इस दर्दनाक स्टोरी में पुलिस, कानून और इंसाफ का एक ऐसा सच क़ैद है जिसकी कोई दूसरी मिसाल हिंदुस्तान तो क्या पूरी दुनिया में नहीं मिलेगी. ये सच ही कुछ ऐसा है जिसे सुनने के बाद भी आपको अपने कानों पर यकीन नहीं होगा. पर आपको यकीन करना पड़ेगा. क्योंकि ये सच है.
1968
नाम- जगजीवन
उम्र- 28 साल
इल्ज़ाम- भाभी का क़त्ल
जेल में काटे 37 साल
37 साल बाद...
2006
नाम-जगजीवन
उम्र 65 साल
फ़ैसला-सुप्रीम कोर्ट ने जगजीवन के केस पर संज्ञान लेकर उसे जेल से रिहा कर दिया.
2014
नाम-जगजीवन
उम्र-73 साल
ज़िंदा मगर ख़ामोश
बस एक इंसानी ग़लती के चलते जिंदगी के सबसे खूबसूरत 37 साल जेल की सलाखों ने निगल लिए. 37 साल बाद अदालत ने उस गलती को तो सुधार दिया मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. उम्र के साथ-साथ उसकी आवाज़ भी करीब-करीब खामोश हो चुकी है. क्या इस बूढ़े की वो उम्र, उम्र से जुड़ी वो तमाम खुशियां और उसकी वो आवाज कोई लौटा पाएगा?
हिंदुस्तान क्या दुनिया की किसी भी अदालत ने एक कत्ल के लिए किसी एक कातिल को इतनी बेरहम सजा नही दी होगी. 37 साल कैद बामशक्कत. जी हां पूरे 37 सालों तक वो बिना किसी सुनवाई, बिना किसी बहस बिना किसी फैसले के सलाखों के पीछे कैद रहा. जानते हैं क्यों? क्योंकि पुलिस और अदालत दोनों ही उसे जेल भेजने के बाद पूरे 37 साल तक उसपर मुकदमा चलाना ही भूल गए.
जगजीवन पिछले 37 सालों से बस सलाखों को घूरता रहा. इन 37 सालों में सलाखें तो वैसी ही रहीं मगर हां खुद इसकी ज़िंदगी को जंग लग गया. बस यूं समझ लीजिए कि जगजीवन की पूरी जिंदगी इन बेजान सलाखों ने निगल लीं. बाहर की दुनिया कैसी होती है? आजाद हिंदुस्तान का बदलता चेहरा क्या है? इंसानियत, मोहब्बत, रिश्तेदारी, जज्बात किस चिड़िया का नाम है ये इसको पता ही नहीं. पता हो भी तो कैसे? 37 बरस से जो इंसान गिरफ्त में हो वो आजादी और आजाद जिंदगी का मतलब कैसे जाने?
जगजीवन कैद में इसलिए था क्योंकि उस पर एक कत्ल का इल्जाम था. कत्ल अपनी भाभी का और ये कत्ल हुआ था 37 बरस पहले. यानी 1968 में. फैजाबाद के खंडासा इलाके में. बस इसी कत्ल के बाद जगजीवन की बदनसीबी का दौर शुरू हो गया. शुरुआती शक के आधार पर कत्ल के फौरन बाद खंडासा पुलिस ने जगजीवन को गिरफ्तार कर लिया और उसे जेल भेज दिया गया.
मगर जेल जाने के कुछ ही साल बाद जगजीवन की दिमागी हालत बिगड़ना शुरू हो गई लिहाजा जिला अदालत ने जगजीवन की मानसिक हालत को देखते हुए उसे बनारस के मानसिक असपताल भेज दिया. इस अदालती फरमान के साथ कि जेल प्रशासन और जिला पुलिस जगजीवन की दिमागी हालत के बारे में हर तीसरे महीने कोर्ट को अपनी रिपोर्ट देगी. मगर 37 सालों में एक बार भी ये रिपोर्ट कोर्ट के पास नहीं पहुंची. लिहाजा वक्त बीतने के साथ जेल प्रशासन और पुलिस के साथ साथ खुद अदालत भी जगजीवन को भूल गई.
जगजीवन की बदनसीबी का दूसरा पहलू
दूसरा पहलू तो पहले वाले से भी ज्यादा बेरहम है. पुलिस और जेल के अफसरों ने शुरु से ही जगजीवन के घरवालों को उसके बारे में गुमराह रखा. जब भी जगजीवन की पत्नी और बेटा उसकी खैरियत जानने जेल जाते उन्हें उससे मिलने नहीं दिया जाता. मिलने देते भी कैसे? जगजीवन को जेल से वाराणसी पागलखाने भेजने की बात खुद जेल अधिकारी तक जो भूल चुके थे. लिहाजा लंबे इंतजार के बाद जगजीवन के घरवालों ने ये सोच कर सब्र कर लिया कि शायद जगजीवन अब इस दुनिया में नहीं रहा.
