पारस हेल्थकेयर (Paras Healthcare) के संस्थापक धर्मेंद्र नागर (Dharminder Nagar) को 2011 में कुछ इस अंदाज में धमकी मिली, 'पटना में बहुत बड़ा होस्पीटल बनवा रहे हो, वो भी बिना हमसे परमीसन लिए...जादा होसियार बने तो जान से मार देंगे.’ तब वे बिहार की राजधानी पटना में पारस हॉस्पिटल का निर्माण करवा रहे थे.
इस धमकी का जवाब नागर ने अपने ही अंदाज में दिया, 'मैं साउथ दिल्ली वाला नहीं हूं, बुलंदशहर का रहने वाला हूं. मैं तो अस्पताल बनाऊंगा, तुम्हें जो करना है कर लो.’ जान से मारे जाने की इस धमकी के बीच नागर ने पटना में 350 बेड का बिहार का पहला सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल बनाया. यह आज भी पारस हेल्थकेयर का सबसे अधिक क्षमता वाला अस्पताल है.
इससे पहले किसी बड़े निजी अस्पताल चेन (Hospital Chain) ने बिहार में अस्पताल नहीं खोला था. कानून-व्यवस्था को लेकर भारी अंदेशों के अलावा बड़े अस्पताल वाली चेन को यह भी लगता था कि पटना जैसी जगह पर उनके लिए पर्याप्त मार्केट उपलब्ध नहीं है. फिर भी नागर ने पटना को क्यों चुना?
गुड़गांव में खोला पहला अस्पताल
इसके जवाब में वे कहते हैं, 'मेरा विजन शुरू से ही साफ था: हमें उन इलाकों में जाना है जहां अच्छे अस्पताल हैं ही नहीं या बहुत कम हैं. 2005 में जब मैंने गुड़गांव में पहला अस्पताल खोलने का फैसला किया तो कई लोगों ने मना किया. बोले कि खोलना ही है तो दिल्ली में खोलो. उस वक्त गुड़गांव में 50 बेड का भी कोई अस्पताल नहीं था. सो हमें लग रहा था कि काफी स्कोप है और थोड़े ही समय में बहुत अच्छा रेस्पांस मिला.’
लेकिन बिहार के बारे में फैसला और भी मुश्किल था. नागर के ही शब्दों में, '2011 में इसके बारे में निर्णय लेने से पहले मैं सिर्फ एक बार ही बिहार गया था. जब पटना में हमने शुरू किया तो वहां हमें बेहद प्यार और सम्मान मिला. यही वजह थी कि हमने बिहार के दरभंगा में दूसरा अस्पताल शुरू किया. अब हम गया में एक और अस्पताल बना रहे हैं.'
नागर के मुताबिक, उनकी कोशिश 'इंडिया' नहीं बल्कि महानगरों से परे 'भारत' को यानी छोटे शहरों के लोगों को विश्व स्तरीय स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने की है. 'देखिए, 'इंडिया' में तो कई अस्पताल चेन पहले से हैं. हमारे इस निर्णय का आधार सेवा भाव तो है ही लेकिन इसमें एक बिजनेस सेंस भी है. उत्तर और पूर्वी भारत में देश की तकरीबन 60 फीसदी आबादी रहती है और देश की कुल हेल्थकेयर फैसिलिटी का तकरीबन 35 प्रतिशत ही इस क्षेत्र में है. हम इस गैप को भरना चाहते हैं.'
कश्मीर घाटी में अस्पताल खोलने की तैयारी
इसी विजन के आधार पर पारस हेल्थकेयर कश्मीर घाटी में पहला सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल बना रहा है. मार्च, 2023 में 200 बेड के इस अस्पताल की शुरुआत हो जाएगी. नागर की योजना 2030 तक गया, जम्मू, मेरठ, जबलपुर, अजमेर, गोरखपुर जैसे केंद्रों पर 50 विश्व स्तरीय अस्पताल खोलने की है. धर्मेंद्र नागर की उम्र 52 वर्ष है, उनकी कुल संपत्ति करीब 1,800 करोड़ रुपये है.
वे कहते हैं, 'मुमकिन है कि यह लक्ष्य हम पहले ही हासिल कर लें, पर जब भी हम कहीं अस्पताल खोलते हैं तो यह पक्का करते हैं कि वह विश्व स्तरीय हो.' 2013-14 में जब पारस ने पटना में पेट स्कैन लगाया तो दिल्ली-एनसीआर और कोलकाता के बीच यह पहली ऐसी मशीन थी.
पटना के पारस अस्पताल में 400 महिलाएं काम कर रही हैं. नागर कहते हैं कि महानगरों से बाहर निकलकर अस्पताल खोलने से महिलाओं को सम्मानजनक रोजगार के अवसर भी मिल रहे हैं, क्योंकि ये ऐसी महिलाएं हैं जिनके परिवार के लोग उन्हें फैक्ट्री या होटल में काम करने नहीं भेज सकते.
