मुजफ्फरपुर और गोरखपुर में दिमागी बुखार के बाद मची अफरा-तफरी जैसे वाकये सबित करते हैं कि देश के स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचे में आमूल बदलाव लाए बिना आयुष्मान भारत जैसी बड़ी योजनाएं भी कारगर नहीं हो सकतीं. जब अस्पतालों में बेड ही नहीं होगा, तो किसी को आयुष्मान भारत योजना का लाभ भला कैसे मिल पाएगा? लेकिन दुर्भाग्य यह है कि स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचा विकास की गति बहुत धीमी है, इसी वजह से सेहत के मोर्चे पर निजी क्षेत्र की लूट जारी है. दूसरी बार बनी मोदी सरकार की नई वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से उम्मीद है कि बजट में वह इस मोर्चे पर कुछ कारगर कदम उठाएंगी.
स्वास्थ्य क्षेत्र की सेहत बदतर
नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2018 के मुताबिक देश के करीब 23,582 सरकारी अस्पतालों में 7,10,761 बेड हैं. देश में हर करीब 10 हजार लोगों पर सिर्फ एक एलोपैथिक डॉक्टर उपलब्ध है. इसमें से भी महज 10 फीसदी सरकारी अस्पतालों में कार्यरत हैं. इस तरह हर 2000 लोगों पर सरकारी अस्पताल का सिर्फ एक बेड है. सवा सौ करोड़ से ज्यादा की जनसंख्या में यह क्षमता ऊंट के मुंह में जीरा जैसा ही है.
देश में फिलहाल करीब 476 मेडिकल कॉलेज और 562 डेंटल कॉलेज हैं. इनमें करीब 87,000 स्टूडेंट पढ़ाई करते हैं. इसी तरह हर साल 1.30 लाख जनरल नर्स मिडवाइफ नर्सिंग संस्थानों में और 46,795 स्टूडेंट फार्मेसी कॉलेजों में पढ़ाई करते हैं.
देश की करीब 70 करोड़ जनसंख्या ग्रामीण इलाकों में रहती है, लेकिन उनकी स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने के लिए सिर्फ 1.56 लाख स्वास्थ्य उप केंद्र, करीब 26 हजार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 5,624 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं (31st March 2017 तक). इस तरह ग्रामीण इलाकों में डॉक्टरों और अस्पतालों की भारी कमी है.
झोला छाप डॉक्टरों की भरमार
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण इलाकों की 75 फीसदी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे हैं. ग्रामीण क्षेत्रों के हर पांच में से महज एक डॉक्टर मेडिसिन की प्रैक्टिस करने के योग्य है. झोला छाप डॉक्टरों की समस्या को उजागर करते हुए डब्ल्यूएचओ की इस रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा हुआ है. साल 2016 में आई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि गांवों में अपने को एलोपैथिक डॉक्टर बताने वाले लोगों में से 31.4 फीसदी सिर्फ 12वीं तक पढ़े हैं, जबकि 57.3 कथित डॉक्टरों ने कहीं से मेडिकल शिक्षा नहीं ली है.
समस्या बस इतनी नहीं है. सरकारी अस्पतालों में जो साजो-सामान हैं उनका भी इस्तेमाल नहीं हो पा रहा. नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की एक रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ है कि अस्पतालों में क्लिनिकल इक्विपमेंट की 27.31 फीसदी और नॉन-क्लिनिकल इक्विपमेंट की 56.33 फीसदी कमी है, लेकिन यह तथ्य भी चौंकाने वाला है कि कई महत्वपूर्ण मेडिकल इक्विपमेंट का पांच-पांच साल तक इस्तेमाल नहीं हो पाता क्योंकि उनके सालाना रखरखाव का कॉन्ट्रैक्ट नहीं हुआ है.
इस तरह, यह साफ है कि देश के स्वास्थ्य क्षेत्र को अगर सरकार सुधारना चाहती है तो इसके बुनियादी ढांचा विकास के लिए उसी तरह से क्रांति लानी होगी, जैसा कि सड़कों के मामले में मोदी सरकार ने किया है. अंतरिम बजट में केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने हेल्थ सेक्टर का बजट करीब 16 फीसदी बढ़ाकर 61,398 करोड़ रुपये करने की घोषणा की थी, लेकिन इसमें करीब 6,400 करोड़ रुपया आयुष्मान भारत योजना के बारे में है. उम्मीद है कि इस पूर्ण बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण देश के हेल्थकेयर सेक्टर की सेहत को सुधारने के लिए कुछ बड़ा कदम उठाएंगी.
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