अमेरिका के मिनेपॉलिस में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की निर्मम हत्या के बाद वहां पुलिस और सरकार विरोधी आंदोलन तेज होते जा रहे हैं. पुलिस के हाथों मरने से पहले जॉर्ज फ्लॉयड के आखिरी लफ्ज़ थे आई कान्ट ब्रीद. मरने से पहले के आखिरी पांच मिनटों में जॉर्ज ने 6 बार इसी लाइन को दोहराया था. आई कान्ट ब्रीद. यानी मैं सांस नहीं ले पा रहा. मगर वहां मौजूद किसी भी पुलिस अधिकारी को उस पर रहम नहीं आया. और अब जार्ज के वही आखिरी शब्द 'आई कान्ट ब्रीद' अमेरिकी आंदोलन का नारा बन गए हैं.
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अमेरिका में सरकार के खिलाफ विद्रोह का ये नया नारा है आई कान्ट ब्रीद. अपनी ज़ुबान में कहें तो मैं सांस नहीं ले सकता. पूरे अमेरिका में जहां-जहां प्रदर्शन हो रहे हैं, वहां ज़्यादातर लोग आई कान्ट ब्रीद का पोस्टर लेकर सड़कों पर हैं. सिर्फ अश्वेत नहीं बल्कि उनके लिए बराबरी के बर्ताव की मांग करने वाले श्वेत अमेरिकी भी. सब मिलकर एक यही नारा लगा रहे हैं.
इस आई कान्ट ब्रीद के कई मायने हैं. पहली बात तो ये कि ये जॉर्ज फ्लॉयड की मौत से पहले उनके आखिरी लफ्ज़ थे. दूसरा मतलब ये है कि इस पोस्टर के ज़रिए वहां के अल्पसंख्यक सरकार को ये बताना चाहते हैं कि उनकी नीतियों की वजह से वो खुलकर सांस नहीं ले पा रहे हैं. और श्वेत अमेरिकियों की तरह बेफिक्री से जी नहीं सकते हैं. हालांकि पुलिसिया अत्याचार अमेरिका में बिलकुल भी नया मामला नहीं है. अक्सर अश्वेतों के खिलाफ ऐसे मामले सामने आते रहते हैं. मगर इन लोगों के दिलों में पल रहे ज्वालामुखी को इस वीडियो ने विस्फोट कर के बाहर निकाल दिया.
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अमेरिका में ये दंगे ऐसे वक्त में है. जब कोरोना ने वहां पहले से ही कहर मचा रखा है. अब सवाल ये है कि आखिर मिनेपॉलिस ही इन दंगों का केंद्र क्यों बना. तो दरअसल इस शहर की कुल आबादी यानी 3 लाख 80 हज़ार लोगों में करीब 19 फीसदी अश्वेत हैं. मुद्दा ये है कि मिनेपॉलिस में काम करने वाले श्वेत लोग अश्वेतों के मुकाबले दोगुना कमाते हैं. वजह ये है कि पूरे अमेरिका में और खासकर मिनेपॉलिस के लोगों में ऊंच नीच की भावना बहुत गहरी बैठी हुई है. इसलिए ना तो अश्वेतों को ज़्यादा काम मिलता है और ना ही पैसा. लिहाज़ा ये गुस्सा तो फूटना ही था.