मोदी सरकार के सबसे बड़े कदम नोटबंदी को अब एक साल पूरा हो चुका है. सरकार जहां नोटबंदी को सफलता मान रही है, वहीं, विपक्ष इसे आर्थिक भ्रष्टाचार करार देकर सरकार को घेर रहा है. नोटबंदी के 1 साल बाद मुद्दा जश्न बनाम विरोध में तैर रहा है, तो आइए आपको ठीक 1 साल पीछे ले चलते हैं और याद दिलाते हैं वह तस्वीरें जब प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की घोषणा की.
बैंकों और एटीएम के बाहर लंबी लाइनें आप नहीं भूले होंगे. कैश की किल्लत से सब कुछ ठप हो गया था. सरकार ने नोटबंदी लागू करने के पीछे एक मकसद दिखाया था काले धन को खत्म करने का और एक उम्मीद जताई थी कि डिजिटल होगा इंडिया. आइए एक साल बाद एक रियलिटी चेक करते हैं कि आखिर नोटबंदी के 1 साल बाद कितना डिजिटल हुआ इंडिया और कितना डिजिटल हुआ आम आदमी.
नोटबंदी के 1 साल बाद रियलिटी चेक
आजतक संवाददाता आशुतोष मिश्रा ने नोटबंदी के 1 साल बाद रियलिटी चेक कर यह जानने की कोशिश की कि आखिर इन बारह महीनों में दिल्ली का एक आम आदमी कितना डिजिटल हो पाया और रोजमर्रा के लेन-देन में जिंदगी कितनी डिजिटल हो पाई है. आशुतोष रोज की तरह ही अपने घर से सुबह दफ्तर के लिए निकले. कैश बनाम डिजिटल इंडिया के रियलिटी चेक के लिए आजतक संवाददाता के पास मोबाइल फोन पर पेटीएम जैसे ऑनलाइन पेमेंट के तमाम साधन भी मौजूद थे.
घर से निकलने के बाद पहला पड़ाव था राशन की दुकान. रोजमर्रा की जरूरत के लिए ग्रॉसरी स्टोर पर निर्भर हैं, लेकिन नोटबंदी के एक साल बाद क्या ग्रॉसरी स्टोर डिजिटल पेमेंट पर चल पड़ा है या अभी भी कैश पर निर्भर है? पड़ताल के लिए ग्रॉसरी स्टोर से हमने पूछा कि रोजमर्रा के सामान का भुगतान कैसे करें तो जवाब मिला कैश से भी और पेटीएम से भी.
खत्म नहीं हो पाया है कैश का चलन
दुकानदार का कहना है कि ज्यादातर ग्राहक अब पेटीएम के जरिए पेमेंट करने लगे हैं, लेकिन ऑनलाइन भुगतान के दूसरे माध्यम किराना स्टोर तक नहीं पहुंचे हैं. दुकानदार का मानना है कि नोटबंदी के बाद कई ग्राहक अब पेटीएम जैसे गेटवे का इस्तेमाल करने तो लगे हैं लेकिन कैश का चलन खत्म नहीं हो पाया है. आजतक संवाददाता के साथ खरीदारी करने गए दूसरे ग्राहक ने भी कहा कि वह भी डिजिटल भुगतान माध्यम का इस्तेमाल करते हैं.
घर के लिए राशन के सामान का ऑर्डर दे दिया और अब वक्त है दफ्तर के लिए प्रस्थान करने का. मेट्रो पकड़ने से पहले बारी आती है साइकिल रिक्शा की. गंतव्य तक छोड़ने के बाद जब साइकिल रिक्शा से पूछा कि उनके मेहनताने का भुगतान कैसे करें तो रिक्शावाले का जवाब था सिर्फ और सिर्फ कैश. इस रिक्शे वाले को कैश के अलावा किसी और तरीके के भुगतान के बारे में नहीं पता. डिजिटल इंडिया का सपना गरीब रिक्शे वाले के सामने दम तोड़ रहा है.
हमने सोचा कि साइकिल रिक्शा की बजाए ई-रिक्शा की सवारी की जाए क्योंकि इसका चलन राजधानी में अब ज्यादा हो चुका है. और हो सकता है कि रिक्शा वाले के पास ऑनलाइन भुगतान के दूसरे माध्यम से डिजिटल भुगतान हो सके. ई-रिक्शा वाले ने भी दो टूक शब्दों में कह दिया पैसे लेंगे तो कैश लेंगे. हमने पूछा कि आखिर क्यों तो रिक्शा चालक का जवाब था कि मोबाइल तो है लेकिन डिजिटल पेमेंट के बारे में नहीं, पता ना ही डिजिटल भुगतान के लेन-देन के बारे में आता है.
