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Explainer: कॉरपोरेट के बैंक खोलने के RBI के प्रस्ताव की आलोचना क्यों, क्या हैं जोखिम और फायदे?

भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के एक आंतरिक कार्यसमूह (IWG) ने यह प्रस्ताव दिया है कि बड़े कॉरपोरेट और औद्योगिक घरानों को भी बैंक खोलने या बैंकिंग कारोबार करने की इजाजत दी जाए. लेकिन राजनीतिक दलों से लेकर रघुराम राजन जैसे तमाम एक्सपर्ट और S&P ग्लोबल जैसी रेटिंग एजेंसियां भी इसके खतरे के प्रति सचेत कर रही हैं.

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रिजर्व बैंक के एक कार्यसमूह ने की है सिफारिश
रिजर्व बैंक के एक कार्यसमूह ने की है सिफारिश
स्टोरी हाइलाइट्स
  • कॉरपोरेट घरानों को बैंक लाइसेंस देने की बात
  • रिजर्व बैंक की एक समिति ने रखा है प्रस्ताव
  • इस प्रस्ताव की हो रही आलोचना, कई आशंकाएं

भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के एक आंतरिक कार्यसमूह (IWG) ने पिछले हफ्ते अपनी रिपोर्ट में यह प्रस्ताव दिया है कि बड़े कॉरपोरेट और औद्योगिक घरानों को भी बैंक खोलने या बैंकिंग कारोबार करने की इजाजत दी जाए. इसको लेकर कई तरफ से आलोचना शुरू हो गयी है. विपक्षी राजनीतिक दलों से लेकर रघुराम राजन जैसे तमाम एक्सपर्ट और S&P ग्लोबल जैसी रेटिंग एजेंसियां भी इसके खतरे के प्रति सचेत कर रही हैं. आइए जानते हैं कि आखिर क्यों हो रहा इस प्रस्ताव का विरोध और कॉरपोरट के बैंक खोलने से आखिर क्या जोखिम हो सकता है?

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क्या हैं रिजर्व बैंक समिति की प्रमुख सिफारिशें 

सबसे पहले तो यह जानते हैं कि रिजर्व बैंक के कार्यसमूह ने क्या सिफारिश की है. इन सिफारिशों पर रिजर्व बैंक ने 15 जनवरी तक सुझाव मांगे हैं, जिसमें कोई भी व्यक्ति सुझाव दे सकता है. रिजर्व बैंक के पांच सदस्यों वाले कार्यसमूह की प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार हैं: 

  • अच्छे ट्रैक रिकॉर्ड वाले बड़े कॉरपोरेट और औद्योगिक घरानों को भी बैंक खोलने या बैंकिंग कारोबार करने की इजाजत दी जाए.
  • किसी बैंक की स्थापना के 15 साल हो जाने के बाद उसमें प्रमोटर की हिस्सेदारी बढ़ाकर 26 फीसदी तक करने की इजाजत दी जाए. अभी यह सीमा 15 फीसदी तक है. 
  • अच्छी तरह से प्रबंधित और 50 हजार करोड़ से ज्यादा एसेट वाली गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFCs) को बैंक में बदलने की इजाजत दी जाए. इसमें बस यह देखा जाए कि पिछले 10 साल में इन एनबीएफसी का ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा हो.
  • पेमेंट बैंक को छोटे वित्तीय बैंक में आसानी से बदलने के लिए उनके ट्रैक रिकॉर्ड देखने की शर्त को पांच साल से घटाकर तीन साल कर दिया जाए. 
  • नए बैंक खोलने के लिए शुरुआती पूंजी या नेटवर्थ की जरूरत को 500 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 1,000 करोड़ रुपये किया जाए. छोटे वित्तीय बैंकों के लिए नेटवर्थ की जरूरत को 200 करोड़ बढ़ाकर 300 करोड़ रुपये किया जाए.
  • इसी तरह जो सहकारी बैंक छोटे वित्तीय बैंक बनना चाहते हैं, उनके लिए नेटवर्थ की जरूरत सिर्फ 150 करोड़ रुपये हो, लेकिन इसे अगले पांच साल में बढ़ाकर 300 करोड़ रुपये किया जाए. 

क्या कहते हैं आलोचक? 

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पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम, रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने इसकी आलोचना की है. दोनों का कहना है कि आज के हालात में यह निर्णय चौंकाने वाला और बुरा विचार है. राजन और आचार्य ने एक संयुक्त लेख में यह कहा कि इस प्रस्ताव को अभी छोड़ देना बेहतर है. 

लेख में कहा गया है, 'बैंकिंग का इतिहास बेहद त्रासद रहा है. जब बैंक का मालिक कर्जदार ही होगा, तो ऐसे में बैंक अच्छा ऋण कैसे दे पाएगा? जब एक स्वतंत्र व प्रतिबद्ध नियामक के पास दुनिया भर की सूचनाएं होती हैं, तब भी उसके लिये फंसे कर्ज वितरण पर रोक लगाने के लिये हर कहीं नजर रख पाना मुश्किल होता है.' पी. चिदम्बरम ने इसे 'खतरनाक एजेंडा' बताया है. 

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यह भी सवाल उठाया जा रहा है कि ऐसे कोरोना संकट के काल में जब इकोनॉमी की हालत खराब है, तब ही इस तरह का प्रस्ताव क्यों आया है? रेटिंग एजेंसी S&P ग्लोबल रेटिंग्स ने भी कहा है कि कॉरपोरेट को बैंकिंग में आने से कई तरह के जोखिम हो सकते हैं. निजी बैंकों में प्रमोटर्स की हिस्सेदारी बढ़ाने की सिफारिश की भी आलोचना की जा रही है. 