नागर जब मेडिकल की पढ़ाई करके ब्रिटेन में काम कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि वहां नर्सों की काफी इज्जत है. यह बात उन्होंने अपने अस्पताल में लागू की. वे कहते हैं कि मरीजों के साथ सबसे अधिक वन्न्त नर्स ही गुजारती हैं, इसलिए उनकी समझ बेहतर होती है और वे उचित सम्मान की हकदार हैं. यही वजह है कि पारस हेल्थकेयर के चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर चुनने की बारी आई तो नागर ने एक नर्स डॉ. सैंटी साजन को चुना, जिन्होंने नर्सिंग में पीएचडी की थी.
धर्मेंद्र नागर का परिवार
नागर की दो बेटियां हैं. वे कहते हैं कि अपनी बेटियों से उन्होंने करुणा का भाव सीखा. नागर की दोनों बेटियों ने उन्हें इस कदर प्रभावित किया कि अब वे करुणा के लिए अंग्रेजी शब्द कंपैशन को अपने अस्पताल के मिशन-विजन में जोड़ने जा रहे हैं. वे जनवरी, 2023 के अपने ग्रुप रिलॉन्च में अफोर्डिबिलिटी, एक्सेसिबलिटी और क्वालिटी में सबसे पहले कंपैशन शब्द जोड़ेंगे.
नागर ने जब ब्रिटेन में मेडिकल की पढ़ाई पूरी की तब भी उन्हें स्पष्ट नहीं था कि जिंदगी में आगे करना क्या है. परिवार से काम का दबाव न बढ़े, इसलिए वे हर बार किसी नए कोर्स में एडमिशन ले लेते थे. घर वाले भी कहने लगे थे कि यह पढ़ाई को बहाने की तरह इस्तेमाल कर रहा है.
नागर ने 1999 में ब्रिटेन में लेसिक आइ सेंटर चेन खोलने की कोशिश की. उन्होंने देखा कि स्पेन में 50 लेसिक आइ सेंटर थे लेकिन पूरे ब्रिटेन में सिर्फ पांच थे. उन्हें इसमें बड़ा अवसर दिखा. इसके लिए उन्होंने ऑफिस भी खोला. लेकिन वहां के एक प्रमुख अखबार टाइम्स में लेसिक आइ सर्जरी के खिलाफ एक-दो महीने तक लगातार खबरें प्रकाशित हुईं.
इससे पहले वाले पांच सेंटर्स की भी हालत खराब हो गई और नागर की योजना धरी की धरी रह गई. अपनी इस नाकामी के बारे में नागर कहते हैं, 'बाद में समझ में आया कि ब्रिटेन में चश्मा लगाने की सामाजिक स्वीकार्यता थी. जबकि स्पेन के लोग दिखने को लेकर बहुत पर्टिकुलर थे, वे चश्मा नहीं लगाना चाह रहे थे और लेसिक सर्जरी करा रहे थे.'
नाकामी की इस पृष्ठभूमि के साथ नागर जब 2003 में भारत वापस आए तो फिर से पढ़ाई का बहाना बनाया और बिट्स पिलानी से एमफिल करने लगे. इस बीच 2004 में उनके पिता और पारस डेयरी के संस्थापक चौधरी वेदराम की तबियत खराब हो गई. उन्हें लीवर ट्यूमर हो गया था. नागर को लग गया कि पिता के पास अधिक समय नहीं है.
अस्पताल चलाना आसान नहीं
वे बताते हैं, 'मुझे लगा कि उनके रहते-रहते कुछ ऐसा करके दिखा दूं कि इन्हें ये न लगे कि ये बेटा निकम्मा है और जीवन में कुछ नहीं कर पाएगा. बहुत समय से दिमाग में था कि अस्पताल खोलना है. 2005 में मेरे पिता ने पहले अस्तपाल की नींव रखी और उसी साल उनका निधन हो गया. 2006 में हमारा पहला अस्पताल शुरू हुआ. वे कहते थे कि क्वालिटी से कभी समझौता नहीं करना. यही पारस अस्पताल की सफलता का मूलमंत्र है.'
नागर को किताबें पढ़ने का बहुत शौक है. कुछ दिनों पहले वे महाश्वेता देवी की किताबें पढ़ रहे थे. मनोविज्ञान पर वे नियमित तौर पर पुस्तकें पढ़ते हैं. रोमन सम्राट मार्कस ओरिलियस की किताब मेडिटेशंस उन्होंने कम से कम 10 बार पढ़ी होगी. उन्हें इतिहास और अर्थव्यवस्था जैसे विषयों पर पॉडकास्ट सुनना भी काफी पसंद है.
धर्मेंद्र नागर बुलंदशहर, गाजियाबाद और आसपास के क्षेत्रों में महिला शिक्षा पर काम कर रहे हैं. पिछले 10 सालों में उन्होंने 1,000 से ज्यादा छात्रवृत्तियां दी हैं. सरकारी स्कूलों के गरीब परिवार की दसवीं पास करने वाली बच्चियों को वे 12वीं तक हर साल एक लाख रुपये की स्कॉलरशिप देते हैं. वे कहते हैं कि अब उनका सपना इस काम को और आगे ले जाना है.