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विश्‍लेषण: शिक्षा में सुधार के लिए सख्त नियम चाहिए

भारत का कोई शैक्षिणिक संस्थान यानी की विश्वविद्यालय विश्व के अग्रणी 200 विश्वविद्यालयों में  आजादी के 7 दशक बीतने के बाद भी शमिल नहीं है. शैक्षिक संस्थानों के गिरते स्तर को बचाने के लिए सरकार को अच्छी शोध के लिए शोध राशी बढानें के साथ साथ विश्वविद्यालयों को आवश्यक मूलभूत सुविधाओं से सुसज्जित करना होगा.

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आजादी के 7 दशक बीतने के बाद भी भारत का कोई शैक्षिणिक संस्थान यानी की विश्वविद्यालय विश्व के अग्रणी 200 विश्वविद्यालयों में शमिल नहीं है. यह आंकड़ा देश की उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को प्रकट करता है. वैसे इस देश में उच्च शिक्षा के संस्थानों की बहुत कमी है. जहां हमारे देश में लगभग 650 विश्वविद्यालय राजकीय और निजी दोनों मिलाकर वहीं हमारी आबादी के 10वें हिस्से के बराबर आबादी वाले देश जापान में 800 से अधिक विश्वविद्यालय है.

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वैसे हम खुश है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था ने जापान अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ कर विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है. वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी स्वयं इस ओर कई बार अपनी चिंता व्यक्त कर चुके है. कई दीक्षांत समारोह के अपने भाषण में इन्होंने इनकी चर्चा की है. वैसे ये स्पष्ट है कि हमारे विद्यार्थियों में योग्यता की कमी नहीं है. यही विद्यार्थी कई बार बाहर जाकर परचम लहराते है और अपनी योग्यता का लोहा मनवाते है.

उक्त चिन्ता अपनी जगह है लेकिन वर्तमान स्थिति और भी गंभीर है. बहुत विश्वविद्यालय अपने पुराने स्तर को भी बना कर नहीं रख पाए है. भारत के कई बड़े विश्वविद्यालयों के स्तर में गिरावट आई है. तत्कालीन यूपीए सरकार की नीति बड़ी विचित्र थी. इस सरकार ने विश्वविद्यालयों या अन्य उच्च शिक्षा संस्थान का स्तर सुधारने के लिए कोई प्रयास न करते हुए कई नए केंद्रिय विश्वविद्यालय स्थापित कर दिए. नई सरकार ने अभी कुछ किया नहीं है इसलिए यहां उस पर टिप्पणी करना बहुत उचित नहीं हैं. लेकिन यह जरूर प्रतीत होता है कि यह भी पुरानी सरकार के तर्ज पर चलेगी क्योंकि इसके धोषणा पत्र में प्रत्येक राज्य में एक आईआईटी, एक आई आई एम और एक केन्द्रिय विश्वविद्यालय खोलने की बात कही गई है. वैसे कोई भी सरकार हो नए संस्थान खोलने पर विशेष ध्यान देगी क्योंकि इससे राजनीतिक लाभ लेना ज्यादा आसान होता है.

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नए संस्थान खुले है, भले ही वह अस्थाई जगह पर चल रहे हो और अस्थाई कर्मचारी हो, सभी को दिखाई देता है जबकि विश्वविद्यालय के स्तर में सुधार के लिए प्रयास का प्रभाव बहुत जल्द नहीं प्रतीत होता और एक बड़ा वर्ग जिसको निम्न स्तर से लाभ हो रहा था नाराज हो जाता हैं. इस प्रकार इससे राजनीतिक लाभ लेना आसान नहीं है. वैसे नए संस्थान खोलने की नीति के खिलाफ भी कोई नहीं है. अपितु इस देश में नए संस्थानों की आवश्यकता है लेकिन इस नीति के साथ-साथ ही पुराने संस्थानों की तरफ भी ध्यान देने की आवश्यकता है. नियुक्ति में पारदर्शिता और शोध तथा शिक्षण के स्तर को सुधार कर संस्थानों के स्तर को बढ़ाया जा सकता है. विश्वविद्यालय स्तर की नियुक्तियों में पारदर्शिता का बहुत आभाव है.

अक्सर योग्य व्यक्ति के स्थान पर अयोग्य व्यक्ति का चुनाव हो जाता है. भाई भतिजावाद, गुरू शिष्य परंपरा, जातिवाद आदि जैसे शब्द विश्वविद्यालय स्तर पर बहुत प्रचलित है. कहीं कहीं तो पैसों के लेन देन की भी बातें सामने आ चुकी है. समस्या यहीं प्रथम नियुक्ति पर खत्म नही होती है अस्सिटेंट प्रोफेसर बनने के बाद एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों पर पदोन्नति तक बरकरार रहती है. हमेशा चूहे बिल्ली जैसी दौड़ बनी रहती है.

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इन सब समस्या को कुछ हद तक नियंत्रित किया जा सकता है यदि नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव लाया जाए. संघ लोक सेवा आयोग जैसा एक आयोग अच्छा विकल्प हो सकता है. यहां यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि यह आयोग निष्पक्ष हो और सरकार के दबाव में कोई कार्य न करें. जैसा यूजीसी का एक उदाहरण सामने आया है. यूपीए सरकार में यही यूजीसी ने दिल्ली विश्वविद्यालय पर कोई दबाव नहीं बनाया और आज केन्द्र सरकार परिवर्तित होते ही यूजीसी बदल गई और दिल्ली विश्वविद्यालय पर चार वर्षीय पाठयक्रम को हटाने का दबाव बना दिया.

शोध में सुधार लाने के लिए सबसे पहले पीएचडी स्तर के शोध में सुधार लाने का प्रयास करना पड़ेगा. कुछ भी लिख कर पीएचडी जमा कर दीजिए सुपरवाइजर अपने परिचित अध्यापकों के पास थिसिस भेज कर पास करवा ही देता है इस परंपरा को तोड़ने की कोशिश करनी ही होगी वैसे कुछ हद तक अच्छी नियुक्ति से यह समस्या नियमित होगी क्योंकि योग्य व्यक्ति कुछ अच्छा या सही करने का प्रयास करेगा यह माना जा सकता है लेकिन सिर्फ यही मान्यता पर निर्भर होने से सुधार नहीं होगा हमें एक सख्त नियम की आवश्यकता है. सरकार को अच्छी शोध के लिए शोध राशि बढ़ानें के साथ साथ विश्वविद्यालयों को आवश्यक मूलभूत सुविधाओं से सुसज्जित करना होगा इन सभी प्रयासों से हम हमारे शैक्षिक संस्थानों के गिरते स्तर को बचा सकते हैं.

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(लेखक अर्थिक विकास संस्थान दिल्ली से जुड़े हुए हैं.)

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