अर्थव्यवस्था में ठहराव और लगातार जारी जिद्दी महंगाई के घातक मेल ने खरीदारों पर बुरी मार डाली है. खर्च में किफायत का सबसे जाहिर संकेत उन खर्चों में कटौती है जो जीने के लिए जरूरी नहीं माने जाते. ये संकेत हर तरफ दिखाई दे रहे हैं. चेन्नै में पोलेरिस फाइनेंशियल टेक्नोलॉजी के असिस्टेंट वाइस प्रेसिडेंट सोलोमन सेल्वराज की उम्र 40 साल है. 2010 तक वे हर साल अपनी पत्नी और दो बेटियों को छुट्टियों में विदेश घुमाने का खर्च आराम से उठा लेते थे.
मंदी का असर शुरू होने के बाद 2011 में वे सिर्फ उत्तराखंड की पहाडिय़ों में ही घूमने जा सके और 2012 में परिवार ने तमिलनाडु में छुट्टियां बिताईं. 2013 में तो छुट्टियों पर जाने का इरादा ही टाल दिया. उनका कहना है कि कीमतें बेतहाशा बढ़ी हैं, जबकि आमदनी उतनी नहीं बढ़ पाई. एक लाख रु. की मासिक आमदनी में से 80 प्रतिशत जरूरी खर्चों में चला जाता है, जिनमें होम लोन की भारी ईएमआइ शामिल है. भारतीय रिजर्व बैंक ने जनवरी में ब्याज को 0.25 प्रतिशत घटाया है, फिर भी उसकी दरें बहुत ऊंची हैं. सेल्वराज को खर्चे भी कम करने पड़े हैं. उनका कहना है, ‘‘पहले हफ्ते में दो दिन बाहर खाते थे, लेकिन अब बहुत कम कर दिया है.’’ मनचाहा खर्च करना तो पिछले साल ही लगभग पूरी तरह बंद कर दिया था.
इधर दिल्ली में 43 साल के चंदन सिंह की हालत तो और भी खस्ता है. चीनी बनाने वाली एक कंपनी के दिल्ली में रीजनल मैनेजर का रहन-सहन का स्तर गिरता जा रहा है. चार साल पुराने लैपटॉप की मरम्मत बेहद जरूरी है और दस साल पहले खरीदी गई वॉशिंग मशीन को बदलने की जरूरत है, लेकिन उनके पास इस तरह के खर्चों के लिए पैसे नहीं हैं. सिनेमा और बाहर खाना ऐसे महंगे शौक हो गए हैं, जिन्हें उन्होंने और उनके परिवार ने फिलहाल छोड़ दिया है.
चंदन सिंह का कहना है, ‘‘लगातार छह महीने से महीना खत्म होने तक कोई पैसा नहीं बचता. महीने के आखिर के सारे भुगतान मैं अपने क्रेडिट कार्ड से करता हूं.’’ उन्होंने कार चलाना बंद कर दिया है और पब्लिक ट्रांसपोर्ट से सफर करते हैं. वे तो यहां तक सोच रहे हैं कि बिहार में अपने घर लौट जाएं. शायद वहां जिंदगी का खर्च उठाया जा सकेगा. ज्यादातर उपभोक्ताओं की तरह चंदन सिंह को भी भारत की अर्थव्यवस्था में कोई भरोसा नहीं है.
जिंदगी की बुनियादी जरूरतें-रोटी, कपड़ा और मकान-कुछ साल पहले के मुकाबले काफी महंगी हो गई हैं. लोग किसी तरह अपनी जरूरतें पूरी कर रहे हैं. उपभोक्ताओं पर महंगाई का दबाव एक कड़वा सच है. आंकड़े खुद सच्चाई बयान कर रहे हैं.
*दिसंबर के लिए औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आइआइपी) के ताजा आंकड़े 11 फरवरी को जारी हुए, जिनसे उपभोक्ताओं की सबसे खस्ता हालत साफ जाहिर हो गई. टेलीविजन सेट, रेफ्रिजरेटर और कार जैसे उपभोक्ता सामान की वृद्धि दर 8.2 प्रतिशत गिरी है. ज्यादातर भोजन और कपड़ों जैसे आवश्यक और रोजमर्रा की जरूरत वाली कैटेगरी में वृद्धि की दर 1.4 प्रतिशत गिरी है.
