वह इंग्लिश का एग्जाम दे रही थी कि तभी ऑक्सीजन का सिलेंडर खराब हो गया...यह सांस संबंधी सिंड्रोम की शिकार नेहा मेंहदीरत्ता के हौसले की कहानी है. नेहा ने 12वीं की परीक्षा पास कर ली है. वह पुलिस अफसर बनना चाहती है.
गर्मी शुरू हो चुकी थी, उमस भरी गर्मी. राजधानी दिल्ली के एक स्कूल में एक लड़की नेहा बाकी स्टूडेंट्स की तरह एग्जाम दे रही थी. 12वीं के एग्जाम. इंग्लिश का पेपर. सब कुछ नॉर्मल था, सिवाय एक सिलेंडर के. दरअसल, नेहा बरसों से सांस से जुड़ी एक गंभीर बीमारी से पीड़ित थी. वह खुली हवा में सांस नहीं ले सकती. उसे हमेशा मास्क के जरिए ऑक्सीजन सिलेंडर से सांस लेनी पड़ती है.
आधा घंटा बीत चुका था. नेहा तेजी से हाथ चला रही थी. उसकी वजह थी सिर्फ आधे घंटे का बचा होना. ऐसा नहीं था कि बोर्ड के नियम बदल गए थे. दरअसल, नेहा की मेडिकल कंडिशन इतनी ही ठीक थी कि वह एक घंटे बैठकर एग्जाम लिख सके. इससे ज्यादा नहीं.
फिर सब ठीक गलत होने लगा. ऑक्सीजन के सिलेंडर में गड़बड़ी आ गई, सांस लेने में दिक्कत आने लगी. कमरे में मौजूद टीचर, स्कूल की प्रिंसिपल सब परेशान. स्कूल के बाहर नेहा के पापा राजकुमार थे. पेशे से ऑटो रिक्शा ड्राइवर. वही सिलेंडर सेट करके गए थे रूम में. जैसे ही उन्हें पता चला, वह ऑटो लेकर घर की तरफ गए, वापस लौटे. तब तक नेहा की हालत खराब होने लगी थी. मगर उसने परेशानी जाहिर नहीं की और आन्सर लिखती रही.
रिजल्ट आया. नेहा पास हो गई, 50 फीसदी से भी ज्यादा नंबर आए. मगर विल पावर के इम्तिहान में वह अव्वल है. उसके पापा राजकुमार भी, जिन्होंने बेटी के इलाज और पढ़ाई के लिए अपनी सारी जमा पूंजी खर्च कर दी. नेहा और पढ़ना चाहती है. टीचर या पुलिस अफसर बनना चाहती है.
पांच साल से लगातार उसका इलाज चल रहा है. सबसे पहले लगातार खांसी की शिकायत हुई. फिर बताया गया कि टॉसिल्स में दिक्कत है. फिर डॉक्टरों ने टीबी होने की बात कही. आखिरी में सांस से जुड़े इस सिंड्रोम की तस्दीक हुई. 2011 आते-आते उसकी हालत बिगड़ चुकी थी. इमरजेंसी में भर्ती करना पड़ा. मार्च 2012 में डॉक्टरों ने राजकुमार को साफ कर दिया कि उनकी बेटी सिर्फ सिलेंडर से ही सांस ले सकती है, खुली हवा में नहीं.
शायद ही कोई दिन हो जिस दिन राजकुमार सिर्फ सवारी ढोए. डॉक्टरों के पास जो जाना होता है. वहां से उम्मीद लेकर बाप-बेटी घर लौटते हैं. राजकुमार फिर ऑटो उठाकर दूसरी शिफ्ट करने चला जाता है. नेहा घर की खिड़की पर आकर बैठ जाती है. बाहर बच्चे दिखते हैं. उसकी उमर के, दौड़ते, भागते, खेलते. उसका भी मन करता है बैडमिंटन खेलने का, पर नहीं खेल सकती. ऑक्सीजन सिलेंडर जो लगा है. फिर धीमे से उठती है और पास ही रखे ड्राइंग बोर्ड तक पहुंचती है. बेचैनी के रंग कैनवस पर उकेरने लगती है.
रंग बोलते हैं, नेहा नहीं. दरअसल बोलने में भी तकलीफ होती है. इसलिए नेहा कम ही बोलती है. जब बोलीं, तो कहा. 'मैं और अच्छा कर सकती थी. सांस लेने में तकलीफ बढ़ जाती थी, इसलिए एक घंटे से ज्यादा नहीं लिख पाई किसी भी पेपर में. पर जिद थी कि पेपर सबके साथ बैठकर ही देने हैं. वैसा ही हुआ. 60 फीसदी पेपर ही अटैंप्ट कर पाई. मैं और पढ़ना चाहती हूं अभी. मुझे पसंद है पढ़ना.' राजकुमार बस इतना ही कहते हैं, 'शायद कभी मेरी बेटी का दुरुस्त इलाज हो पाए. तब उसे सांस लेने के लिए मशीनों की जरूरत न पड़े.'
नेहा और उनके पिता राजकुमार की इस लड़ाई में और भी हैं मददगार. राजकुमार ने अपनी जमा पूंजी 38 हजार रुपये खर्च कर बेटी के लिए ऑक्सीजन मशीन खरीद ली. फिर जरूरत पड़ी एक एक्स्ट्रा ऑक्सीजन सिलेंडर की. तब एक पड़ोसी आगे आए. उन्होंने अपने घर रखा एक सिलेंडर राजकुमार को दे दिया.