132 अरब डॉलर की राशि बहुत बड़ी रकम होती है. रुपयों में अगर बात करें तो लगभग 11,000,000,000,000. आसान शब्दों में कहें तो 11 लाख करोड़ रुपये. ये वो रकम है जितने का पेट्रोल-डीजल भारत हर साल दूसरे देशों से खरीदता है. 132 अरब डॉलर की चल-अचल संपत्ति जिस किसी व्यक्ति के पास होती है वो दुनिया के टॉप टेन अमीरों की लिस्ट में आ जाता है. अरबपति बिल गेटस, वारेन बफैट की दौलत इसी के आस-पास है.
चीन और अमेरिका के बाद भारत कच्चे तेल का खपत करने वाला दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है. लेकिन भारत अपनी जरूरत का 80 फीसदी तेल दूसरे देशों से मंगाता है. इस 80 प्रतिशत तेल को मंगाने के लिए भारत ने 2024 में 132 अरब डॉलर खर्च किए. भारत की इसी ऑयल शॉपिंग पर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नजर है.
अमेरिका चाहता है कि भारत अपनी जरूरत का ज्यादा से ज्यादा तेल अमेरिका से खरीदें. क्रूड ऑयल में भारत की बाइंग कैपासिटी इतनी जबर्दस्त है कि इंडिया जिस देश को चाहे उसे डॉलर से मालामाल कर सकता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब वाशिंगटन पहुंचे तो तेल के सौदे का मुद्दा राष्ट्रपति ट्रंप ने जोर-शोर और प्रमुखता से उठाया. ट्रंप ने पीएम मोदी के साथ प्रेस वार्ता के दौरान कहा कि हमारे पास किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक तेल और गैस है, उन्हें (भारत को) इसकी आवश्यकता है, और हमारे पास यह है.
वाशिंगटन डीसी में स्थित ट्रंप के दफ्तर ओवल ऑफिस में डोनाल्ड ट्रंप ने पीएम मोदी का स्वागत किया.
अपने प्रशासन की व्यापार नीतियों के बारे में ट्रंप ने कहा, "हम भारत के साथ काम करने जा रहे हैं, हम निकट भविष्य में भारत के साथ बड़े व्यापार समझौते की घोषणा करने जा रहे हैं."
ट्रंप के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए पीएम मोदी ने कहा, "राष्ट्रपति ट्रंप हमेशा अमेरिका के राष्ट्रीय हित को सर्वोच्च मानते हैं और उनकी तरह मैं भी भारत के राष्ट्रीय हित को हर चीज से ऊपर रखता हूं."
इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा, "हमारे पास बात करने के लिए कुछ बहुत बड़ी चीजें हैं; वे (भारत) हमारे बहुत सारे तेल और गैस (अमेरिका से) खरीदने जा रहे हैं. हमारे पास दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक तेल और गैस है और उन्हें (भारत को) इसकी जरूरत है, और हमारे पास यह है."
ट्रंप ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी और मेरे बीच ऊर्जा पर एक समझौता हुआ है, जिससे हम भारत के लिए तेल और गैस के अग्रणी आपूर्तिकर्ता बन जाएगें.
भारत में तेल का इकोनॉमिक्स
भारत, दुनिया के सबसे बड़े तेल उपभोक्ताओं में से एक है. हमारा देश अपनी बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए मुख्य रूप से आयात पर निर्भर है. हमारा देश अपनी कच्चे तेल की कुल जरूरतों का 88 प्रतिशत आयात से पूरा करता है. उथल-पुथल भरी दुनिया, युद्ध, बनते- बिगड़ते पावर ब्लॉक के बीच भारत ऐसी ऑयल पॉलिसी फॉलो करता है जिससे हमें तेल की स्थिर और सस्ती आपूर्ति की गारंटी मिल सके.
2022-23 में भारत ने 232.7 मिलियन मिट्रिक टन कच्चे तेल का आयात किया. इसके लिए भारत ने 157.5 अरब डॉलर का बिल का भुगतान किया.
अगर 2023-24 की बात करें तो कच्चे तेल के आयात का आंकड़ा 232.5 मिलियन मिट्रिक टन था. इस साल भारत को बिल में कुछ राहत मिली. इसकी वजह रूस से सस्ते कच्चे तेल की खरीद और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा में टूट थी. और भारत का ऑयल इंपोर्ट बिल 132.4 अरब डॉलर रहा.
अब जानते हैं कि साल 2024 में भारत ने किस देश से कितना कच्चा तेल मंगाया? इस ग्राफ से ये तस्वीर स्पष्ट होती है.
टॉप सप्लायर | भारत को तेल निर्यात करने वाले देश | मूल्य |
1 | रूस | 45.4 बिलियन डॉलर |
2 | इराक | 28.5 बिलियन डॉलर |
3 | सऊदी अरब | 23.5 बिलियन डॉलर |
4 | UAE | 8.6 बिलियन डॉलर |
5 | अमेरिका | 6.9 बिलियन डॉलर |
6 | कुवैत | 5.2 बिलियन डॉलर |
यानी कि इस वक्त भारत का भरोसेमंद पार्टनर रूस हमारा सबसे बड़ा कच्चे तेल का सप्लायर है. भारत ने फरवरी 2022 से रूस से कच्चा तेल मंगाना शुरू किया. ये वो समय था जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया था.