उधर जगजीवन के घर वालों को जगजीवन का सुराग नहीं मिल रहा था और इधर जगजीवन उन्हें पागलों की तरह ढूंढ रहा था. वो सालों जेल से अपने घरवालों को खत लिखता रहा. पर वो खत कभी उसके घर तक पहुंचा ही नहीं. जगजीवन के ऐसे ही एक खत का मज़मून कुछ यूं था...
'किशन की मां सदा खुश रहो... हम यहां से कई पत्र तुम लोगों को लिखे लेकिन तुम लोगों तक नहीं पहुंचा. मेरा किसी से बतियाने का मन नहीं करता. इसलिए यहां हमको सब लोग पागल समझते हैं. हमको इन लोगों ने पागलखाने में डाल दिया है. तुम लोगों की बहुत याद आती है. तुम कैसी हो. घर का खर्चा कैसे चलता है. हमारा बेटा तो अब जवान हो गया होगा ना. कमाता भी होगा? इतने साल बीत गए अगर तुम लोगों को समय मिलता है तो हमको यहां से छुड़ा कर ले जाओ.'
भला हो अस्पताल प्रशासन का...
एक मुलजिम बिना सुनवाई के सजा काटता रहा और पुलिस के साथ-साथ जेल प्रशासन चैन कीं नींद सोता रहा. ये नींद शायद और भी लंबी होती लेकिन भला हो अस्पताल प्रशासन का जिसने जगजीवन की दिमागी हालत दुरुस्त होने की रिपोर्ट जेल अधिकारियों को दी. 37 बरस से अपने मुल्जिम को भूल चुकी अदलात और पुलिस प्रशासन को जब जगजीवन की रिपोर्ट मिली तो हड़कंप मच गया. मामला कानून के साथ खिलवाड़ का जो था. यू तों हर कातिल कत्ल के बाद सजा से बचने की हर कोशिश करता है लेकिन जगजीवन एक अनोखा कातिल था जो 37 बरस से सलाखों के पीछे बिना सुनवाई के बंद रहा और अपने लिए सजा का इंतजार करता रहा.
जगजीवन के मुकदमे से जुड़े तमाम कागजात गायब
रिपोर्ट मिलने के बाद घबराई पुलिस फाइलें खंगालने में जुट गई. पुलिस को 37 साल पुराना रिकार्ड तलाशाना था मगर जो लोग जगजीवन को भूल चुके थे भला उन्हे उसकी रिपोर्ट की कहां सुध होती? जगजीवन को कातिल बताने वाली तमाम रिपोर्ट थाने तो थाने अदालती फाइलों से भी नदारद थी.
परलोक सुधार चुके थे गवाह
जगजीवन के मुकदमे से जुड़े तमाम कागजात ना तो अदालत के पास थी और ना ही पुलिस के पास. अदालत के पास थी तो सिर्फ गवाहों की एक फेहरिस्त. वो फेहरिस्त जिसके जरिए अब मुकदमे की सुनवाई आगे बढ़ाने की कोशिश की जा रही थी. मगर कमाल देखिए कि फेहरिस्त के हिसाब से जिन गवाहों को गवाही के लिए बुलाया जाना था उनमें से भी इक्का दुक्का को छोड़कर सभी परलोक सुधार चुके थे. खैर सच्चाई सामने आने के बाद पुलिस और जेल प्रशासन ने केस के कागजात ढूंढने शुरू किए. पर केस के कागजात तो नहीं मिले अलबत्ता पुलिस को एक अदद कागज मिला जिसमें बस मकतूल का नाम पता दर्ज था.
...जब आजतक के लोकप्रिय कार्यक्रम जुर्म में जगजीवन की कहानी दिखाई गई
इस एक अकेले कागज के दम पर पुलिस और जेल प्रशासन ने 37 साल बाद जगजीवन पर मुकदमे की कार्रवाई फिर से शुरू करने का फैसला किया. इस फैसले की भनक 2006 में आजतक को लगी. इसी के बाद आजतक के लोकप्रिय कार्यक्रम जुर्म में जगजीवन की कहानी दिखाई गई. जगजीवन की ये तस्वीरें उसी वक्त शूट की गई थीं. इत्तेफाक से ये कार्यक्रम जगजीवन को जानने वाले कुछ लोगों ने भी देखा. तब उन्हें पहली बार पता चला कि जगजीवन मरा नहीं है बल्कि अब भी जिंदा है.