*क्रेडिट सुइस ने 29 जनवरी, 2013 को भारतीय उपभोक्ताओं का जो सर्वेक्षण जारी किया, उसके अनुसार उपभोक्ताओं का विश्वास दो वर्ष में सबसे निचले स्तर पर है. ये 2011 से 2012 की शुरुआत तक नीतिगत पक्षाघात के मुश्किल महीनों से भी कम है.
*जनवरी, 2013 में उपभोक्ता मुद्रास्फीति लगातार चौथे महीने बढ़कर 10.79 प्रतिशत हो गई. सीएस सर्वे के मुताबिक, 62 प्रतिशत उपभोक्ताओं को महंगाई बढऩे की आशंका है, जिसकी वजह से लोग खरीदारी टाल देते हैं.
*आमदनी नहीं बढ़ रही है. सीएस सर्वे में शामिल 66 प्रतिशत लोगों का जवाब था कि पिछले एक वर्ष में वेतन या तो पहले जितना है या घटा है. 2012-13 में वृद्धि की दर 2011-12 से कम रहेगी, इसलिए वेतन में बढ़ोतरी कम उदार रहने वाली है.
*सर्वे के अनुसार 2010 या 2011 की तुलना में 2012 में ज्यादा लोगों ने खरीदारी के फैसले टाले हैं.
*उपभोक्ताओं का सरकार से विश्वास उठ गया है. सर्वे के अनुसार 2011 में 50 प्रतिशत लोगों को ही लगता था कि समस्याएं सुलझाने में सरकार असरदार रही. 2012 में यह आंकड़ा 35 प्रतिशत रह गया. भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 58 प्रतिशत हिस्सा घरेलू खपत खर्च का है. इसलिए वृद्धि में नाटकीय गिरावट (5 या साढ़े पांच प्रतिशत तक) सबसे ज्यादा चोट उपभोक्ताओं पर करती है.
सपने जो टाल दिए
खरीददार ज्यादा से ज्यादा पैसा बचा रहे हैं और सस्ता माल खरीद रहे हैं
क्रेडिट सुइस सर्वे ने यह पुष्टि कर दी है कि सोलोमन सेल्वराज और चंदन सिंह अपवाद नहीं हैं, बल्कि अधिकतर लोग उन जैसे ही हैं. कपड़े, स्पोर्ट्स शूज, घड़ी और परफ्यूम जैसी मनचाही वस्तुओं पर किया जाने वाला कुल खर्च 2011 की तुलना में 2012 में तेजी से घटा है. 2012 में कुछ श्रेणियों में जवाब देने वालों में बिना ब्रैंड वाले सामान की पसंद बढ़ी है, जिससे पता चलता है कि घरेलू खर्चों में किफायत हो रही है.
छोटे दुकानदार भी ग्राहक की बदलती पसंद का असर देख रहे हैं. 52 साल के यशवर्द्धन सिन्हा ने 2002 में पटना में 9 टू 9 सुपर मार्केट्स नाम से शहर का पहला रिटेल चेन स्टोर खोला था. उन्होंने माना कि ब्रांडेड वस्तुओं की गिरती बिक्री ने विस्तार योजनाओं पर लगाम कस दी है. सिन्हा का कहना है, ‘‘बिक्री में ठहराव है, बल्कि पिछले एक साल में तो इसमें गिरावट आई है. लगता है कि ग्राहक के पास पैसा नहीं है या फिर जरूरी चीजें खरीदने के बाद शौकिया चीजों पर खर्च करने की इच्छा नहीं रही. हमारे बिक्री के आंकड़े बताते हैं कि शौकिया वस्तुओं पर खर्च 35 प्रतिशत कम हुआ है.’’