सरकारी बस में धराशायी डिजिटल इंडिया
आजतक संवाददाता इसके बाद डीटीसी की एक बस में चढ़े. सोचा बस सरकारी है तो सरकार के डिजिटल इंडिया और डिजिटल लेन देन के रास्ते पर यह बस भी चल रही होगी. कंडक्टर से टिकट मांगी तो बदले में उसने मांगा कैश. हमने पूछा कि ऑनलाइन पेमेंट क्यों नहीं तो कंडक्टर का कहना है कि ऐसा कोई नियम ही नहीं है. सरकारी विभाग में ही सरकार की नीतियां 1 साल के अंदर ही धराशायी पाई गई.
'डिजिटल ट्रांसजैक्शन से पाला नहीं पड़ा'
लगे हाथ बस में बैठे मुसाफिरों से भी दो सवाल किए गए कि नोटबंदी के 1 साल बाद उनका जीवन कितना डिजिटल हुआ है और बदलाव कहां तक आया है. पहली महिला यात्री ने कह दिया कि घर के सामान से लेकर रोज की सभी जरूरतें पूरी करने के लिए वह सिर्फ कैश पर निर्भर हैं. दक्षिण दिल्ली की तरफ जा रहे बस में बैठे पुरुष मुसाफिर ने भी कहा कि डिजिटल ट्रांजैक्शन से उनका पाला अभी तक नहीं पड़ा है.
बस में बैठी दूसरी महिला मुसाफिर से भी हमने नोटबंदी के 1 साल बाद उसके असर के बारे में पूछा. महिला मुसाफिर ने दो टूक शब्दों में कह दिया ना तो नोटबंदी से कुछ हासिल हुआ ना कुछ बदलाव आया, उल्टे लोगों का नुकसान हुआ और कइयों की नौकरियां चली गई. नोटबंदी से आज भी खफा इस महिला मुसाफिर ने कहा कि उनके जीवन में भी डिजिटल ट्रांजैक्शन के लिए बहुत ज्यादा जगह नहीं है.
रेस्टोंरेंट में अभी है कैश का दबदबा
बस की सवारी के बाद दोपहर के वक्त आजतक संवाददाता लंच के लिए रेस्टोरेंट पहुंचे. भोजन खत्म होने के बाद बारी थी पैसा चुकाने की. रेस्टोरेंट के मालिक से पूछा कि भुगतान का माध्यम क्या होगा तो उनका जवाब था साहब कैश ही दे दीजिए. ढाबे के मालिक का कहना है कार्ड पेमेंट की सुविधा नहीं है और ऑनलाइन गेटवे चल नहीं रहा. लेकिन उनका यह भी कहना है नोटबंदी लागू होने के 1 साल बाद अब ज्यादातर लोग कैश के रास्ते पर चल पड़े हैं. उनके मुताबिक उनके ढाबे पर ज्यादातर लोग कैश से ही भुगतान करते हैं.
हाथ में स्मार्टफोन, लेकिन ऑनलाइन पेमेंट नहीं
शाम ढली वक्त हुआ घर जाने का और घर जाने से पहले आजतक संवाददाता फल वाले की दुकान पर रुके. फल के बदले में भुगतान करना चाहा तो फल वाले ने मुंह खोलकर कैश मांगा. जब हमने पूछा कि ऑनलाइन या डिजिटल भुगतान क्यों नहीं तो फल वाले का जवाब था इन सब चीजों के बारे में तो पता ही नहीं है. हाथ में स्मार्टफोन तो था, लेकिन ऑनलाइन पेमेंट कैसे करें इसकी जानकारी ही नहीं.
मेडिकल स्टोर पर मिला कार्ड पेमेंट का ऑप्शन
फलवाले के बाद अगला पड़ाव मेडिकल स्टोर था. सर्दी खांसी की दवाइयां लेनी तो थी, लेकिन अगर कैश ना हो तो क्या दवाई ले पाएंगे या नहीं? मेडिकल स्टोर वाले ने जवाब दिया कि हां, कैश नहीं है तो कार्ड पेमेंट कर सकते हैं. मेडिकल स्टोर वाले का जवाब यह भी था कि उनके यहां ज्यादातर लोग अब कार्ड से भुगतान करने लगे हैं और कैश वाले ग्राहकों की संख्या में कमी आई है.
डिजिटल इंडिया के लिए दिल्ली दूर है!
नोटबंदी का 1 साल बीत चुका है, लेकिन इस 1 साल के वक्त के बावजूद भी सरकार डिजिटल इंडिया के दावे चाहे लाख करे, जमीनी स्तर पर उसका अमल अभी भी दूर की कौड़ी है. क्योंकि ज्यादातर लोग और उनकी रोजमर्रा की जरूरतें फिर से कैश की पटरी पर लौट आई हैं. यानी साफ-साफ कहें इंडिया को कैश से दूर करने के लिए दिल्ली अभी दूर है.