एक-एक कसबे को बसाने और संवारने में सदियां लग जाती हैं, पर उजड़ने में सिर्फ चंद मिनट. आसमान से आई आफत फकत चंद मिनट की थी, पर उस आफत से उबरने में उत्तराखंड को बरसों लग जाएंगे. बादल में लिपट कर आई पहाड़ी सुनामी ने उत्तराखंड के कई इलाकों के नामो-निशान तक मिटा दिए हैं. पर क्या ये आफत सचमुच आसमानी थी? यह कहर वाकई आसामन से टूटा था? या फिर इसकी बुनियाद जमीन पर पड़ी थी?
कहते हैं कि कुदरत कभी भी किसी को परेशान नहीं करती, लेकिन ये बस तब तक सही है जब तक आप उसे छेड़ें नहीं. उत्तराखंड के दामन में ख़ौफ के जो मंजर इधर-उधर बिखरे पड़े हैं वो दरअसल सालों से क़ुदरत के साथ की जा रही लागातार छेड़छाड़ का नतीजा हैं. कोई खामोश रहे और कुछ न कहे तो इसका मतलब ये नहीं कि वो कमजोर है. मगर हवस के ठेकेदारों को ये कहां पता था. लेकिन मान लीजिये कि अगर उन्हें इसका पता भी होता तो शायद वो इसे जाहिर नहीं करते, क्योंकि लालच उन्हें ऐसा करने नहीं देता.
कुल मिलाकर उत्तराखंड में क़ुदरत ने एक हफ्ते में जो कुछ किया वो पिछले करीब तीस सालों की इंसानी लापरवाहियों का नतीजा हैं. लेकिन ये लापरवाहियां इतनी बड़ी कीमत अदा करेंगी, शायद इन लालच के कारोबारियों को इसका जरा भी इल्म नहीं था. वरना शायद, लेकिन अब शायद शब्द का कोई मतलब नहीं रह गया है. अब तो बस जहां तक नजर जाती है बस तबाही के दीदार होते हैं.
देखते ही देखते सब कुछ उजड़ गया. दर्द की, ख़ौफ की, बेचारगी की इतनी कहानियां एक साथ और हर कहानी आंसुओं के न थमने वाले सैलाब के साथ है. जितने इस तबाही में मर गये हैं उससे ज्यादा वो हैं जिनकी हालत मरने से भी बदतर है. कुछ के पास फटे पुराने ख्वाब बच गये हैं तो न जाने कितने ऐसे हैं जिनके पास कोई ख्वाब भी नहीं है. जिंदगी का शीशा अचानक टूटा है, टुकड़े चारों तरफ बिखरे पड़े हैं. हर टुकड़ा तन्हाई की अपनी दास्तान बनकर रह गया है.
सदियों से कुदरत ने जब-जब अपना तेवर बदला तो तबाही के ऐसे निशान छोड़े कि एक पल में इंसान और इंसानी बस्तियों को मिटा गए. क़ुदरत के कहर ने कई-कई बार अनगिनत जिंन्दगियों को हमेशा के लिये खामोश कर दिया. मासूम और बेगुनाह क़ुदरती कहर के आगे बेबस और लाचार नजर आए. क़ुदरत हर बार बेधड़क क़हर बरपाती रही और इंसानियत उजड़ती रही. क्योंकि क़ुदरत की ताकत पर इंसान या इंसानी कानून का बस नहीं चलता.
मार्च 2011 में जापान में पहले भूकंप और फिर आधा घंटे बाद आई सुनामी ने पूरे के पूरे कस्बे को खत्म कर दिया. लोगों ने अपनी आंखों से शहर को उजड़ते देखा. और तबाही के इस मंजर को अपने कैमरे में कैद किया. पर इतनी बड़ी तबाही के बावजूद, शहर और कस्बे के पूरी तरह उजड़ जाने के बाद भी जापान की इस सुनामी में मरने वालों की तादाद कम थी. जो तबाही हुई थी उसके हिसाब से लाखों मौत होनी चाहिए थी. पर ऐसा नहीं हुआ. फिर उत्तराखंड में मौत का इतना बडा तांडव क्यों? इतनी बर्बादी क्यों? क्या ये सिर्फ बादल फटने का नतीजा है? सैलाब का कुसूर? या फिर सच कुछ और है? एक ऐसा सच जो सबको पता है पर जिससे सबने आंखें मूंद रखी हैं.
अचानक गर्मी से तपते देश में मानसून ने इस बार 13 दिन पहले ही दस्तक दे दी थी. राहत की ये बारिश देखते ही देखते आफत में बदल गई. उत्तराखंड के दामन में बहने वाली अलकनंदा की सभी सहेलियां भागीरथी, धौली, पिंडर, मंदाकिनी, विष्णुगंगा ने अचानक उस इंसान को चुनौती देने की ठान ली जो घमंडी हो चुका है. जिसे लगता है कि कुदरत के दिन और रात भी उसकी बनाई सरकारों के गुलाम हैं. मौसम उसके ही अध्यादेशों का पालन करते हैं. सूरज, चांद, बादल, हवाएं सब आगे बढ़ने से पहले प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, चीफ इंजीनियर और सरकारी बाबू से इजाजत लेकर और बेलगाम ठेकेदारों को कुछ खिला-पिलाकर आगे बढ़ते हैं. पर इस बार अचानक इन नदियों ने फैसला कर लिया कि वह तरक्की के नाम पर की जा रही इस गैरकानूनी छेड़छाड़ से अपनी जमीन को पाक करेंगे.