सर्वे ने यह भी साबित कर दिया कि बढ़ती संख्या में खरीदार, खरीदारी के फैसले टाल रहे हैं. 2010 में जवाब देने वाले करीब 80 प्रतिशत लोगों ने कहा था कि खरीदारी के लिए वक्त अच्छा रहा. अब यह अनुपात 60 प्रतिशत से कम रह गया है. सर्वे से पता चलता है कि भारतीय लोग ज्यादा पैसा बचा रहे हैं और मकान तथा पढ़ाई पर खर्च कम कर रहे हैं जो गंभीर किफायत का संकेत है.
38 साल के शारिक खान भोपाल में एक स्पोर्ट्स चौनल में मैनेजर हैं, उनकी पत्नी निशात गृहिणी हैं और दो बच्चे हैं. पिछले कुछ महीनों से उन्हें बढ़ती कीमतों का असर महसूस होने लगा है. कार खरीदने का इरादा उन्होंने फिलहाल टाल दिया है. उनका कहना है, ‘‘मैं नई कार खरीदने की सोच रहा था, लेकिन अब लगता है कि कुछ दिन और इंतजार करना पड़ेगा.
घरेलू सामान और दूसरी चीजों के बढ़ते दाम बचत करने लायक कुछ छोड़ते ही नहीं.’’ खान अब अपने परिवार को रेस्तरां में खाना खिलाने भी नहीं ले जा सकते. उन्हें अफसोस है, ‘‘आम तौर पर वीकएंड में किसी अच्छे रेस्तरां में डिनर करते थे, लेकिन अब हमने बाहर जाना छोड़ दिया है.’’
सीएस सर्वे के मुताबिक, 2012 में सस्ती कारों के लिए खरीदारों का रुझान साफ दिखाई दिया. 2011 में जवाब देने वालों में से सिर्फ 25 प्रतिशत ने कहा था कि वे चार लाख रु. से कम दाम की कार खरीदना पसंद करेंगे. 2012 में यह अनुपात तेजी से बढ़कर 35 प्रतिशत के आसपास पहुंच गया. मनचाहे खर्च की दूसरी श्रेणियों पर भी असर पड़ा है. इसका सबसे बढिय़ा उदाहरण स्मार्ट फोन खरीदारों का है.
बाजार में हर बड़ी कंपनी एक से बढ़कर एक फोन पेश कर रही है और आए दिन उनकी खूबियों में भी इजाफा कर रही है, लेकिन आंकड़ों से पता चलता है कि लोग स्मार्टफोन पर उतना पैसा खर्च नहीं कर रहे हैं जितना वे दो साल पहले कर रहे थे. 2010 में 30 प्रतिशत से ज्यादा जवाब देने वालों ने बताया था कि उनके पास स्मार्ट फोन है, लेकिन 2012 में उस पर पैसे खर्च करने वालों का अनुपात 25 प्रतिशत से कम रह गया.
सरकार के लिए चिंता की इससे भी बड़ी बात यह होनी चाहिए कि लोगों में आने वाले दिनों के प्रति निराशा है और हालात बदलने की उसकी क्षमता में विश्वास न के बराबर है. अगस्त 2012 के बाद से अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए उठाए गए एक के बाद एक कदम भी उपभोक्ताओं में विश्वास नहीं बढ़ा पाए. यह बात यूपीए सरकार के लिए अच्छा संकेत नहीं है. सर्वेक्षण के अनुसार, जवाब देने वालों में से सिर्फ पांच प्रतिशत को महंगाई घटने की उम्मीद है.
करीब 60 प्रतिशत को लगता है कि उनकी व्यक्तिगत माली हालत अगले साल भी ऐसी ही रहेगी या और बिगड़ेगी और करीब 35 प्रतिशत को ही यह विश्वास है कि आम चुनाव से पहले के साल में सरकार उनके रहन-सहन के स्तर को सुधार देगी. अब यह जिम्मेदारी वित्त मंत्री पी. चिदंबरम पर है कि वे इस बजट में कुछ जादू कर दिखाएं. इस जादू को असरदार बनाने के लिए सबसे पहले उन्हें यह जिद छोडऩी होगी कि अर्थव्यवस्था का रुख पलटने लगा है.
