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International Women's Day: राजा रवि वर्मा से अमृता शेरगिल तक, कैनवास पर आकार लेते रहे हैं महिलाओं के हर एहसास

नारीवाद के लिए चित्रकला एक क्रांतिकारी मीडियम रहा है और इसने रंगों के सहारे पितृसत्तात्मक समाज की जटिल संरचनाओं को चुनौती दी. ऐसा नहीं है कि सिर्फ आधुनिक समाज में ही स्त्री परक विषय को खुलकर जगह मिली है, बल्कि सुविख्यात चित्रकार राजा रवि वर्मा भी जब 150 साल पहले भारतीय चित्रकला की नई पौध तैयार कर रहे थे, तब भी उन्होंने स्त्री रूपकों को सहजता के साथ अपनी रंगत दी है.

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राजा रवि वर्मा की पेंटिंग मोहिनी और रामकिंकर बैज की पेंटिंग सीता, लव-कुश  (Photo: डॉ. रणजीत साहा की पुस्तक से साभार)
राजा रवि वर्मा की पेंटिंग मोहिनी और रामकिंकर बैज की पेंटिंग सीता, लव-कुश (Photo: डॉ. रणजीत साहा की पुस्तक से साभार)

पेंटिंग, यानी चित्रकला सदियों से मानवीय भावनाओं को मूक शब्दों में उजागर करने का सबसे बड़ा माध्यम रही है. बात जब स्त्री संघर्ष को और नारी जीवन के यथार्थ को चित्रित करने की आती है तो चित्रकारों ने सहज ही पारंपरिक धारणाओं को तोड़ते हुए महिलाओं के संघर्ष, भावनाओं और अस्तित्व की खोज को अपनी कूची और कैनवास का विषय बना लिया.

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इस तरह, नारीवाद के लिए चित्रकला एक क्रांतिकारी मीडियम बन गया और इसने रंगों के सहारे पितृसत्तात्मक समाज की जटिल संरचनाओं को चुनौती दी. ऐसा नहीं है कि सिर्फ आधुनिक समाज में ही स्त्री परक विषय को खुलकर जगह मिली है, बल्कि सुविख्यात चित्रकार राजा रवि वर्मा भी जब 150 साल पहले भारतीय चित्रकला की नई पौध तैयार कर रहे थे, तब भी उन्होंने स्त्री रूपकों को सहजता के साथ अपनी रंगत दी है. 

राजा रवि वर्मा, जिन्होंने द्रौपदी के जरिए हर नारी का दर्द उकेरा
वैसे रविवर्मा की पहचान इस तौर पर अधिक होती है कि उन्होंने पौराणिक विषयों वाले देवी-देवताओं और किरदारों को चित्र रूप में उभारा, लेकिन बारीकी से देखा जाए तो यह उनकी सोच को बहुत सीमित नजरिए से देखने का दोष है. असल में राजा रवि वर्मा बड़े ही करीने से उन पौराणिक स्त्री पात्रों में हकीकत की औरतें खोज रहे थे, जिनकी स्थिति कमोबेश उनकी कहानी से कुछ अलग नहीं थी. 

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डॉ. रणजीत साहा अपनी किताब (आधुनिक भारतीय चित्रकला की रचनात्मक अनन्यता) में दर्ज करते हैं कि राजा रवि वर्मा ने पौराणिक चित्रों की अपनी शृंखला में द्रौपदी के पात्र को बहुत तवज्जो दी है. वह विराट पर्व के प्रसंग का जिक्र करते हैं. वासना से भरा कीचक सैरंध्री (द्रौपदी का गुप्त नाम) से जबरन प्रणय (जबरन प्रेमलाप) करना चाहता है. सैरंध्री डरी सी है और पर्दे की आड़ में छिपी होकर उसे मना कर रही है. इस दौरान उसने मारे डर के कीचक की ओर पीठ कर रखी है, चेहरे को हाथों से छिपा लिया है. रवि वर्मा इस एक द्रौपदी में समूची नारी जाति की हालत दिखा रहे हैं. 

उसकी लाल किनारी वाली साड़ी काली है, जिसका काला रंग असल में नारी समाज के भीतर पलता दुख और डर का मिश्रित भाव है. आस पास पुष्प, शंख, थाल और जलपात्र गिरे पड़े हैं. इन्हें क्रमशः धर्म, सत्य, इंसानियत और समाज का प्रतीक माना जा सकता है. राजा रवि वर्मा इस एक चित्र के जरिए कई बातें और कई भाव कह जाते हैं वह भी बिना बोले. 