और फिर कुदरत ने अपना दामन साफ करना शुरू किया. केदारनाथ के मुख्य हिस्से जिसमें सदियों पुराना गुंबद भी है को छोड़कर सारा कचरा साफ कर दिया. गौरीकुंड कस्बे का बड़ा हिस्सा और रामबाड़ा जहां बेतरतीब मानव निर्मित भवन और बाजार बढ़ गये थे का नामो निशान मिटा दिया. यही हाल सोनप्रयाग, चंद्रीपुर और बद्रीनाथ का हुआ। उफनती नदियों के इस तांडव ने उत्तराखंड, हिमाचल, उत्तरप्रदेश के कई हिस्सों को जलमग्न कर दिया जिसमें सैकड़ों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. विकास के नाम पर जिस तरह जिंदगी देने वाली इन नदियों को बांधा जा रहा है, जिस तरह इन पहाड़ों में, जिनसे लिपटकर ये नदियां मैदान पर उतरती हैं, इन भीगीरथी जटाओं में, सेंध लगाकर अनगिनत सुरंगे खोदी जा रही हैं, उनके खिलाफ कुदरत का ये गुस्सा भी है और चेतावनी भी.
कुल मिलाकर लापरवाह सरकारी और सामाजिक दोहन पर कुदरत का जोरदार तमाचा है ये. उत्तराखंड के इन इलाकों में 1991 और 1998 में भूकंप भी आए थे लेकिन इतनी भारी तबाही तब भी नहीं हुई थी. पिछले लगभग तीस सालों में, खासकर जबसे उत्तराखंड राज्य बना है, विकास और पर्यटन के नाम पर हर तरह की दुकानें खुल गई हैं. मनमाने तरीके से यहां जमीन की खरीद-फ़रोख्त हो रही है. अंधाधुंध खुदाई चल रही है. बिजली के नाम पर जगह-जगह डैम बनाकर नदियों को बांधा जा रहा है. विकास के लिए टिहरी जैसी प्राचीन बस्तियों की आहुति ले ली गई. नतीजा सामने है, यानी कहर आसमानी जरूर था पर बुनियाद इंसानों ने ही रखी.
कुदरत के गुस्से की कीमत इंसान को इस कदर चुकानी पड़ेगी, ये किसी ने नहीं सोचा था। लेकिन उत्तराखंड में हुई तबाही की बारिश के बाद अब पीछे कुछ बचा है, तो वो है सिर्फ मौत है. नामालूम हंसते-खेलते कितने इंसान, लाशों के ढेर में तब्दील हो चुके हैं. और अब बाढ़ और बारिश के बाद वादियों की खामोशियां, इंसानी चीखों से टूट रही है. आसमानी सैलाब के बाद अब आंखों से सैलाब फूट रहा है.
ये तबाही, ये बर्बादी, ये कोहराम, ये मातम, ये चीख-पुकार, ये आंसू, ये बेबसी और मौत का ये मंजर. और फिर उसी मौत के गुजर जाने के बाद जिंदा रहने के लिए जिंदगी से जंग की जद्दोजहद जारी है. जमीन इंसानों ने तैयार की. आफत आसमान ने बरसाई. वो आफत जिसके आते ही नदियां बेलगाम हो गईं. वो आफत जिसके असर से नदी-घर-नाले, पहाड़, सड़क सभी ने अपनी बसी-बसाई जगह छोड़ दी. वो आफत जिसके आगे खुद आसमान खामोश तमाशाई बना रहा.
घरौंदे जब ताश के पत्तों की तरह ढहने लगते हैं और जब इलाके के इलाके श्मशान में तब्दील हो जाते हैं. मंजिलों तक पहुंचाने वाले रास्ते जब खुद ही मिट जाते हैं तब सिर्फ एक ही मंजर बचता है. तबाही का मंजर, दर्द का मंज़र, बेचारगी-बेबसी का मंजर. पूछिए इनसे क्या बीती जब इनके सामने इनके अपने बह गए, पूछिए इनसे क्या बीतती है जब लाशों के बीच बैठकर जिंदगी ढूंढी जाती है.
उत्तराखंड की इस तबाही से बच कर निकले हर शख्स की अपनी एक अलग ही कहानी है. लेकिन इस कहानी में जो एक बात कॉमन है, वो है कुदरत के कहर के सामने इंसान की बेबसी.
किसी बदकिस्मत की खुशकिस्मती ये है कि वो बच गई या बच गया. बच गई उस आफत से जिसमें हजारों बह गये. तो किसी ख़ुशक़िस्मत की बदकिस्मती ये है कि वो अपनों को नहीं बचा पाया. ज़रा सोचिये कि आप उसे क्या नाम देंगे जिसके साथ ये दोनों चीजें हुई हों. दर्द भरी खुशी की ये अजीब दास्तान है जो मौत और ज़िंदगी दोनों से एक साथ रू-ब-रू है. और ये दास्तान हर उस इंसान की है जो अपनी झोली खुशियों से भरने चार धाम की यात्रा पर देवभूमि के लिए निकला था.
कैसा सैलाब था ये. जिसने सबकुछ पानी-पानी कर दिया और कैसा सैलाब था ये जो ना मालूम कितने ही लोगों को प्यासा मार गया. इस सैलाब का पानी तो एक रोज उतर जाएगा. पर उन आंखों का क्या जो अब जब भी रोएंगी सैलाब के आंसू ही रोएंगी. अफसोस इलजाम हम ऊपर वाले के क़हर पर लगा रहे हैं. जबकि इस कहर के जिम्मेदार हम ही हैं. हम इंसान.