आजतक पर खबर देखने के बाद जगजीवन के घरवाले करीब 30 साल बाद पहली बार जगजीवन से मिले. बाद में ये खबर अखबारों की भी सुर्खियां बनीं. मगर कमाल देखिए कि पुलिस और जेल प्रशासन की तमाम लापरवाहियों के बावजूद जगजीवन को रिहाई नहीं मिली. भले ही तमाम कागजात गायब थे, गवाह मर चुके थे. जगजीवन की सच्चाई सामने आ चुकी थी फिर भी अदालत ने उसे जमानत पर रिहा करने से इंकार कर दिया. दलील दी गई कि वो कत्ल का मुल्जिम है और केस का फैसला आना बाकी है.
पर जगजीवन का सच सामने आने के बाद एक बहस शुरू हो गई. बहस ये कि अगर मान भी लिया जाए कि जगजीवन कातिल है और अदालत में उसका जुर्म साबित भी हो जाता तब भी शायद उसे एक उम्र कैद से ज्यादा सजा नहीं मिलती. लेकिन इस एक कत्ल के लिए जिसकी सुनवाई भी अभी शुरु नहीं हो पाई थी, जगजीवन 3 उम्रकैद के बराबर की सजा काट चुका है. क्या ये इंसाफ है?
आजतक की पहल के बाद अखबारों में भी अब मुद्दा गर्मा चुका था. जगजीवन के साथ हुई नाइंसाफी की बात सभी मान रहे थे. पर इंसाफ नहीं हो रहा था. जगजीवन के घर वाले ज़मानत के लिए 37 साल भी अदालत के चक्कर काट रहे थे.
सवाल ये था कि जिस जुर्म के लिए उसे शायद ज्यादा से ज्यादा उम्र कैद यानी 14 साल की सज़ा मिलती वो उससे तीन गुना ज्यादा सज़ा तो पहले ही काट चुका है. फिर उसके साथ इंसाफ कहां हुआ? यही सवाल लेकर जगजीवन के वकील देश की सबसे बडी अदालत सुप्रीम कोर्ट पहुंचे.
देश का कानून साफ कहता है कि हर मुजरिम को उसके जुर्म के लिए तय सज़ा ही मिलनी चाहिए. उससे कम या ज्यादा नहीं. लिहाज़ा सुप्रीम कोर्ट ने जगजीवन और उसके केस की कहानी सुनने के बाद सिर्फ इसी बिनाह पर उसकी रिहाई का फरमान जारी कर दिया. और इस तरह पूरे 37 साल बाद जगजीवन आजाद हो गया. पर कमाल देखिए कि जिस इलज़ाम में वो 37 साल तक जेल में बंद रहा. उस कत्ल का मुकदमा तब भी पूरा नहीं हुआ था.
37 साल बाद जब जगजीवन जेल से घर लौटा...
37 साल पहले जब जगजीवन जेल गया था तब उसका इकलौता बेटा केशव राम बस डेढ़ साल का था. 37 साल बाद जब जगजीवन जेल से घर लौटा तो केशव करीब 40 साल का हो चुका था। ना सिर्फ उसकी शादी हो चुकी थी बल्कि उसके पांच बच्चे भी हैं. पर जगजीवन का बेटे को बड़ा होता देख पाया और ना ही उसकी शादी में शामिल हो सका.
हालांकि जगजीवन को जेल से आजाद हुए अब आठ साल हो चुके हैं. जब वो जेल गया था तब 28 साल का था. जब रिहा हुआ तो 65 साल का और अब जगजीवन की उम्र 73 साल हो चुकी है. मगर 37 साल के उस नासूर ने जगजीवन कि दिलों-दिमाग पर ऐसा असर डाला कि जेल से बाहर आते ही वो खामोश हो गया. उसकी आवाज़ लगभग गुम सी हो गई है.
एक तरफ जेल के अंदर 37 साल तक जगजीवन सिस्टम की गलती का खामियाज़ा भुगत रहा था, तो दूसरी तरफ जेल के बाहर उसका परिवार हर गुजरते दिन के साथ बिखरता जा रहा था. इस दौरान घर में कितनी ही खुशियां और गम आए. पर जगजीवन के हिस्से में सिर्फ अकेलापन और मातम था. यही वजह है कि रिहाई के बाद भी 37 लंबे साल का वो अकेलापन आज भी जगजीवन की जिंदगी से दूर नहीं हो पाया है.
जेल की चारदीवारी ने ना सिर्फ जगजीवन की याददाश्त बल्कि उनके जज्बात तक को खत्म कर दिया है.