केंद्र सरकार की कुल संपत्ति रिकॉर्ड नकारात्मक स्तर पर पहुंच गईं हैं क्योंकि सार्वजनिक परिसंपत्तियों (assets) और देनदारियों (liabilities) के बीच अंतर काफी बड़ा हो रहा है. अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट के चलते वित्त वर्ष 2020 में सरकार की 60 प्रतिशत देनदारियां इसकी परिसंपत्तियों से मेल नहीं खा रही हैं. सरकारी कर्ज इस अंतर का सबसे बड़ा कारण है.
पिछले सात दशक (1951-2019) का सार्वजनिक वित्तीय रिकॉर्ड कहता है कि परिसंपत्तियों और देनदारियों के बीच का यह अंतर 1985 से बढ़ना शुरू हुआ. 1951 में परिसंपत्तियां 60 प्रतिशत देनदारियों की पूर्ति कर रही थीं. 15 साल बाद यानी 1966 में परिसंपत्तियां 100 प्रतिशत देनदारियों से मेल खा रही थीं.
The Government of India has reached the record level of negative net worth as difference of public assets and liabilities are widening.
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— Dipu Rai (@DipuJourno) January 29, 2020
लेकिन 1985 से देनदारियों के मुकाबले परिसंपत्तियों में तेजी से गिरावट आई और वित्त वर्ष 2019 में यह केवल 39 प्रतिशत देनदारियों की पूर्ति कर रही थी. पिछले वित्तीय वर्ष में लगभग 55 प्रतिशत देनदारियों की कोई संपत्ति नहीं थी. आर्थिक मंदी संभावित रूप से चालू वित्त वर्ष में परिसंपत्ति-देनदारी अनुपात को प्रभावित करेगी.
सरकार की आय और व्यय के अंतर को मैनेज करने के लिए 80 प्रतिशत से अधिक देनदारियों को सार्वजनिक ऋण, विशेष रूप से आंतरिक ऋण द्वारा उत्पन्न हुई हैं, जिसे राजकोषीय घाटे के रूप में जाना जाता है. सार्वजनिक ऋण का आकार जीडीपी के लगभग आधे तक पहुंच गया है. सार्वजनिक ऋण प्रबंधन खुद में एक बड़ी चुनौती बन गया है. यह सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक के बीच टकराव की वजह बन रहा है.
केंद्र सरकार की आंतरिक और बाह्य कर्ज राशि वित्त वर्ष 1951 के अंत में 24,62,442 करोड़ रुपये थी. अब वित्त वर्ष 2020 में यह बढ़कर 80,59,841 करोड़ रुपये हो गई है. पिछले 10 सालों में ऋण पर ब्याज भुगतान में लगभग 243 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इस अवधि में सरकार अपनी देनदारियों पर जो ब्याज देती है, उसकी दर 8 प्रतिशत है.
सरकार सार्वजनिक ऋण के रूप में अपने खर्च के हिस्से को कवर करने के लिए बांड और प्रतिभूतियां जारी करती है. देशों को कर्ज देने और उनकी वित्तीय हालत की निगरानी करने के लिए जिम्मेदार अंतरराष्ट्रीय एजेंसी ने चेतावनी दी है कि सार्वजनिक ऋण भारत में खतरनाक स्तर पर पहुंच रहा है क्योंकि विकास दर फिसल रही है और राजकोषीय स्थिति भारी दबाव में है.
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपने हालिया अनुमान में कहा है, “उभरते बाजारों में भारत का ऋण सबसे ज्यादा है. इसे कम होना चाहिए. राजकोषीय घाटे में कुछ सुधार के बावजूद, आंशिक रूप से ऑफ-बजट वित्तपोषण में वृद्धि के कारण पिछले एक दशक में जीडीपी के एक हिस्से में बदलाव आया है.”
आंकड़े बताते हैं कि सार्वजनिक ऋण से उसी दर पर संपत्ति नहीं बनाई जा सकती जिस दर पर ऋण जमा हो रहे हैं. परिसंपत्तियों के दो घटक हैं- पूंजीगत व्यय और लोन एवं अग्रिम भुगतान. लाभांश और मुनाफे के साथ ऐसे ऋणों और अग्रिम भुगतानों पर ब्याज से होने वाली आय 1985-86 के बाद से ब्याज भुगतान के 70 प्रतिशत से अधिक नहीं रही.
सार्वजनिक निवेश पर रिटर्न ने सरकारों के सामान्य, सामाजिक और आर्थिक सेवाओं पर राजस्व व्यय का केवल 30 प्रतिशत कवर किया है.
बड़े और अस्थिर बजटीय घाटे के कारण आगामी बजट के लिए भी एक चुनौती होगी क्योंकि कम राजस्व और तेज आर्थिक मंदी सार्वजनिक ऋण की भारी मात्रा को बढ़ा सकती हैं, जो परिसंपत्तियों और देनदारियों के बीच की खाई को और चौड़ा कर सकती है.
कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि चूंकि यह सार्वजनिक या 'संप्रभु' ऋण है, इसलिए किसी को भी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है. अर्थशास्त्री जॉन एफ वीक्स का तर्क है, “सार्वजनिक ऋण वाली कोई सरकार अपनी ही मुद्रा के मामले में कभी भी डिफॉल्ट नहीं होगी. जब कोई सरकार विदेशी मुद्रा में उधार लेती है तो वह खुद को डिफॉल्ट होने के लिए कमजोर बना लेती है.”
सरकार अपने 'संप्रभु' ऋणों के कारण अपना स्थायित्व बनाए रख सकती है, लेकिन सवाल उठते हैं कि ऐसे सुरक्षित ऋणों का टिपिंग पॉइंट क्या है.
कर्जदाता धीरे-धीरे ब्याज दरों में वृद्धि करेंगे, लेकिन अगर अर्थव्यवस्था पर मंदी की मार जारी रहती है और सार्वजनिक बचत कम हो जाती है, तो ऐसे सुरक्षित ऋण सामाजिक और आर्थिक दोनों तरीकों से नुकसान पहंचाएंगे.