अगर अमेरिका की बात करें तो भारत यूएस से मात्र 6.9 बिलियन डॉलर का तेल मंगाता है. ये आंकड़ा 2024 का है. राष्ट्रपति ट्रंप की नजर भारत के इसी कच्चे तेल के मार्केट पर है. ट्रंप चाहते हैं कि भारत अमेरिका से ज्यादा से ज्यादा मात्रा में कच्चा तेल खरीदे.
हालांकि ट्रंप इसके लिए कितनी लचीली नीतियां अपनाते हैं इस पर उन्होंने कुछ नहीं कहा है. क्योंकि इस समय भारत का सबसे बड़ा तेल सप्लायर रूस भारत को काफी कम कीमतों पर कच्चा तेल देता है. ट्रंप भारत पर रेसिप्रोकल टैरिफ लगाने की बात करते हैं. फिर वे भारत के साथ डील पर कैसे आगे बढ़ेंगे ये चिंताजनक सवाल है.
सवाल है कि ट्रंप ऐसी किसी तरह की छूट भारत को देंगे?
तेल की कोई राष्ट्रीयता नहीं होती है
अमेरिका से तेल खरीदने के ऑफर पर जाने-माने एनर्जी एक्सपर्ट नरेंद्र तनेजा ने इस मुद्दे को विस्तार से समझाया. आजतक डॉट इन से बात करते हुए उन्होंने कहा कि तेल की कोई राष्ट्रीयता नहीं होती है. इसका कारोबार राजनीति पर नहीं वरन विशुद्ध अर्थशास्त्र पर निर्भर करता है. उन्होंने कहा कि तेल की खरीद तीन चीजों पर निर्भर करती है.
1-तेल की कीमत. यानी कि कोई देश तेल किस कीमत पर बेच रहा है.
2-तेल की डिलीवरी. इसका अर्थ यह है कि अगर आप किसी देश से तेल खरीदते हैं तो आपके जहाज को स्वयं उस देश का तेल डिपो जाकर तेल लाना पड़ता है अथवा विक्रेता देश स्वयं आपको आपके पोर्ट पर तेल की डिलीवरी देता है. रूस की ओर इशारा करते हुए एनर्जी एक्सपर्ट नरेंद्र तनेजा ने कहा कि रूस एक ऐसा देश है जो न सिर्फ भारत को सस्ता तेल देता है बल्कि रूस के जहाज भारत के पोर्ट तक तेल की डिलीवरी देते हैं.
3-जहाज का इश्योरेंस. कच्चे तेल की डिलीवरी के दौरान हर देश जहाज का बीमा करवाते हैं. ताकि किसी भी अनहोनी की स्थिति में क्षतिपूर्ति मिल सके. इसमें काफी रकम खर्च होती है.
नरेंद्र तनेजा ने कहा कि अमेरिका में कच्चे तेल का प्रोडक्शन निजी हाथाों में हैं. अगर वहां की कंपनियां भारत को रूस के मुकाबले आकर्षक कीमत और ऑफर देती है तो जरूर भारत अमेरिका से तेल खरीदेगा.
उन्होंने बताया कि भारत में तेल की खरीद सरकार नहीं बल्कि निजी और सरकारी कंपनियां करती हैं. और उनका फैसला राजनीति से नहीं बल्कि विशुद्ध अर्थशास्त्र से प्रभावित होता है. इसलिए अगर अमेरिका से अच्छा ऑफर मिलेगा तो भारत जरूर अपनी शॉपिंग अमेरिका से करेगा.
अमेरिका से कच्चा तेल खरीदने में भारत के लिए एक दूसरी दिक्कत है रुपये की कमजोरी. भारतीय रुपये की अमेरिकी डॉलर के मुकाबले कमजोरी तेल आयात की लागत बढ़ाती है. अगर भारत अमेरिका से कच्चा तेल खरीदता है और ट्रंप भारत को किसी तरह की रियायत नहीं देते हैं तो उच्च आयात बिल भारत के व्यापार घाटे को बढ़ा सकता है.
तेल आयात में भौगोलिक दूरी और लॉजिस्टिक्स की लागत एक बड़ा कारक है. अमेरिका से तेल लाना लंबी दूरी के कारण महंगा हो सकता है.
बता दें कि भारत के लिए रूस से कच्चा तेल खरीदना ज्यादा मुफीद और फायदे का सौदा है. क्योंकि रूसी कच्चे तेल सस्ता है और भारत को भुगतान लचीलताएं भी हासिल है. वहीं अमेरिका ने रूस पर प्रतिबंध लगा रखे हैं और वो चाहता है कि भारत सीमित मात्रा में ही रूस से तेल खरीदे.
रूस पर लगाए गए अमेरिकी प्रतिबंधों का उद्देश्य और जी7 की तय की गई 60 डॉलर प्रति बैरल की मूल्य सीमा का मकसद रूस को क्रूड बेचकर मिलने वाले प्रॉफिट को सीमित करना है. दरअसल अमेरिकी विदेश नीति का असर उसके व्यापार नीति पर भी पड़ता है.