मोहिनी

मोहिनी के वेश में हर नारी की कहानी

इसी तरह उनका एक प्रसिद्ध चित्र है, झूला झूलती मोहिनी. ऑयल पेंटिंग का बेजोड़ नमूना है यह चित्र. ठोस पत्थरों की चट्टानें, ऊपर हल्के बादलों वाला आकाश, काला घना नदी तट और तट पर पेड़. इसी पेड़ पर लगे झूले में झूल रही है मोहिनी. गोल्डेन किनारी वाली सफेद साड़ी है, पांव झूले की पेंग की दिशा में उठे हुए हैं और मोहिनी ने उन्मुक्त भाव से दोनों हाथों को ऊपर उठाकर रस्सी थाम रखी है. अब आप मोहिनी के चेहरे की ओर बढ़ें. उसके चेहरे पर भाव आते-जाते से लग रहे हैं. क्या वह प्रसन्न है? सुखी है? विचारमग्न है? या सुख स्वप्न है उसके भीतर. यह चित्र उजले वर्तमान और अस्पष्ट भविष्य का भी रूपक है.

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बता दें कि मोहिनी भगवान विष्णु का स्त्री अवतार है, जिसे माया भी कहते हैं, लेकिन राजा रवि वर्मा की 'मोहिनी' में एक अलौकिक कोमलता और चंचलता देखने को मिलती है. मोहिनी, जो एक दिव्य स्वरूप है, फिर भी एक साधारण आनंद के क्षण में लीन होकर झूले पर झूल रही है. हल्की पारदर्शी साड़ी, निश्चिंत देहभाषा और हवा में उड़ते हुए उनके बाल उसे सम्मोहक बना रहे हैं.यह दृश्य न केवल मोहकता की परिभाषा है, बल्कि दूसरे अर्थों में इसका बड़ा ही गूढ़ अर्थ है. यह पेंटिंग बताती है कि हर स्त्री जो आपको रोजाना किसी न किसी रूप में दिखती है, वही इसी मोहिनी की ही तरह है, एक बार वह अपनी निजी स्वतंत्रता और संवेदना को जीए तो ऐसी ही अनुपम और दैवीय नजर आएगी. 

भारत माता

अवनींद्र नाथ ठाकुर ने रची भारत माता

स्त्री को रचने में तो दिग्गज कलाकार रहे अवनींद्र नाथ ठाकुर का तो कोई सानी ही नहीं है. उन्होंने तो वाटर कलर से रंगी अपनी पेंटिंग में जिस 'भारत माता' को उकेरा है, असल में वह देश की हर स्त्री का ही चेहरा-मोहरा है. उसके चार हाथ हैं. एक में फसल, एक हाथ में वेद, एक अन्य में माला और चौथे हाथ में वस्त्र हैं. स्त्री के पहने हुए वस्त्र गेरुआ हैं और उन्होंने इसे वैसे ही धारण कर रखा है जैसे कि आम घरों में महिलाएं (बंगाली महिलाएं) पहनती हैं. मस्तक पर अग्नि जैसी दीपशिखा है, जो ज्ञान की ज्योति है तो वहीं चित्र की पृष्ठभूमि हल्के नील और बैंगनी रंग में है. यह चित्र बताता है कि हर भारतीय नारी असल में भारत माता है. वह खेतों में भी है, मंदिरों में भी है, मिलों-कारखानों में भी है और सौंदर्य में तो है ही. अवनींद्र नाथ ठाकुर की इस कृति ने देश में एकता का भाव भरने और राष्ट्र प्रेम जगाने का काम किया था. 1905 में सामने आई यही कृति भारत माता के दैवीय चित्रों के बनने की प्रेरणा बना.

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जैमिनी राय की मां और शिशु सुनाती है संघर्ष की कहानी

इस सिलसिले में आगे बढ़ते हुए जैमिनी राय के चित्र मां और शिशु पर भी गौर करना चाहिए. मातृत्व की साकार मू्र्ति है यह चित्र, लेकिन इसे संघर्ष और मातृत्व दोनों का ही मिश्रण समझना चाहिए. यह एक संथाली स्त्री है, जिसने अपने शिशु को बांहों में उठा रखा है. चित्र में उसकी देह और चेहरे को बायीं ओर पीछे से दिखाया गया है. बच्चे का गोल सिर दर्शकों की ओर है. इस चित्र की पृष्ठभूमि में नीले, बैंगनी, भूरे, कंजे और सफ़ेद रंग से  पहाड़ियां दिख रही हैं. काली काया, लाल किनारी वाली पीली साड़ी और सफ़ेद रंग से चित्रित उसकी  बांह पर दमकता गिलट का बाजूबन्द अपने संयोजन में अपूर्व प्रकाश व छाया का आभास दे रहा है. शायद यह एक मजदूर मां का चित्र रहा होगा, जो श्रम के बाद अपने आंखों के तारे को दुलार रही है. यह चित्र एक साथ प्रेम, वात्स्ल्य, संघर्ष और जीवन की जीवटता का प्रतीक बन जाता है. 

