पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को पूरे देश में इंटरनल इमरजेंसी का ऐलान किया. इस फैसले के पीछे इंदिरा गांधी ने बतौर प्रधानमंत्री कुछ दलीलें देश के सामने रखी. इसके बावजूद इतिहास के पन्नों में इस फैसले को काले अक्षरों में दर्ज करने की कवायद हुई हालांकि इतिहासकार यह भी दावा करते हैं कि इस एक फैसले से इंदिरा की सख्त फैसला लेने की छवि देश के सामने आई और राजनीतिक विरोधियों ने उनकी तुलना जर्मनी के पूर्व तानाशाह हिटलर तक से की.
इसी तर्ज पर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सख्त फैसला लेने वाले नेता की छवि 6 नवंबर 2016 को तब बनी जब नोटबंदी का ऐलान किया गया. इस एक ऐलान से देशभर में संचालित लगभग 86 फीसदी मुद्रा को अमान्य घोषित कर दिया गया. प्रधानमंत्री मोदी ने भी ऐलान के साथ देश को यह फैसला लेने के पीछे अपनी दलील दी. हालांकि एक बार फिर विपक्ष की भूमिका में बैठी कांग्रेस इस फैसले को गलत ठहराए जाने की उम्मीद लगाए बैठी है लेकिन सत्ता के गलियारों में आम राय है कि इस फैसले से प्रधानमंत्री मोदी ने देश के सामने अपनी यह छवि बना ली है कि कड़े फैसलों को लेने में वह हिचकते नहीं है.
बीते 50 साल के दौरान दो प्रधानमंत्री और दो राजनीतिक दलों ने इन दो फैसलों के सहारे अपनी छवि का निर्माण किया. हालांकि दोनों ही फैसले बड़े स्तर पर देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर प्रभाव डालने वाले हैं. लिहाजा, यह समझना जरूरी है कि आखिर इन बड़े फैसलों को लेने के पीछे जो कारण गिनाए गया वह समय के साथ कितने खरे उतरे और क्या ये फैसले अपने मकसद में सफल साबित हुए?
इमरजेंसी लागू होने के बाद के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक 1975 और 1976 के दौरान देश में अच्छे मॉनसून के चलते कृषि उत्पादन में तेज उछाल दर्ज हुई थी. इमरजेंसी से पहले पांच साल के औसत 41.5 मिलियन टन चावल उत्पादन की तुलना में 1975 में 49.7 मिलियन टन और 1976 में 42.8 मिलियन टन उत्पादन दर्ज हुआ था. इसी तरह इमरजेंसी के इन दो साल के दौरान गेंहू और दाल के उत्पादन में क्रमश: 20 और 30 फीसदी की उछाल दर्ज हुई थी.
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कृषि उत्पादन में वृद्धि की तर्ज पर 1975 और 1976 के दौरान देश में औद्योगिक उत्पादन में अच्छी तेजी देखने को मिली थी. जहां 1975 में औद्योगिक उत्पादन 6.1 फीसदी बढ़ा वहीं 1976 में इसमें 10.4 फीसदी की उछाल देखने को मिली थी.
इमरजेंसी से पहले 1974 में इंदिरा गांधी सरकार के सामने महंगाई की सबसे बड़ी चुनौती थी. इस दौरान महंगाई दर डबल डिजिट में दर्ज हुई थी. लेकिन इमरजेंसी से ठीक पहले ब्लैकमार्केटिंग और होर्डिंग के खिलाफ उठाए गए कदमों के चलते 1975 में थोक महंगाई गिरकर -1.1 फीसदी और 1976 में 2.1 फीसदी दर्ज हुई. वहीं खाद्य महंगाई जहां 1974 में 38 फीसदी के स्तर पर थी, इमरजेंसी लागू होने के बाद यह -4.9 फीसदी और -5.1 फीसदी दर्ज हुई.
देश में इमरजेंसी लागू होने के बाद 1974 के 3328 करोड़ रुपये के निर्यात की तुलना में 1975 के दौरान 4042 करोड़ और 1976 में 5142 करोड़ रुपये का निर्यात दर्ज हुआ. वहीं आयात के क्षेत्र में भी बड़ा अंतर दर्ज हुआ. जहां 1974 में आयात विकास दर 53 फीसदी रहा वहीं 1975 और 1976 के दौरान आयात दर 16.5 फीसदी और 3.6 फीसदी दर्ज किया गया.
हालांकि इमरजेंसी के दौरान सरकारी खर्च में हुए इजाफे के चलते बड़ा बजट घाटा दर्ज हुआ. लेकिन खास बात यह रही कि इमरजेंसी में अधिक खर्च के अलावा केन्द्र सरकार की कमाई में बड़ा इजाफा दर्ज हुआ. इमरजेंसी से पहले के वर्षों के दौरान खराब विकास दर के बाद 1975 और 1976 में 9.7 फीसदी और 12.6 फीसदी का इजाफा केन्द्र सरकार की कमाई पर दर्ज हुआ.
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इमरजेंसी के दौरान इन आर्थिक आंकड़ों की तुलना में नोटबंदी के बाद के आर्थिक आंकड़ों पर नजर डालें तो साफ है कि इमरजेंसी के दौरान आर्थिक तेजी दर्ज हुई वहीं नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था को सुस्त करने का काम किया. इमरजेंसी के बाद जहां केन्द्र सरकार की कमाई में इजाफा हुआ वहीं नोटबंदी के बाद खुद रिजर्व बैंक की कमाई को चोट पहुंची. इमरजेंसी के दौरान जहां देश की जीडीपी में इजाफा दर्ज हुआ वहीं नोटबंदी ने जीडीपी को 1 से 1.2 फीसदी की नुकसान पहुंचाया. जहां नोटबंदी के पहले 8.01 फीसदी जीडीपी ग्रोथ दर्ज हुई वहीं नोटबंदी के बाद 7.11 फीसदी जीडीपी ग्रोथ दर्ज हुई.
इमरजेंसी के दौरान देश में व्याप्त महंगाई से राहत मिली थी. वहीं आंकड़ों के मुताबिक नवंबर 2016 में नोटबंदी के ऐलान के बाद जहां नवंबर के दौरान महंगाई दर में कमी दर्ज हुई लेकिन इसके बाद के महीनों में महंगाई में इजाफा देखने को मिला. वहीं नोटबंदी के बाद जीडीपी में दर्ज हुई गिरावट के आंकड़ों से साफ जाहिर है कि देश में कृषि उत्पादन और औद्योगिक उत्पादन को नोटबंदी के फैसले से बड़ा नुकसान पहुंचा. हालांकि नोटबंदी के लंबी अवधि के असर को देखना भी बाकी है लेकिन मौजूदा समय के आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि इमरजेंसी और नोटबंदी का फैसला आर्थिक-सामाजिक पहलुओं पर विपरीत असर देने वाला रहा.