भारत में बनी कोरोना वैक्सीन कोविड-19 संक्रमण के खिलाफ कितनी प्रभावशाली है, इसको लेकर एरा लखनऊ मेडिकल कालेज का शोध अत्यंत उत्साहवर्धक है. शोध के परिणाम से स्पष्ट है कि कोरोना वैक्सीन इस महामारी के खिलाफ जंग में मील का पत्थर साबित होगी.
एरा का शोध इन बिंदुओं पर केंद्रित था कि देश में बनी कोरोना वैक्सीन कितनी और कितने समय के लिए प्रभावशाली है. विभिन्न आयु वर्ग पर इसका कितना प्रभाव रहा. महिलाओं और पुरुषों पर इसका क्या असर रहा. वैक्सीन की दोनों डोज लेने के बाद भी जिन लोगों को कोरोना संक्रमण हुआ उनमें वैक्सीन कितनी कारगर साबित हुई.
एरा लखनऊ मेडिकल कालेज ने वैक्सीन की दोनों डोज ले चुके कुल 246 स्वास्थ्यकर्मियों का लाटरी के माध्यम से चयन किया गया और उनके शरीर में बनने वाली विकसित एंटीबॉडी पर रिसर्च शुरू किया. चयनित स्वास्थ्यकर्मियों में 34 डॉक्टर, 35 नर्सिंग स्टाफ, 65 पैरामेडिकल, 71 हाउसकीपिंग और 42 सुरक्षाकर्मी शामिल थे. इन सभी पर कोविड-19 ऐंटी बाडी का आंकलन 1 और 4 महीने के अंतराल पर किया गया.
संक्रमण के लिहाज से एरा लखनऊ मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल अतिसंवेदनशील था क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार ने 2020 में एरा मेडिकल कालेज को लेवल 3 कोविड हास्पिटल घोषित कर दिया था.
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एरा मेडिकल कालेज के तकरीबन 6500 स्वास्थ्यकर्मियों और मेडिकल छात्रों को केन्द्र और राज्य सरकार के दिशा-निर्देश में कोविशील्ड वैक्सीन की दोनों डोज लगाई गई. 15 फरवरी 2021 के बाद से कोविशील्ड वैक्सीन की दोनों डोज ले चुके 246 स्वास्थ्यकर्मियों पर सीरो कन्वर्जन (शरीर में एंटीबाडी बनने की दर) पर शोध शुरू किया गया. शोध में 1.7:1 के अनुपात में 156 पुरुषों और 90 महिलाओं कुल (246) को शामिल किया गया. इनमें 32.5 प्रतिशत स्वास्थ्यकर्मीयों, 40 से 49 आयु वर्ग के और 11 यानि 4.5 प्रतिशत 60 वर्ष से अधिक के थे.
एक महीने के बाद का परिणाम
वैक्सीन की दूसरी डोज लेने के एक माह के बाद की रिसर्च में 93.1 प्रतिशत यानि 229 लोगों में विकसित एंटीबॉडी (सीरोपॉजिटिव) पाई गई, सिर्फ 17 लोगों यानि 6.9 प्रतिशत लोगों में विकसित एंटीबॉडी नहीं पाई गई. जिन स्वास्थ्यकर्मियों में एंटीबाडी नहीं मिली उनमें 27.3 प्रतिशत 60 वर्ष के ऊपर के थे और मात्र 1.5 प्रतिशत 18 से 29 वर्ष के स्वास्थ्यकर्मी थे. इन 17 लोगों में 6 महिलाएं हैं, इसे महिला और पुरुष के अनुपात में देखें तो 35.3 प्रतिशत महिलाओं में और 64.7 प्रतिशत पुरुषों में एंटी बॉडी नहीं पाई गई. यहां दो बातें स्पष्ट है, पहली यह कि 60 वर्ष से अधिक वालों में एंटी बॉडी कम बनी, दूसरी यह कि संख्या के हिसाब से पुरुषों के मुकाबले अधिकतर महिलाओं में विकसित एंटीबाडी पाई गई.
चार महीने के बाद का परिणाम
कोरोना वैक्सीन की दूसरी डोज के चार महीने के बाद की रिसर्च में पाया गया कि एक माह बाद का सीरोपॉजिटिव का आंकड़ा जो 93.1 फीसदी था, वह बढ़कर 97.6 हो गया. जिन 17 लोगों में एंटीबॉडी नहीं मिली थी उसमें से भी 14 लोगों (82 प्रतिशत) में चार महीने बाद विकसित एंटीबॉडी प्राप्त हो गई. यहां यह कहा जा सकता है कि समय के साथ शरीर में एंटीबॉडी बनने की संभावना बनी रहती है.
चार महीने के बाद 246 लोगों में से मात्र तीन लोग ऐसे मिले जिनमे एंटीबॉडी नहीं बन पाई, इनमे 30 से 39 आयु वर्ग का दो और 60 से अधिक आयु वर्ग का एक स्वास्थ्यकर्मी है. शोध के परिणाम की विस्तृत व्याख्या में ये देखा गया की 97.6 प्रतिशत स्वास्थ्यकर्मियों में 1 प्रतिशत के ऊपर सार्स कोविड एंटीबॉडी विकसित पाई गई. वहीं 88.6 प्रतिशत स्वास्थ्यकर्मियों में एंटीबाडी का स्तर 5 फीसदी से अधिक, 46.7 प्रतिशत स्वास्थ्यकर्मियों में एंटी बॉडी का स्तर 10 फीसदी से अधिक और 26.8 प्रतिशत स्वास्थ्यकर्मियों में यह स्तर 15 प्रतिशत से ऊपर पाया गया.