चिदंबरम केंद्रीय सांख्यिकीय आयोग से बहुत नाराज हैं. 2012-13 के लिए सकल घरेलू उत्पाद में 5 प्रतिशत वृद्धि का उसका अनुमान छह महीने पहले वित्त मंत्री बने चिदंबरम पर जबरदस्त सवालिया निशान लगाता है. अप्रैल और सितंबर 2012 के बीच जब अधिकतर समय प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री थे तो भारत का सकल घरेलू उत्पाद 5.4 प्रतिशत की दर से बढ़ा. सीएसओ के अनुमान के अनुसार, चिदंबरम के काल में अक्तूबर से मार्च तक यह सिर्फ 4.6 प्रतिशत की दर से बढ़ेगा. अगर यह आंकड़े सही हैं तो मानना पड़ेगा कि चिदंबरम के धुंआधार सुधारों का असर उल्टा हुआ है.
इन आंकड़ों से शिकायत के लिए वित्त मंत्री के पास कई कारण हैं. सबसे बड़ी बात तो यह है कि वृद्धि दर में कमी उन्हें राजकोषीय घाटे का हिसाब दोबारा लगाने पर मजबूर कर देगी. लेकिन आम उपभोक्ता को इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि वृद्धि पांच प्रतिशत हो या साढ़े पांच प्रतिशत. उनके लिए तो खर्च में किफायत अपने आप में कोई आंकड़ा नहीं, रोजमर्रा की जिंदगी की कड़वी सच्चाई है.
निवेशक भले ही छह महीने पहले की तुलना में ज्यादा उत्साह में दिखें, आम भारतीय के लिए अर्थव्यवस्था का रुख पलटने के कोई संकेत नहीं हैं. वित्त मंत्री के ताजा बयानों से ऐसा लगता है कि इस बजट में चिदंबरम का सारा जोर निवेशकों को खुश करने पर है. उन्हें उपभोक्ताओं के बोझ के बारे में भी सोचना चाहिए, क्योंकि आखिरकार वोटिंग मशीन में यूपीए के भविष्य का बटन मतदाता के रूप में वे ही दबाने वाले हैं.
दुनिया की किसी भी अर्थव्यवस्था के रुख में बदलाव का सबसे भरोसेमंद पैमाना मोटर वाहनों की बिक्री में ठोस सुधार है. 11 फरवरी को जारी आंकड़ों में सोसाइटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरर्स (सियाम) का कहना है कि जनवरी के महीने में कारों की बिक्री साढ़े 12 प्रतिशत घटी. यह गिरावट लगातार तीसरे महीने है और दिसंबर में दर्ज सात प्रतिशत की गिरावट के बाद यह सबसे तेज कमी है.
रिकवरी जो नहीं हुई
उपभोक्ता सामान के प्रमुख क्षेत्र के आंकड़े अब भी लगातार गिर रहे हैं
मोटर वाहन उद्योग को दशक में सबसे खराब प्रदर्शन की आशंका है. 2012-13 में वृद्धि शून्य से नीचे जाने वाली है. सियाम के महानिदेशक विष्णु माथुर ने 11 फरवरी को कहा था, ‘‘खरीदारी के जोश में कमी और अर्थव्यवस्था में सुस्ती शायद भारत के मोटर वाहन उद्योग की वृद्धि दर 2002-03 के बाद से सबसे कम रहने वाली है. उस समय कारों की बिक्री में 2.1 प्रतिशत की कमी आई थी.’’
भारत की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी मारुति सुजुकी के चेयरमैन आर.सी. भार्गव भी निराश हैं. उनका कहना है, ‘‘ऐसा कोई सबूत नहीं है, जिससे जाहिर हो कि उपभोक्ता खर्च में सुधार हुआ है. ऊंची महंगाई और नीची आर्थिक वृद्धि दर जैसे कारक उपभोक्ताओं के हौसले पस्त कर रहे हैं. पिछले तीन महीने तो खास तौर पर खरीदारी के लिए अच्छे नहीं रहे.’’
