त कवि संत नंददास (15वीं-16वीं शताब्दी) का ये एक पद देखिए, जिसे राग हमीर में गाया जाता है.
डोल झुलत हैं गिरिधरन झुलावत बाला ॥
निरख निरख फूलत ललितादिक श्रीराधावर नंदलाला ॥
चोवा चंदन छिरकत भामिनि उडत अबीर गुलाला ॥
कमल नयन कों पान खवावत पहरावत उरमाला ॥॥
वाजत ताल मृदंग अधोटी कूजत वेणु रसाला ॥
नंददास युवती मिल गावत रिझवत श्रीगोपाला ॥ ॥
इस गीत को यहां सुनिए
इसी तरह फाग उत्सव के लिए लिखा गया उनका ये पद भी बहुत प्रसिद्ध है.
आजु हरि खेलत फागु बनी.
इत गोरी रोरी भरि भोरी, उत गोकुल को धनी॥
चोवा कों ढोवा भरि राख्यो केसर-कीच घनी.
अबिर गुलाल उड़ावत गावत, सारी जात सनी॥
हाथन लसत कनक पिचकारी, ग्वालन छूट छनी.
नंददास प्रभु होरी खेलत, मुरि-मुरि जात अनी॥
मंदिर के गर्भगृह में गिरधारी जी को सुनाते हैं पद
इन कीर्तनों को गाने वाले गायक राग-रागिनी और गायन के शास्त्रीय पक्ष के गुणी जानकार होते हैं और मंदिर के गर्भगृह में बैठकर भगवान को घंटों कीर्तन सुनाते हैं. उनके कीर्तनों से मंदिर परिसर गूंजता रहता है. मंदिर के भीतर ये विशुद्ध शास्त्रीय गायन तो होता ही है, लेकिन इसके अलावा आकर्षण का केंद्र बनते हैं लोगों द्वारा गाए जा रहे लोकगीत.
लोकगीत गाने की भी है परंपरा
ये गीत सहज ही श्रद्धालुओं की जुबान पर रचे बसे हैं और इन्हें दोहराव शैली में गाया जाता है. यानी कि मुख्य गीत गाने वाला एक पंक्ति को उठाकर गाना शुरू करता है और अन्य पीछे से उसे दोहराते हैं. यही गीत रसिया कहलाते हैं. इन गीतों में पारिवारिक नातों से जुड़ी हंसी-ठिठोली भी शामिल होती है.
मत मारे दृगन की चोट रसिया होरी में, मेरे लग जायेगी.
मैं तो नारी बडे बडे कुल की, तुम में भरी बडी खोट. रसिया होरी में॥1॥
अबकी बार बचाय गई हूं, कर घूंघट की ओट रसिया होरी में ॥2॥
रसिक गोविन्द वहीं जाय खेलो, जहां तिहारी जोट रसिया होरी में ॥3॥
चन्द्रसखी भज बाल कृष्ण छबि हरि चरनन की ओट रसिया होरी में ॥4॥
शृंगार के भाव के साथ समाज की आवाज हैं रसिया गीत
इन रसिया गीतों में जहां एक तरफ शृंगार के भाव के दर्शन होते हैं, तो वहीं घर-परिवार की मर्यादा और लज्जा-शीलता भी इसका विषय बनती है. रसिया गीतों में कई बार सास-ननद, देवरानी-जेठानी जैसे रिश्तों की उलझनें भी विषय बनकर उभरती हैं. इसकी एक बानगी यहां देखिए.
कान्हा पिचकारी मत मार मेरे घर सास लडेगी रे।
सास लडेगी रे मेरे घर ननद लडेगी रे।
सास डुकरिया मेरी बडी खोटी, गारी दे ने देगी मोहे रोटी,
दोरानी जेठानी मेरी जनम की बेरन, सुबहा करेगी रे।
कान्हा पिचकारी मत मार… ॥1॥
जा जा झूठ पिया सों बोले,
एक की चार चार की सोलह,ननद बडी बदमास,
पिया के कान भरेगी रे। कान्हा पिचकारी मत मार… ॥2॥
कछु न बिगरे श्याम तिहारो, मोको होयगो देस निकारो,
ब्रज की नारी दे दे कर मेरी हँसी करेगी रे। कान्हा पिचकारी मत मार… ॥3॥
इसी तरह एक रसिया गीत तो बहुत प्रसिद्ध है, जिसमें एक गोपी बाला का बाजूबंद होली खेलते हुए खो जाता है. अब वह गोपी बाला घर जाने से डर रही है. डर इसलिए क्योंकि सोने का बाजूबंद खोया है तो भारी नुकसान हो गया है, फिर उस पर तरह-तरह के इल्जाम लग सकते हैं. इसलिए वह गोपी कृष्ण यानी रसिया से ही कह रही है, तुम्हारी वजह से ही बाजूबंद खोया है तो तुम ही बनवाकर दोगे.
मेरो खोए गयो बाज़ुबंध रसिया होरी मे,
ओह होरी मे होरी मे, रसिया होरी मे,
ओह होरी मे होरी मे, रसिया होरी मे,
मेरो खोए गयो बाज़ुबंध रसिया होरी मे.......
बाज़ुबंध मेरे बड़े मोल को,
बाज़ुबंध मेरे बड़े मोल को,
तोपे बनवाओ पूरे तोल को,
सुन नंद के परनंद रसिया होरी मे,
मेरो खोए गयो बाज़ुबंध रसिया होरी मे,
सास लड़ेगी मेरी ननंद लड़ेगी,
खसम के सिर पे मार पड़ेगी,
है जाए सब रस भंग रसिया होरी मे,
मेरो खोए गयो बाज़ुबंध रसिया होरी मे,
उधम तने लाला बहोत मचायो
लाज शरम जाने कहा धर आयो,
मैं तो आए गयी तोसे तंग, रसिया होरी मे,
मेरो खोए गयो बाज़ुबंध रसिया होरी मे......
सामाजिकता की आवाज हैं ये गीत
इन गीतों के रचयिता कवि घासीराम हैं. घासीराम का नाम 'रीति काल'के प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवियों में लिया जाता है. इन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से सम्बंधित कई भक्ति पदों की रचनाएं की हैं. कृष्ण को नायक और राधा को नायिका मानकर, कवि घासीराम ने अपने गीतों की रचना की और इन गीतों में देश, समाज, परिवार, आस-पड़ोस सभी कुछ है. इन गीतों को सिर्फ प्रेम गीतों के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि ये गीत अपने समय में सामाजिकता की आवाज हैं. मंदिर, इन गीतों को गाए जाने की हमेशा सबसे सटीक स्थल रहे हैं.