देश का राष्ट्रपति भले ही देश छोड़कर भाग चुका हो. देश की सेना भले ही बिना लड़े हथियार डाल चुकी हो. बेशक तालिबान देश की राजधानी काबुल पर कब्जा जमा चुका हो. लेकिन तालिबान फिर भी अफगानिस्तान को पूरी तरह से जीत नहीं पाया है. नॉर्दन अलाइंस और तालिबान के बीच पंजशीर में अभी भी जबरदस्त लड़ाई जारी है. खबर ये है कि वहां 300 तालिबान लड़ाकों को मार गिराया गया है या बंधक बना लिया गया है. पंजशीर के नेताओं का कहना है कि वो तालिबान के सामने हथियार नहीं डालेंगे और ये जंग जारी रहेगी.
एक तरफ पंजशीर के शेर का बेटा अहमद मसूद, पुराने वॉर लॉर्ड अब्दुल रशीद दोस्तम, पूर्व उप राष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह और मिलशिया नेता अता मोहम्मद नूर हैं. और दूसरी तरफ आतंकी संगठन तालिबान, पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई, राष्ट्रपति अशरफ गनी के भाई हशमत गनी अहमदज़ई और तालिबान का नया दोस्त पूर्व गवर्नर गुल आग़ा शेरजई है. ये आग अभी बुझती नज़र नहीं आती. तालिबान है कि किसी भी क़ीमत पर पंजशीर पर कब्ज़ा करना चाहता है और नॉर्दन अलायंस है कि उसने दो टूक कह दिया है कि पंजशीर को किसी भी सूरत में तालिबान के हाथों में नहीं जाने देंगे, चाहे इसके लिए कोई भी क़ीमत क्यों ना चुकानी पड़े? और जानते हैं आमने-सामने की इस लड़ाई में क्या हुआ? पंजशीर के शेरों के वार से एक ही झटके में 300 तालिबानी आतंकी ढेर हो गए. जी हां, 300 तालिबानी आतंकी.
असल में पंजशीर को अपने कब्ज़े में लेने के लिए तालिबान के लड़ाके बगलान सूबे के अंद्राब घाटी से आगे बढ़ रहे थे, लेकिन पंजशीर के जांबाज़ों ने घात लगा कर इन तालिबानियों पर भयानक हमला बोला और इस हमले से ना सिर्फ़ सैकड़ों तालिबानियों की जान चली गई, बल्कि नॉर्दन अलायंस के फ़ौजियों ने बहुत से तालिबानियों को बंधक भी बना लिया. हाल के दिनों में तालिबानियों को अफ़गानिस्तान में मिली ये सबसे करारी शिकस्त है. तालिबानियों को मिला ये ज़ख्म भी मानों कम था कि अफग़ानिस्तान के उपराष्ट्रपति रहे अमरुल्लाह सालेह ने इस हमले पर एक ट्विट मानों जले पर नमक छिड़क दिया. सालेह ने लिखा "जब से तालिबानियों पर बड़ा हमला किया गया है, उनके लिए एक पीस में जिंदा वापस जाना भी एक चुनौती थी. अब तालिबान ने पंजशीर में अपने लड़ाकों की संख्या बढ़ा दी है."
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ज़ाहिर है हथियार और लड़ाकों के मामले में पंजशीर से जंगझू बेशक तालिबान से 19 साबित हों, लेकिन हौसलों के मामले में तालिबान उनके आस-पास भी नहीं टिकता. ये पंजशीर के जांबाज़ों के हौसले का ही असर है कि उन्होंने उत्तरी बगलान के तीन ज़िलों पुल-ए-हिसार, देह सालाह और बानू से भी तालिबान को खदेड़ दिया था, लेकिन तालिबान ने बाद में फिर से बानू पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया. जबकि बाकी के दो ज़िलों के लिए तालिबान और पंजशीर यानी नॉर्दन अलायंस के बीच जंग अब भी जारी है. वैसे तो इस लड़ाई में तालिबान के खिलाफ़ भी कई बड़े चेहरे मैदान-ए-जंग में हैं, लेकिन पंजशीर के शेर कहे जानेवाले अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद ने तालिबान के खिलाफ़ नॉर्दन अलायंस का झंडा बुलंद कर रखा है. मसूद ने कहा है कि वो तालिबान से बातचीत के लिए तैयार हैं, लेकिन अगर कहीं तालिबान ने बंदूक के ज़ोर पर पंजशीर को झुकाने की कोशिश की, तो उसे इस हिमाकत का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा. आइए तालिबान और नॉर्दन अलांयस के इस टक्कर के बीच एक नज़र उन शख्सियतों और किरदारों पर डालते हैं, जिनके इर्द गिर्द शह और मात की ये पूरी बाज़ी खेली जा रही है.