लगातार जारी मंदी की छाप फूड ऐंड बेवरेज सेक्टर पर भी साफ दिखाई देती है. यह क्षेत्र भी शौकिया खर्च की श्रेणी में आता है. इस पर भी महंगाई की जबरदस्त मार पड़ी है. जुबिलिएंट फूड वर्क्स बेहद कामयाब डोमिनोज पिज्जा चेन चलाती है. उसके सीईओ अजय कौल के मुताबिक, पिछले तीन महीने खास तौर पर बुरे रहे हैं. उनका कहना है, ‘‘2012-13 की पहली छमाही में हम सिस्टम लेवल पर 41 प्रतिशत बढ़े, जबकि स्टोर के लेवल पर बढ़त 22 प्रतिशत के आसपास रही, लेकिन अक्तूबर से दिसंबर 2012 की तीसरी तिमाही में सिस्टम लेवल पर बढ़त घटकर 39 प्रतिशत और स्टोर के लेवल पर 16 प्रतिशत रह गई.’’ उनकी नजर में यह साफ संकेत है कि जिस दौर में चिदंबरम निवेशकों में जोश फिर से जगाने की जीतोड़ कोशिश कर रहे थे तभी उपभोक्ताओं का जोश ठंडा पड़ रहा था.
कौल का कहना है, ‘‘इससे साफ पता चलता है कि ग्राहक अपने खर्च पर लगाम लगा रहे हैं.’’ कौल ने यह भी बताया कि डोमिनोज के मेन्यु में सस्ती चीजों की लोकप्रियता बढ़ रही है, जिससे साफ जाहिर है कि ग्राहक किफायत कर रहे हैं.
लोग रेफ्रिजरेटर, एयरकंडीशनर, टीवी और वॉशिंग मशीन जैसे कंज्यूमर ड्यूरेबल प्रोडक्ट भी खरीदने से कतरा रहे हैं. इनमें से कई चीजें शहरी जिंदगी के लिए बेहद जरूरी हैं और उन पर खर्च को किसी भी लिहाज से शाहखर्ची नहीं कहा जा सकता है. दिसंबर के लिए आइआइपी के ताजा आंकड़ों में कंज्यूमर ड्युरेबल्स की श्रेणी में नाटकीय गिरावट इलेक्ट्रॉनिक सामान के क्षेत्र में भी झलकती है.
पैनासोनिक के मैनेजिंग डायरेक्टर मनीष शर्मा के मुताबिक दीवाली के बाद बिक्री कम रही है, क्योंकि महंगाई तेजी से बढ़ी है. उनके अनुमान के मुताबिक, उपकरणों की लागत 15 से 20 प्रतिशत तक बढ़ी है. शर्मा का कहना है, ‘‘राजनैतिक और आर्थिक अस्थिरता के कारण पिछले कुछ महीनों में भारत में कुल मिलाकर उपभोक्ताओं में जोश इतना अधिक नहीं रहा जिसका असर पूरे उद्योग में कंज्यूमर ड्यूरेबल प्रोडक्ट की बिक्री पर काफी हद तक दिखाई देता है. इतना ही नहीं, कच्चे माल की ऊंची लागत, बढ़ती ब्याज दरों और रुपए की घटती कीमत की वजह से भी कंज्यूमर ड्यूरेबल प्रोडक्ट के दाम बढ़ गए हैं.’’
वीडियोकोन की इलेक्ट्रॉनिक्स रिटेल चेन डिजीवर्ड के सीओओ जयदीप राठौड़ भी अर्थव्यवस्था में सुस्ती की पुष्टि करते हैं. उनका कहना है, ‘‘बिक्री का स्तर पिछले वर्ष जितना ही है. अगर 10 या 20 प्रतिशत वृद्धि की उम्मीद थी तो वह पूरी नहीं हुई है. अभी एयरकंडीशनर की बिक्री, अनुमान के मुताबिक नहीं बढ़ी है. एलसीडी टेलीविजन भी नहीं बिक रहे हैं.’’
