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10 साल स्ट्रगल...3 साल डिप्रेशन, फिर एक सरकारी फैसले ने बदली Vedanta Group के Anil Agarwal की किस्मत

वेदांता चेयरमैन को 10 साल केे लंबे स्ट्रगल से जूझना पड़ा और इस दौरान वह डिप्रेशन में भी चले गए. फिर सरकार के एक फैसले ने उन्हें मौका दिया और सफलता का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ, जिसने लंदन हेडक्वार्टर वाले वेदांता समूह का रूप ले लिया.

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लंबे स्ट्रगल के बाद मिली सफलता (Photo: Twitter/@AnilAgarwal_Ved)
लंबे स्ट्रगल के बाद मिली सफलता (Photo: Twitter/@AnilAgarwal_Ved)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • आज हजारों करोड़ के मालिक हैं अग्रवाल
  • स्ट्रगल और फेलियर से भरी है कहानी

प्रसिद्ध उद्योगपति एवं वेदांता ग्रुप (Vedanta Group) के चेयरमैन अनिल अग्रवाल (Anil Agarwal) आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. हालांकि मेटल किंग (Metal King) के जीवन में भी कम स्ट्रगल नहीं रहा है और उन्हें भी सालों तक डिप्रेशन से गुजरना पड़ा है. हालांकि इसके बाद भी उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी और सफल होने की जिद पर अड़े रहे. कहावत है कि अगर आप प्रयास करते रहें तो जीवन आपको सफल होने के मौके देता रहता है. यह कहावत अनिल अग्रवाल पर पूरी तरह से सटीक साबित होती है.

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अभी लंदन में ही रहते हैं वेदांता चेयरमैन

अग्रवाल इन दिनों लगातार सोशल मीडिया (Social Media) पर अपने स्ट्रगल की कहानियां साझा कर रहे हैं. पिछले अपडेट में उन्होंने यह बताया था कि कैसे उन्हें पहली कंपनी खरीदने के लिए दोस्तों और परिजनों से कर्ज लेना पड़ा था. ताजा पोस्ट में उन्होंने इससे आगे की कहानी साझा की है. इसमें प्रसिद्ध उद्योगपति ने बताया है कि कैसे उन्हें एक के बाद एक असफलताओं का सामना करना पड़ा और 10 साल का लंबा स्ट्रगल (Anil Agarwal Struggle) करना पड़ा. इस दौरान 3 साल का डिप्रेशन का दौर भी आया. फिर सरकार के एक फैसले ने उन्हें मौका दिया और सफलता का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ, जिसने लंदन हेडक्वार्टर वाले वेदांता समूह का रूप ले लिया.

वर्कर्स को सैलरी देने के भी नहीं थे पैसे

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अग्रवाल लिखते हैं, ''बड़ी उम्मीदों के साथ मैंने अपनी पहली कंपनी खरीदी, लेकिन उसके बाद के 10 साल मेरे जीवन के सबसे कठिन वर्ष थे. 1976 में, मैंने शमशेर स्टर्लिंग केबल कंपनी (Shamsher Sterling Cable Company) खरीदी, लेकिन मेरे पास वर्कर्स को सैलरी देने या जरूरी रॉ मटीरियल खरीदने के लिए भी पैसे नहीं थे. मेरे दिन पेमेंट क्लियर करवाने के लिए बैंकों के चक्कर लगाने में बीतते थे और रातें इस प्रयास में गुजर जाती थीं कि बंद पड़े केबल प्लांट को फिर से कैसे खड़ा करें. अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए मैंने 'मैग्नेटिक वायर, डिफरेंट केबल्स, एल्यूमीनियम रॉड, वार्नर ब्रदर्स के साथ मल्टीप्लेक्स' जैसे अलग-अलग फील्ड में नौ बिजनेस शुरू किए. एक के बाद एक... हर बिजनेस में मुझे असफलता ही मिली, लेकिन... मैंने हार नहीं मानी.''

असफलताओं से हो गया था डिप्रेशन

दिग्गज उद्योगपति ने आगे बताया कि कैसे वह डिप्रेशन में चले गए और किस तरह उन्हें इससे उबरने में मदद मिली. वह बताते हैं, ''इस वित्तीय संकट के स्ट्रेस के कारण मैं तीन साल तक डिप्रेस्ड रहा. लेकिन मैंने इस बारे में किसी को कुछ नहीं बताया. खुद को ट्रैक पर लाने के लिए मैंने अपनी पूरी क्षमता से एक्सरसाइज और मेडिटेशन करना शुरू किया. जब सारी उम्मीदें खो चुकी थीं, मैंने भी वहीं किया जो हर कोई ऐसे समय में करता है...भगवान से प्रार्थना...मुंबादेवी से सिद्धिविनायक और हाजी अली से माहिम चर्च तक.''

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नहीं खरीद पाए थे शोले की टिकट

आज भले ही अनिल अग्रवाल का नेटवर्थ 40 करोड़ डॉलर यानी करीब 35 हजार करोड़ रुपये का हो, लेकिन असफलता और डिप्रेशन के दौर में एक समय ऐसा भी था, जब उनके पास पसंदीदा सिनेमा का टिकट खरीदने के पैस नहीं थे. इस बारे में वह खुद बताते हैं, ''स्ट्रेस को कम करना था और सिनेमा से बढ़कर क्या हो सकता था... मेरा सबसे बड़ा पैशन! तो निकल पड़ा, मिनर्वा टॉकीज में फिल्म 'शोले' के प्रीमियर के लिए. वहां भीड़ में खड़े होकर अपने फेवरिट स्टार्स अमिताभ बच्चन, जया भादुड़ी, धर्मेंद्र और दूसरे कइयों को रेड कार्पेट पर चलते हुए देखा. हॉल में घुसना और टिकट पाना तो नामुमकिन था, पर बाहर खड़े होकर अपने चहेते स्टार्स की एक झलक देख पाना भी मेरे लिए काफी था. कुछ समय के लिये मानो मैं अपनी चिंताओं से कहीं दूर हो गया था.''

इस एक बात ने बना दी किस्मत

लगातार प्रयास करते रहने का मीठा फल अग्रवाल को तब मिला, जब सरकार ने साल 1986 में एक पॉलिसी में छोटा बदलाव किया. यह बदलाव था टेलीफोन केबल बनाने के लिए प्राइवेट सेक्टर को मंजूरी देने का. मेटल किंग इस बारे में लिखते हैं, 'आज, जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं, तो मुझे एहसास होता है कि ब्रह्मांड ने मेरी शुरुआती कठिन परीक्षा इसलिए ली, ताकि आने वाले समय में जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि - वेदांता को संभालने के लिए तैयार हो सकूं. सक्सेस पाने के लिए हमें फेलियर्स का सामना तो करना ही होगा. दस साल बाद, 1986 में, सरकार ने पहली बार टेलीफोन केबल को प्राइवेट सेक्टर में मैन्युफैक्चर करने की अनुमति दी...और इसके बाद सब कुछ बदल गया.''

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