अहमद मसूद बनाम तालिबान
इस कड़ी में बात सबसे पहले 32 साल के उस शख्स की, जिसने अपनी ज़िंदगी और कुनबे पर खतरे के बावजूद अपने पिता का नाम धुंधला नहीं पड़ने दिया. जी हां, अहमद मसूद के पिता अहमद शाह मसूद की गिनती कभी पंजशीर के सबसे बड़े वार लॉर्ड के तौर पर होती थी, जिन्होंने अपने जीते जी कभी तालिबान को पंजशीर के पास भी फटकने नहीं दिया. यहां तक कि जब पिछली बार तालिबान अफ़गानिस्तान पर काबिज था, तब भी वो पंजशीर को नहीं जीत सका. लेकिन इसी अहमद शाह मसूद की जब अल कायदा के आतंकियों ने धोखे से जान ले ली, तो उनके बेटे अहमद मसूद ना सिर्फ़ अपने पिता की विरासत संभाली, बल्कि तालिबान समेत हर उस आतंकी गुट से टकराते रहे, जिन्होंने कभी पंजशीर या नॉर्दन अलायंस को चुनौती देने की कोशिश की. गौरतलब है कि तालिबान के पास जहां इस वक़्त 70 से 80 हज़ार लडाके हैं, वहीं पंजशीर के अमहद मसूद के पास महज़ 6000. इसके बावजूद वो आतंकियों की आंखों में आंखें डाल कर देखने का जिगर रखते हैं.
अब्दुल रशीद दोस्तम बनाम हामिद करज़ई
एक तरफ पूर्व उप राष्ट्रपति तो दूसरी तरफ़ पूर्व राष्ट्रपति साल 2014 से 2020 तक अफगानिस्तान के उपराष्ट्रपति रह चुके 67 साल के अब्दुल रशीद दोस्तम को उनकी जंगी सलाहियत की वजह से ही मज़ार-ए-शरीफ़ का बूढ़ा शेर भी कहा जाता है. ये दोस्तम ही थे, जिन्होंने 9/11 के हमले के बाद अफगानिस्तान में तालिबानी सरकार को गिराने में अमेरिकी सेना की काफी मदद की थी. ऐसे में दोस्तम को तालिबान के तमाम दुश्मनों का साथ मिलता रहा. खबरों के मुताबिक अफगानिस्तान में एक बार फिर तालिबान के क़ाबिज़ होने के बाद उन्होंने पंजशीर के अहमद मसूद और अमरुल्लाह सालेह को अपना फुल सपोर्ट देने का ऐलान कर दिया है.
फिलहाल पंजशीर में तालिबान से टकराने के लिए 10 हज़ार की फ़ौज इकट्ठी है और इनमें दोस्तम की फौजें भी शामिल हैं. लेकिन एक तरफ़ अगर दोस्तम जैसी शख्सियत हैं, तो दूसरी तरफ़ जम्हूरियत की बदौलत ही अफगानिस्तान पर राज कर चुके वो सियासतदान जिनका क़द इस मुल्क में बेशक काफी बड़ा है, लेकिन जो अब आतंकी तालिबान के पाले में नज़र आ रहे हैं. अफ़ागानिस्तान पर कब्जा करनेवाले तालिबान ने नई सरकार बनाने से पहले ना सिर्फ़ हामिद करज़ई को दावत दी, बल्कि उनके साथ कई दौर की बातचीत भी हुई. फिलहाल, नई सरकार में उनकी भूमिका क्या होगी, ये तो साफ नहीं है. लेकिन जिस तरह से वो तालिबान के साथ काम करते हुए नज़र आ रहे हैं, वो दुनिया को हैरान ज़रूर कर रहा है.