उम्मीद का जुगाड़
हालात सुधरने से पहले ग्राहकों के लिए और बिगड़ सकते हैं
केंद्रीय बजट, उपभोक्ताओं की निराशा को आशा में बदलने के लिए सरकार के हाथ में आखिरी मौका है. चिदंबरम के पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं. ग्राहक का खर्च बढ़वाने का एकमात्र टिकाऊ तरीका विकास की रफ्तार को फिर से तेज करना और महंगाई को लगाम लगाना है. इस दोहरे लक्ष्य को पाने के लिए बढ़ते राजकोषीय घाटे की लगाम कसनी होगी. इस समय बेहिसाब सरकारी खर्च निवेश और उपभोक्ता खर्च दोनों पर भारी पड़ रहा है.
वित्त मंत्री ने ठान लिया है कि इस घाटे को 2012-13 में सकल घरेलू उत्पाद के 5.3 प्रतिशत और 2013-14 में 4.8 प्रतिशत तक सीमित कर देना है, जबकि 2011-12 में यह घाटा जीडीपी का 5.9 प्रतिशत था. वृद्धि में मजबूत रिकवरी के अभाव में यह लक्ष्य हासिल करने के लिए चिदंबरम के पास शायद टैक्स बढ़ाने के अलावा और कोई चारा नहीं होगा. लेकिन इससे कुछ समय के लिए उपभोक्ताओं पर मार पड़ेगी.
सरकार में जानकार सूत्रों का कहना है कि वित्त मंत्री राजस्व बढ़ाने के लिए इनकम टैक्स की दरें बढ़ाने पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं. अगर यह बढ़ोतरी हुई तो इसके कम-से-कम 12 लाख रु. सालाना आमदनी वालों पर लागू होने की संभावना है, लेकिन अगर ऊंची आय वाले वर्ग पर ज्यादा टैक्स लगाया गया तो उनका विश्वास भी कम होगा, जिससे अर्थव्यवस्था में और सुस्ती आ सकती है. वित्त मंत्री इसकी भरपाई करने और संतुलन लाने के लिए टैक्स के स्तरों में फेरबदल करके मध्यम आय वर्ग को कुछ राहत दे सकते हैं, जिससे खपत को बढ़ावा मिले.
वित्त मंत्रालय कारखानों में तैयार माल पर उत्पाद शुल्क को मौजूदा 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 14 प्रतिशत करने की भी सोच रहा है. दो प्रतिशत की यह वृद्धि सरकार को 40,000 करोड़ रु. की अतिरिक्त आमदनी दे सकती है जो प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक का एक साल का खर्च उठाने के लिए काफी है, लेकिन इससे उपभोक्ताओं की खर्च करने की क्षमता पर कहीं ज्यादा बोझ पड़ेगा, क्योंकि कार, एसी और टीवी सेट जैसे सभी कंज्यूमर ड्यूरेबल प्रोडक्ट महंगे हो जाएंगे. इनकम टैक्स की दर बढ़ाने का असर सिर्फ ऊंची आमदनी वालों पर पड़ेगा लेकिन उत्पाद शुल्क में वृद्धि सबको चुकानी पड़ेगी.
मार्च 2012 में अपने आखिरी बजट भाषण में उस समय के वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने शेक्सपियर के हेमलेट के हवाले से अपना इरादा बयान किया था: ‘‘दया दिखाने के लिए मुझे क्रूर होना पड़ेगा.’’ लेकिन उन्होंने यह क्रूरता सिर्फ वोडाफोन और विदेशी संस्थागत निवेशकों के साथ दिखाई, लेकिन चिदंबरम के सामने 28 फरवरी, 2013 को उपभोक्ताओं के साथ कुछ क्रूरता दिखाने के सिवाए कोई विकल्प नहीं है. हो सकता है कि यह क्रूरता बाद में उन्हें संपन्नता देगी. उन्हें यह तर्क असरदार ढंग से समझना होगा और हताश उपभोक्ता में विश्वास जगाना होगा.
वित्त मंत्री को भारत को खुश करने के लिए अपनी चर्चित कार्यकुशलता की ताकत के अलावा कुछ और भी कर दिखाने की जरूरत पड़ेगी. उन्हें जादू की छड़ी घुमानी होगी.
-साथ में श्रव्या जैन, अमिताभ श्रीवास्तव, शुरैह नियाजी, प्रवीण कुमार भट्ट, भानुमति के. और जे. बिंदुराज