तालिबान याद है ना आपको? वही जिसने बगदादी से पहले अफगानिस्तान और पाकिस्तन में मौत के नए-नए तरीके ईजाद किए थे. मानव बमों की झड़ी लगा दी थी. वही तालिबान जिसने फिलहाल आधे से ज्यादा अफगानिस्तान पर कब्जा किया हुआ है. क्या उसी तालिबान से हिंदुस्तान बात भी कर सकता है? वो भी एक ही टेबल पर? तो आप मानें या ना मानें. पर सच्चाई यही है कि पहली बार भारत और तालिबान एक ही बैठक में आमने-सामने होंगे. एक ऐसी बैठक जो हिंदुस्तान और तालिबान की सरमज़मीं यानी पाकिस्तान या अफ़गानिस्तान से दूर एक तीसरे मुल्क रूस में हो रही है. क्या है इस बैठक के मायने? क्यों हो रही है ये बातचीत? क्या है इस मीटिंग का एजेंडा? और भारत इस बैठक में शामिल हो रहा है.
कब का हाशिये पर जा चुका तालिबान एक बार फिर अचानक सुर्खियों में आ गया है. इस बार तालिबान के फिर से सुर्खियों में आने की वजह कोई और नहीं बल्कि भारत है. तालिबान भारत के साथ बातचीत करने जा रहा है. जी हां, ये खबर ज़रा चौंका सकती है. ख़ासकर इसलिए क्योंकि अव्वल तो हिंदुस्तान किसी भी आतंकवादी संगठन के साथ बातचीत का कभी हिमायती नहीं रहा और दूसरा इसलिए कि सीधे तौर पर तालिबान से हिंदुस्तान का कोई लेना-देना भी नहीं है. ऐसे में सवाल ये है कि आख़िर तालिबान और भारत की ये मुलाक़ात कहां और किस मकसद से हो रही है. तो इसका जवाब है अफगानिस्तान में शांति कायम करने की रूसी कोशिशों के तहत ये मुलाकात हो रही है.
दरअसल, रूस अपनी राजधानी मॉस्को में अफगानिस्तान में शांति के मसले पर बातचीत की मेज़बानी कर रहा है. और इस बातचीत में शामिल होने के लिए उसने अफगानिस्तान, भारत, ईरान, चीन, पाकिस्तान, अमेरिका, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान जैसे कई मुल्कों को दावत दी है. लेकिन इसके साथ-साथ एक दावतनामा अफगान तालिबान के नाम भी है. भारत अगर इस दावतनामा को कुबूल कर लेता है तो अफ़गान तालिबान के साथ पहली बार भारत मंच साझा करेगा.
हालांकि भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा है "अफगानिस्तान के मुद्दे पर इस बैठक में भारत अनऑफिशियल यानी गैर-आधिकारिक तौर पर हिस्सा ले रहा है. इसके लिए दो रिटायर्ड ऑफिसर्स अफगानिस्तान में राजदूत रहे अमर सिन्हा और पाकिस्तान में उच्चायुक्त रहे टीसीए राघवन को चुना गया है. भारत की हमेशा से यही नीति रही है कि ऐसी कोशिश अफगानिस्तान की अगुआई में और अफगान सरकार के सहयोग से ही होने चाहिए."
हालांकि ख़ास बात ये है कि अफ़गानिस्तान ने पहले इस बातचीत में शामिल होने से इनकार कर दिया था. मगर बाद में अफगानिस्तान इस बातचीत के लिए राज़ी हो गया है. मगर खास बात ये है कि इस बातचीत में अफगानिस्तान के साथ साथ तालिबान भी शामिल होगा. क्योंकि मौजूदा अफ्गानिस्तान की हकीकत ये है कि वहां आधे से ज़्यादा हिस्से पर तालिबान का कब्ज़ा है और ऐसे में उसे इस बातचीत में शामिल करना रूस की मजबूरी है. शायद इसी को देखते हुए बातचीत में तालिबान के शामिल होने के बावजूद भारत इसमें शिरकत को तैयार हो गया.
अब सवाल ये कि आखिर तालिबान इतना मज़बूत कैसे हो गया कि उसे दुनिया के बाकी देशों की तरह अपने मुल्क का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला. तो इसके लिए तारीख के उन पन्नों को पलटना होगा, जब इस आतंकी संगठन का जन्म हुआ. दरअसल, तालिबान उस शय का नाम है जो आज तक कोई भी जंग नहीं हारा. उसका दुश्मन जब-जब उस पर हावी हुआ. उसने बेहद चालाकी से अपने कदम पीछे खींचे. खुद को मजबूत किया. दुश्मन के लापरवाह होते ही उस पर दोबारा वार कर दिया. इतिहास गवाह है कि अपनी इसी रणनीति के चलते उसके खिलाफ हर फौजी मुहिम ने तालिबान को और मजबूत, ज्यादा खूंखार और पहले से कहीं ज्यादा खतरनाक बनाया है.
तालिबान की शुरुआत हुई अफगानिस्तान पर कब्जे की लड़ाई से. मुल्ला उमर की सरपरस्ती में तालिबान ने 1994 के आखिर में ये जंग शुरु की थी. इस दौरान दक्षिणी अफगानिस्तान में उसे स्थानीय कबीलाइयों के जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा. मगर तालिबान ने हार नहीं मानी और सितंबर 2006 में अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया. तालिबान की इस हुकूमत को 1997 में मिलट्री कमांडर अहमद शाह मसूद ने ललकारा. लेकिन अगले ही साल तालिबान दोगुनी ताकत के साथ उभरा और हजारों लड़ाकों और आम लोगों का कत्ल कर उसने दोबारा अफगानिस्तान पर कब्जा जमा लिया.
तालिबान के खूनी सफर की ये महज शुरुआत भर थी. क्योंकि इसके बाद तालिबान दीमक की तरह धीरे धीरे पूरे अफगानिस्तान में फैल गया और नौबत यहां तक आ गई कि 2001 के आखिर तक अफगानिस्तान के 90 फीसदी हिस्से पर तालिबान का ही राज चलता था.
तालिबान के इस एकक्षत्र राज को 2001 के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हमलों के बाद अमेरिका और साझा फौज ने एक एतिहासिक चुनौती दी. पूरे अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ चले इस घमासान के बाद तालिबान से सत्ता छीन कर अमेरिका ने अपनी निगरानी में अफगानिस्तान में नॉर्दर्न अलायंस की सरकार बनवा दी. मगर बरसों चली इस लड़ाई के बावजूद अफगानिस्तान को तालिबान के पंजे से वो आज तक आजाद नहीं करवा पाया. अपनी फितरत के चलते 2004 में तालिबान एक बार फिर अफगानिस्तान में लौटा और तबसे अब तक रह-रह कर अमेरिका और साझा सेनाओं पर हमले कर रहा है.
तालिबान ने कमोबेश यही तरीका पाकिस्तान में भी अपनाया. 2006 से लेकर अब तक तालिबान के खिलाफ पाकिस्तानी फौज दर्जनों मोर्चों पर जंग लड़ चुकी है. तालिबान ने कई बार अपने कदम पीछे भी खींचे हैं. मगर जैसे ही पाक फौज उसको हारा समझ वापस लौटी. तालिबान एक बार फिर दोगुनी ताकत से लौट कर आया है. यानी कभी समझौते से, कभी मान मुनव्वल से, कभी शरिया और इस्लाम का हवाला देकर तो कभी आवाम के नाम पर तालिबान अपने पांव जमाने के लिये हर मुमकिन तरकीब अपनाता रहा है.