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अमरुल्लाह सालेह बनाम गुल आगा शेरज़ई
तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्ज़े से पहले अशरफ़ गनी की सरकार में अमरुल्लाह सालेह ही देश के उप राष्ट्रपति हुआ करते थे. लेकिन तालिबान के सत्ता पर आने के साथ ही उनकी कुर्सी भी जाती रही. ये और बात है कि बाद में उन्होंने खुद को देश का राष्ट्रपति घोषित कर उसी पंजशीर में शरण ली, जिसे तालिबान के विरोध का गढ़ माना जाता है और अब यहां से वो लगातार तालिबान को चुनौती दे रहे हैं. लेकिन इस जंग में जहां एक तरफ़ सालेह जैसे लोग हैं, तो दूसरी तरफ अफगानिस्तान के पूर्व गवर्नर और कभी तालिबान के दुश्मन रहे गुल आगा शेरज़ई जैसे लोग, जिन्होंने मौसम का मिज़ाज भांप कर तालिबान से हाथ मिला लिया है. गुल आगा शेरज़ई को कभी अफ़गानिस्तान का बुल्डोज़र तो कभी तालिबान का कसाई के नाम से जाना जाता था.
लेकिन खबरों के मुताबिक शेरजई ने तालिबान की सरपरस्ती कबूल कर ली है. अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार में कंधार और नंगरहार के गवर्नर रह चुके शेरजई के बारे में कहा जा रहा है कि उन्होंने तालिबान के कई वरिष्ठ नेताओं के सामने उनकी वफादारी की कसम खाई है. तालिबान ने भी उन्हें नई सरकार में मलाईदार ओहदे का भरोसा दिया है. गुल आगा शेरजई को अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई का खास माना जाता था. लेकिन पिछली बार जब तालिबान सत्ता पर काबिज हुआ तो वो कहीं गायब हो गए. बाद में उन्होंने तालिबान के खिलाफ़ जंग में अमेरिका का भी साथ दिया. लेकिन अब एक बार फिर से हालात बदल चुके हैं और शेरजई तालिबान के पाले में खड़े दिख रहे हैं.
अता मोहम्मद नूर बनाम हशमत गनी अहमदज़ई
अफगानिस्तान के कल और आज में अता मोहम्मद नूर की अपनी अलग ही जगह है. 1979 में जब सोवियत रूस ने अफगानिस्तान पर हमला किया तो अता मोहम्मद नूर ने रूसी सेना के खिलाफ लोगों को तैयार किया. वो सोवियत के खिलाफ बने जमीयत-ए-इस्लामी के कमांडर चुने गए. जब 1996 में तालिबान ने सत्ता संभाली तो उन्होंने अहमद शाह मसूद के साथ मिलकर तालिबान के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा खोला और अब एक बार फिर वो अहमद मसूद के साथ मिल कर ही तालिबन के खात्मे की क़सम खा चुके हैं. 57 साल के अता मोहम्मद नूर 2004 से जनवरी 2018 तक बल्ख प्रांत के गवर्नर रहे हैं. अभी बल्ख पर तालिबान के कब्जे के बाद से फिलहाल वो गायब हैं, लेकिन आमने-सामने की इस लड़ाई में वो तालिबान के खिलाफ़ चट्टानी मज़बूती के साथ खड़े हैं और पंजशीर से शुरू हुए तालिबान विरोधी मोर्चा में उनका भी अहम रोल है.
लेकिन तालिबान के आते ही देश छोड़ कर भागनेवाले राष्ट्रपति अशरफ गनी के भाई हशमत गनी अहमदज़ई का तालिबान के पाले में चला जाना इस कहानी का एक बड़ा ट्विस्ट है. कुचिस की ग्रैंड काउंसिल के मुखिया हशमत गनी अहमदजई ने तालिबान नेता खलील-उर-रहमान और धार्मिक विद्वान मुफ्ती महमूद जाकिर की मौजूदगी में तालिबान को अपने समर्थन का ऐलान कर लोगों को चौंका दिया है. समझा जाता है कि हशमत गनी का साथ मिलने से तालिबान की ताकत और बढ़ सकती है क्योंकि हशमत अफगानिस्तान के प्रभावशाली नेताओं में एक है और वो वज़ीर कबीले की देखरेख करते हैं, जो सबसे बड़ी पश्तून जनजातियों में से एक है. लेकिन अहमदज़ई का सत्ता बदलते ही तालिबान से जा मिलना हर किसी को हैरान ज़रूर कर रहा है.