जैमिनी राय

रामकिंकर बैज की सीता (लव-कुश की माता) पेंटिंग देख भर आती हैं आंखें

शिशु के पालन और मां के संघर्ष का विषय आता है, तो भारतीय पौराणिक चरित्र सीता, जिन्हें मां का दर्जा मिला हुआ है, उनका उदाहरण सबसे बड़ा बन जाता है. गर्भावस्था में सीता का राज्य से निर्वासन और फिर निर्जन वन में दो बच्चों का जन्म, फिर अकेले ही उनका लालन-पालन उस स्त्री के लिए कितना दुखदायी रहा होगा, जो कभी खुद राजकुमारी थी और फिर महारानी भी थी. महान मूर्तिकार रहे रामकिंकर बैज ने जब इस विषय पर कैनवास को रंगना शुरू किया तो उनकी कूची से गेरुआ साड़ी पहने और दो नवजातों को छाती से चिपकाये सीता की तस्वीर बन गई. उनकी इस कृति में सीता को विचार मग्न, चिंताग्रस्त और परेशान देखा जा सकता है. असल में इसे सिर्फ पौराणिक सीता का दुख नहीं समझना चाहिए, बल्कि यह हर स्त्री की चिंता का जीवंत स्वरूप है, जिसे इस तरह की स्थिति का सामना करना पड़ा हो.

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रामकिंकर बैज

अमृता शेरगिलः आजादी और संघर्ष का कैनवास

चित्रकला के जरिए अगर संघर्ष, आजादी और उन्मुक्तता का मिला-जुला रूप देखना हो तो अमृता शेरगिल से बेहतर नाम नहीं मिलेगा. उनकी एक रचना तीन युवतियां इस भाव की प्रतिनिधि पेंटिंग है. रंग-बिरंगी परिधान पहने तीन युवतियां एक साथ बैठीं है, लेकिन तीनों के चेहरे अलग-अलग ओर हैं. देखकर लग रहा है कि स्थिति गंभीर है. तीनों एक ऐसी नियति पर विचार कर रही हैं जिसे वे बदल नहीं सकतीं. 

शेरगिल ने अपनी महिलाओं को उन्मुक्त या कामुक रूप में नहीं दिखाया है, बल्कि उन्हें ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हुए चित्रित किया, जिनमें वे कठिनाइयों से जूझ रही हैं, फिर भी उनकी आत्मा उस नियति से ऊपर उठने का प्रयास करती है, जिसे वे बदलने में असमर्थ हैं. इस बारे में, शेरगिल ने खुद लिखा था, 'मैंने अपने वास्तविक कलात्मक उद्देश्य को पहचाना, तब मैंने भारतीय जीवन, विशेष रूप से उन भारतीयों के जीवन को चित्रात्मक रूप में प्रस्तुत करने की ओर कदम बढ़ाए, जो पंक्ति में सबसे पीछे की ओर हैं. वे मौन हैं और उनकी मौन छवियां हीं मेरे कैनवास पर विषय बनकर उकेरी गईं. ये असीम समर्पण और धैर्य का प्रतीक हैं.

यह चित्र फ्रांसीसी चित्रकार पॉल गॉगिन की कला से प्रभावित है और यह शेरगिल की कलात्मक शैली में एक महत्वपूर्ण बदलाव को दर्शाता है. पेरिस में सीखी गई यथार्थवादी और शैक्षणिक शैली से हटकर, उन्होंने एक समकालीन दृष्टिकोण अपनाया, जिसमें सपाट संरचना, रेखाओं और रंगों का प्रमुखता से प्रयोग किया गया. तीन लड़कियां, पेंटिंग में लड़कियों की परिस्थितियां उनके आसपास के वातावरण से नहीं, बल्कि उनके चेहरे के भावों, शारीरिक भाषा और सूक्ष्म रंग संयोजन के जरिए स्पष्ट होती हैं.

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अमृता शेरगिल

चित्रकला इसी तरह मनोभावों को उकेरने और फिर उन्हें जाहिर करने का जरिया बनी. पेंटिंग अपने प्रारंभिक तौर पर मनोरंजन का विषय नहीं रही है, बल्कि यह हमेशा से कुछ न कह पाने की स्थिति में भी संवाद बरकरार रखने का माध्यम रही है. इसी माध्यम ने कभी समाज को बदला, कभी क्रांतियां कीं, कभी बदलाव के लिए प्रेरित किया तो कभी यादगार बनकर इतिहास गाथा सुनाई. महिलाओं की स्थिति को बदलने, उन्हें जागरूक करने और नया रास्ता दिखाने में चित्रकला ने लंबी भूमिका निभाई है.

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