ओवरऑल एवरज को देखें तो वैक्सिनेटेड स्वास्थ्यकर्मियों में 1 महीने बाद एंटीबॉडी का स्तर 11.98 प्रतिशत दर्ज किया गया, जबकि 4 महीन बाद यह आंकड़ा 11.76 प्रतिशत पर बना रहा. इसके अलावा तीन ऐसे लोग भी पाए गए जिनमें एक माह बाद तो एंटीबॉडी बनी थी, लेकिन चार महीने बाद उनके शरीर से एंटीबॉडी गायब हो गई. यानि वो सीरोपॉजिटिव से सीरोनिगेटिव हो गए. सीरोपॉजिटिव से सीरोनिगेटिव हुए स्वास्थ्यकर्मियों में 30 से 39 आयु वर्ग के दो और 40 से 49 आयु वर्ग के एक लोग हैं.
वैक्सीनेटेड पर कोरोना संक्रमण का असर
कोरोना वैक्सीन की दोनों डोज ले चुके जिन 246 स्वास्थ्यकर्मियों पर शोध किया गया उसमें से मात्र 18 (7.3) ही कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर में संक्रमित हुए. इसमें 10 चिकित्सक और 8 अन्य स्टाफ था. लिंग के अनुसार संक्रमितों में 11 पुरुष व सात महिलाएं थीं. इसे ब्रेक थ्रू इंफेक्शन कहते हैं.
इन 18 में तीन वो स्वास्थ्यकर्मी भी शामिल हैं, जिनमें एंटीबॉडी नहीं बनी थी, जबकि संक्रमित 15 लोगों में एंटीबॉडी पाई गई थी.
कोरोना की दूसरी लहर मार्च महीने के अंत में शुरू हुई थी, उस समय एक महीने वाली ही शोध संपन्न हुई थी, उस समय 17 स्वास्थ्यकर्मी ऐसे थे, जिनमें एंटीबॉडी नहीं बनी थी, जिसमें से सिर्फ तीन यानि 17.6 लोग ही संक्रमित हुए, यहां यह कहा जा सकता है कि एंटीबॉडी न बनने पर भी वैक्सीन का प्रभाव देखने को मिल सकता है. कोरोना से संक्रमित अन्य 15 में एंटी बॉडी पाई गई थी. अगर देखा जाए तो एंटीबॉडी वाले कुल 229 स्वास्थ्यकर्मियों में से मात्र 15 यानि 6.5 प्रतिशत ही कोरोना से संक्रमित हुए. ऐसे में कहा जा सकता है कि वैक्सीन कारगर साबित हुई.
कोरोना संक्रमित इन 18 में से सिर्फ दो को अस्पताल में भर्ती कराने की नौबत आई और रिकवरी 100 प्रतिशत दर्ज की गई. शोध में पाया गया कि जो स्वास्थ्यकर्मी वैक्सीन की दोनों डोज लेने के बाद संक्रमित हुए उनमें पहले एंटीबॉडी का स्तर कम था, लेकिन ब्रेक थ्रू संक्रमण के बाद एंटीबॉडी का स्तर बढ़ा हुआ पाया गया. जैसे-जैसे उनके शरीर में एंटीबॉडी का स्तर बढ़ता गया खतरा भी कम होता गया.
कोई गंभीर स्थिति में नहीं आयाः प्रोफेसर सिद्धार्थ
कोरोना रिपोर्ट निगेटिव आने के बाद इन 18 स्वास्थ्यकर्मियों में बूस्टर इफेक्ट देखने को मिला. जिन तीन स्वास्थ्यकर्मियों में एंटीबॉडी नहीं बनी थी, उनमे भी एंटीबॉडी बन गई थी. इसके अलावा कोरोना संक्रमितों में एंटी बॉडी का स्तर अन्य वैक्सीनेटेड स्वास्थ्यकर्मियों से अधिक पाया गया.
शोध टीम के सदस्य प्रोफेसर सिद्धार्थ चंदेल ने बताया कि वैक्सिनेटेड स्वास्थ्यकर्मियों में कोई भी कोविड संक्रमित व्यक्ति गंभीर स्थिति में नहीं आया और ना ही किसी की मृत्यु इस कारण से हुई.
उन्होंने कहा कि यह दावे के साथ तो नहीं कहा जा सकता कि इन्हें दोबारा संक्रमण नहीं होगा, लेकिन लखनऊ के एरा मेडिकल कॉलेज के रिसर्च में आया कि भारतीय वैक्सीन के दोनों डोज के बाद 97 फीसदी लोगों में एंटीबॉडी बना. इतना जरूर है कि वैक्सिनेटेड व्यक्ति को अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत कम या ना पड़े.