मोदी सरकार को एक ऐसी कंपनी की तलाश है जो सोशल मीडिया पर शेयर की जा रही सामग्री पर नजर रखे, उसका विश्लेषण करे, साथ ही केंद्र सरकार की मदद से देश में राष्ट्रीयता की भावना का विस्तार करने और देश विरोधी दुष्प्रचार को रोकने में मदद करे.
अंतरराष्ट्रीय मीडिया ब्लूमबर्ग की खबर के मुताबिक सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने ऑनलाइन टेंडर जारी कर ऐसी कंपनी से आवेदन मांगा है. कंपनी ऐसी जो सोशल मीडिया की निगरानी के लिए एक सॉफ्टवेयर समेत कम से कम 20 लोगों की विशेष टीम के साथ सरकार को एक रियल टाइम न्यू मीडिया कमांड रूम की सुविधा दे सके.
मंत्रालय के विज्ञापन के मुताबिक उक्त कंपनी को ट्विटर, यू-ट्यूब, लिंक्डइन समेत तमाम इंटरनेट फोरम और ईमेल की मॉनिटरिंग करते हुए इन प्लेटफॉर्म्स पर संवेदनशील पोस्ट्स की पहचान करनी है. इसके साथ ही कंपनी को फेक न्यूज की पहचान करते हुए केन्द्र सरकार के नाम से पोस्ट्स और मैसेज का संचार करना है. केन्द्र सरकार का दावा है कि वह संवेदनशील और फेक कंटेन्ट को रोकने के साथ-साथ ऐसे पोस्ट का संचार करवाएगी जिससे देश की अच्छी छवि बनाने में मदद मिले.
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गौरतलब है कि बीते 4 साल के दौरान मोदी सरकार के कार्यकाल में पीएमओ समेत सरकार के सभी मंत्रालय और कैबिनेट मंत्री सोशल मीडिया पर एक्टिव रहते हैं. सोशल मीडिया का सहारा लेते हुए ज्यादातर मंत्री अपनी नई नीतियों का प्रचार करने और नागरिकों से सीधा संवाद स्थापित करने की कोशिश करते हैं. अब केंद्र सरकार एक कदम आगे जाना चाहती है.
केंद्र की ओर से जारी इस नई निविदा से साफ जाहिर है कि मोदी सरकार अब देश की अच्छी छवि के निर्माण के लिए एक ताकतवर सॉफ्टवेयर के साथ-साथ एक मजबूत पेशेवरों की टीम का इस्तेमाल करने जा रही है. केंद्र सरकार की दलील है कि 2019 में आम चुनाव और उससे पहले कुछ अहम राज्यों में विधानसभा चुनावों से पहले केन्द्र सरकार देश में राष्ट्रीयता की भावना का संचार करते हुए देश की सकारात्मक छवि का प्रचार करना चाहती है.
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ब्लूमबर्ग को ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी की प्रोफेसर निकिता सूद ने बताया कि मोदी सरकार की इस पहल से साफ है कि उसे एक मास सर्वेलेंस टूल की आवश्यकता है. सूद का कहना है कि मौजूदा समय में राष्ट्रीयता को सरकार अथवा सत्तारूढ़ राजनीतिक दल की नीतियों से सहमति के तौर पर देखा जा रहा है. सूद ने दावा किया कि इस कदम से देश में लोकतंत्र के सामने कड़ी चुनौती है और देश में भारतीय संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों के हनन की संभावना है.अमेरिकी यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर की इस आपत्ति पर प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रवक्ता से किसी तरह की सफाई नहीं दी गई है. ब्लूमबर्ग की तरफ से मोदी सरकार के संवाद की कोशिशों का फिलहाल कोई नतीजा नहीं निकला है. वहीं इस निविदा पर उठे सवालों पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने भी चुप्पी साध रखी है.