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क्या हैं जोखिम? 

S&P ग्लोबल रेटिंग्स ने कहा कि इससे हितों का टकराव, आर्थिक ताकत के केंद्रीकरण और वित्तीय अस्थिरता जैसे खतरे हो सकते हैं. इसके अलावा इंटर ग्रुप लेंडिंग, फंड का डायवर्जन, कॉरपोरेट डिफाल्ट बढ़ने जैसे खतरे हैं. हाल में हमने येस बैंक, ICICI बैंक, डीएचएफल, पीएमसी जैसे बैंकों के मामले में यह देखा है कि कॉरपोरेट गठजोड़ से किस तरह से घोटालों को अंजाम दिया गया और फंड का डायवर्जन किया गया. 

इससे पूंजी कुछ पारिवारिक घरानों तक सिमट जाने का डर रहता है. बैंकों में जनता का पैसा जमा होता है और कॉरपोरेट घराने कई तरह के बिजनेस में लगे होते हैं जिनमें उन्हें पूंजी की जरूरत पड़ती है. तो इस बात की आशंका है कि ऐसे बैंकों का फंड किसी और बिजनेस में डायवर्ट हो जाए, कॉरपोरेट से जुड़ी दूसरी कंपनियों को लोन दे दिया जाए. यह लोन डिफाल्ट होगा तो बैंक पर खतरा आएगा और जनता का पैसा जोखिम में पड़ जाएगा.

इससे गंभीर वित्तीय संकट भी खड़ा हो सकता है. साल 2008 में आयी अंतरराष्ट्रीय मंदी की प्रमुख वजह निजी अमेरिकी बैंकों का फेल होना ही था. 

इतिहास रहा है दागदार 

साल 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पहले ऐसे कई उदाहरण और घपले सामने आये जिसमें बैंकों से जुड़े बड़े कॉरपोरेट घरानों ने खुद को ही लोन दे दिया और एनपीए में उनका बड़ा हिस्सा था. 

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इस बारे में 1967 में चंद्रशेखर कमिटी की रिपोर्ट दिलचस्प है. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर तब कांग्रेस के सचिव हुआ करते थे. उनकी रिपोर्ट में कहा गया कि 1966 में बैंकों ने कुल 2,432 करोड़ रुपये का लोन दिया जिनमें से 292 करोड़ इन बैंकों के डायरेक्टर और उनकी कंपनियों को ही दे दिया गया. यानी करीब 12 फीसदी कर्ज आपस में बांट लिया गया. 

आज तो यह रकम बहुत ज्यादा हो सकती है. मार्च 2018 तक के आंकड़ों को देखें तो भारतीय बैंकों का फंसा कर्ज करीब 9.62 लाख करोड़ रुपये का था, जिसमें से करीब 73 फीसदी हिस्सा (7.04 लाख करोड़ रुपये) कॉरपोरेट-इंडस्ट्री जगत का ही है. इसलिए अब ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत है. 

इंदिरा गांधी ने किया था राष्ट्रीयकरण 

तो आज भी ऐसे ही खतरे के आसार बने हुए हैं. हालांकि समूह ने कहा है कि इससे बचने के लिए बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट में कुछ सुधार किये जा सकते हैं. गौरतलब है कि इसके पहल भी तमाम बड़े कॉरपोरेट हाउस बैंकिंग में उतरने की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन रिजर्व बैंक ने उनको इजाजत नहीं दी है. 

गौरतलब है कि आजादी के बाद भारत के बैंकिंग सेक्टर में पहले कई निजी खिलाड़ी थे, लेकिन साल 1969 में और फिर 1980 इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जिसे अर्थव्यवस्था के लिहाज से एक बेहतर कदम माना जाता है. 

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क्या हैं समर्थन में तर्क

कॉरपोरेट घरानों को बैंक खोलने के समर्थन में तर्क देने वाले कहते हैं कि अगले वर्षों में अगर देश को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी चाहिए तो ऐसे कदम जरूरी हैं. बढ़ती इकोनॉमी के लिए काफी पूंजी की जरूरत होगी और ​नए निजी बैंक से इसमें मदद मिल सकती है. 

निजी क्षेत्र का पेशेवर प्रबंधन, विशेषज्ञता बैंकिंग सेक्टर को मजबूत कर सकता है. अभी भी यह देखा गया है निजी बैंक ज्यादा सक्षम और मुनाफे में हैं और ग्राहकों को पेशेवर तरीके से सेवाएं दे रहे हैं. रिजर्व बैंक के वर्किंग ग्रुप का यह मानना है कि कॉरपोरेट को बैंकिंग में आने की इजाजत देने से बैंकिंग सेक्टर के लिए पूंजी का अच्छा स्रोत मिल सकता है.

इसके अलावा कॉरपोरेट के आने से बैंकों में मैनेजमेंट विशेषज्ञता, अनुभव, सही दिशा मिल सकती है. समूह ने इस बात पर गौर किया है कि दुनिया के बहुत से देशों में कॉरपोरेट को बैंकिंग सेक्टर में काम करने की इजाजत दी गयी है. रिजर्व बैंक के कार्यसमूह का कहना है कि उसने जितने भी एक्सपर्ट से बात की, उनमें से सिर्फ एक ने इसका विरोध किया है.

 

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