दस सुरंगों और 50 पुलों से गुजरती हुई 25 किलोमीटर लंबी ऊधमपुर-कटरा रेल लाइन का चालू होना भारतीय रेल के इतिहास का एक और अध्याय है. अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में जिस रेल ने भारत में कदम रखा था, उसके जैसे पंख लग गए हैं और आज वे हिमालय के दुर्गम रास्तों के ऊपर भी फैल गए हैं.
यह रेल लाइन इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि यह भारत के एक बड़े धार्मिक स्थल को शेष भारत से जोड़ती है बल्कि हिमालय में भी अपनी इंजीनियरिंग और अपने कौशल का परिचय देती है. सैकड़ों सालों तक हिमालय भारत के सामने एक चुनौती की तरह खडा़ रहा और इसकी ऊंची-ऊंची पर्वतमालाओं पर रेल लाइन बिछाने की बात सोचना भी एक सपना था लेकिन अब वह पूरा होता दिख रहा है. 1,132 करोड़ रुपये की लागत से बनी यह रेल लाइन अंततः जम्मू-कश्मीर के लिए एक लाइफ लाइन बन जाएगी. पिछली सदी में भारतीय रेल के इंजीनियरों और कर्मियों ने ई श्रीधरन के कुशल नेतृत्व में कोंकण रेल की परियोजना पूरी करके दुनिया भर में अपनी कीर्ति फैलाई. अब जम्मू-कश्मीर में हमें इंजीनियरिंग का कमाल देखने को मिल रहा है. हिमालय पर एक बार फिर विजय की तैयारी है. हिमालय पर रेल लाइन बिछाना भारत के लिए एक रणनीतिक महत्व भी है. चीन ने जिस तरह अपनी रेल का प्रसार किया है वह हैरान कर देने वाला है. वह तिब्बत के दुर्गम रास्तों तक अपनी रेल ले आया है और अब पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर तक उसे पहुंचाने की तैयारी में है.
इसका मतलब यह हुआ कि चीन रेल से सीधे भारत की सीमा तक आ पहुंचेगा. यह न केवल हैरानी की बात है बल्कि चिंता की भी. इससे न केवल बड़े पैमाने पर साजो सामान बल्कि सैनिक भी पहुंचाए जा सकते हैं. दूसरी ओर चीन पूर्वोत्तर में भी रेल लाइनें बिछाने की तैयारी में है. रक्षा की दृष्टि से वह भी एक महत्वपूर्ण इलाका है जहां काफी समय से चीन नजरें गड़ाए बैठा है. ऐसे में भारतीय रेल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है. हमें भी उसका उन इलाकों तक विस्तार करना ही होगा और न केवल सीमाओं की रक्षा के विचार से बल्कि व्यापार बढ़ाने के लिहाज से भी. हम सभी जानते हैं कि चीन हाल के वर्षों में भारत का बहुत बड़ा व्यापारिक साझीदार बन गया है और हम उसके साथ सालाना लगभग 80 अरब डॉलर का व्यापार करते हैं और अनुमान है कि यह 2015 तक बढ़कर 100 अरब डॉलर का हो जाएगा.
इतिहास गवाह है कि भारत का चीन के साथ व्यापार का रिश्ता बेहद पुराना है और वह विख्यात सिल्क रूट जिससे उस जमाने में दोनों देशों के व्यापारी आते-जाते थे, अब प्रासंगिक नहीं रह गया है. इतने बड़े पैमाने पर व्यापार अब समुद्री जहाजों से होता है जिस पर ज्यादा लागत आती है और समय भी बहुत लगता है. इस दृष्टि से भी हिमालय की ऊंची-नीची घाटियों में रेल चलाना जरूरी है.
लेकिन यह जितना आसान दिखता है उतना है नहीं. इन परियोजनाओं के लिए रेलवे को 80,000 करोड़ रुपए की जरूरत होगी और तब 14 रेल लाइनें बिछ सकेंगी जिनमें तीन पूर्वोत्तर में हैं. ज़ाहिर है यह बहुत बड़ी रकम है और अब देखना है कि नई सरकार इसका बीड़ा कैसे उठाती है. अभी तो शुरुआत भर है.