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पुलिस और कानून के बीच बड़ा गहरा रिश्ता होता है. पुलिस मुजरिमों को पकड़ती है और कानून उन्हें सजा देता है. जब ये रिश्ता इतना गहरा है तो क्या ये मुमकिन है कि किसी राज्य का डीजीपी अपनी हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को ना जानता हो या उनकी आवाज़ ना पहचानता हो. या उनका सरकारी मोबाइल नंबर उन्हें मालूम ना हो. अब ऐसे में एक दागी आईपीएस को क्लीन चिट देने के मामले में बिहार के डीजीपी पर सवाल उठ रहे हैं क्योंकि किसी ने उन्हें चीफ जस्टिस बनकर झांसा दे दिया.
एक अप्रैल 2016
यही वो तारीख थी, जब नीतीश कुमार सरकार ने बिहार में शराबबंदी लागू की थी. ये जानते हुए भी कि इससे राज्य सरकार का खज़ाना 4 हजार करोड़ रुपए कम हो जाएगा. लेकिन औसतन एक साल में करीब 14 लाख लीटर शराब पीने वाले लोग भला बिना शराब के कैसे रह सकते थे. लिहाज़ा शराबबंदी के बाद भी बिहार से जब-तब शराब की खरीद-फरोख्त की खबरें आती रहीं. पिछले छह सालों में शराब बंदी का कानून तोड़ने वाले करीब चार लाख लोगों पर मुकदमा भी दर्ज हुआ और वो जेल भी गए. अब भी इस चक्कर में हजारों जेल में हैं.
कानून और सिस्टम पर सवाल
मगर कमबख्त इस शराब का नशा शराबियों के साथ-साथ बिहार के इज्ज़तदार आली जनाब अफसरों के सर चढ़ कर भी नाचेगा ये खुद नीतीश बाबू ने भी नहीं सोचा होगा. इस नशे ने ऐसा गुल खिलाया है कि फिलहाल बिहार ही नहीं बल्कि पूरे देश में मुस्कुरा-मुस्कुरा कर लोग इसके मजे ले रहे हैं. हालांकि बात मुस्कुराने की कतई नहीं है. ये एक बेहद गंभीर मुद्दा है वो इसलिए क्योंकि इस नशे के चक्कर में तमाम कानून और सिस्टम पर ही लोग सवाल उठाने लगे हैं. तो कहानी से पहले सवाल से ही शुरूआत करते हैं.
सवालों पर सवाल
- क्या किसी एफ़आईआर या मुकदमे को किसी की सिफ़ारिश पर एक राज्य का डीजीपी ख़ुद ही खत्म या निरस्त कर सकता है?
- क्या किसी भ्रष्टाचार के दोषी को बिना जांच के कोई डीजीपी खुद ही क्लीन चिट दे सकता है?
- एक राज्य के डीजीपी को उसी राज्य के चीफ जस्टिस का सरकारी फोन नंबर ना मालूम हो ये कैसे मुम्किन है?
- एक राज्य का डीजीपी एक चीफ जस्टिस के कहने पर कोई गैर-कानूनी ऑर्डर कैसे पास कर सकता है?
- चोर-उचक्कों, क्रिमिनल, ठगों और जालसाज़ों का रोज़ाना सामना करने वाला इतना बड़ा पुलिस अफ़सर खुद इतनी बड़ी जालसाज़ी का शिकार वो भी इतनी आसानी से कैसे हो सकता है?
पुलिस से जुड़ी सबसे बड़ी खबर
इन सुलगते सवालों के बाद आइए अब सिलसिलेवार उस कहानी से रूबरू होते हैं जो शायद हाल के वक्त में देश के पुलिस महकमे से आई अब तक की सबसे बड़ी खबर है. ये कहानी भी हमने नहीं बल्कि खुद बिहार पुलिस ने सुनाई है. एफआईआर की शक्ल में इस कहानी का दस्तावेजी सबूत मौजूद है. पुलिसिया भाषा कुछ ज्यादा ही कानूनी भाषा होती है, इसलिए हम आपको आम ज़ुबान में पूरी कहानी सुनाते हैं.
मालखाने तक नहीं पहुंची थी शराब
कहानी शुरू होती है गया से. गया के फतेहपुर थाना एसएचओ इसी साल के शुरुआत में शराब से भरी एक गाड़ी जब्त करते हैं. पर ये ज़ब्ती रिकार्ड पर कहीं थी ही नहीं. यानी ना तो शराब सरकारी मालखाने तक पहुंची और ना ही कोई मुकदमा दर्ज हुआ. अब ये शराब कौन गटका पता नहीं. तब गया के एसएसपी थे आईपीएस आदित्य कुमार. उनकी वर्दी पर पहले से ही कुछ दाग थे. इस बार शराब की छींटे भी पड़ गए. मगर खबर लीक हो गई.
आपस में लड़ बैठे आईजी और एसएसपी
जोन के आईजी साहब तक बात पहुंची. एसएचओ को बचाने का इलजाम एसएसपी पर लगा. अब आईजी और एसएसपी आपस में ही लड़ बैठे. बात पटना पुलिस मुख्यालय तक पहुंची. इसी के बाद आईजी और एसएसपी दोनों को हटा दिया गया. बाद में जांच हुई और एसएसपी आदित्य कुमार के खिलाफ गया में ही शराब माफियाओं को बचाने के इलज़ाम में एफआईआर दर्ज हो गई. एसएचओ का नाम तो खैर था ही, इस बीच आदित्य कुमार को गया से बुलाकर पटना मुख्यालय में बिठा दिया गया. उन्हें अब कोई पोस्टिंग नहीं दी जा रही थी.
बहाली के लिए रची साजिश
पुलिस मुख्यालय में खाली बैठे-बैठे आदित्य कुमार बोर हो गए. उन्हें वापस जिले में बहाली चाहिए थी. इधर गया में दर्ज किया गया मुकदमा भी उन्हें परेशान कर रहा था. गिरफ्तारी के खतरे को भांपते हुए उन्होंने अग्रिम ज़मानत की अर्जी दी. मगर अदालत ने अर्जी खारिज कर दी. अब गिरफ्तारी से बचने और जिले में वापस बहाली का ही एक ही रास्ता बचा था. उनके खिलाफ दर्ज मुकदमा किसी तरह खत्म हो जाए. और यहीं से एक पुलिस अफसर ने एक क्रिमिनल की तरह सोचना शुरू कर दिया.
जालसाज दोस्त से मिलकर बनाया प्लान
साज़िश पटना के एक रेस्तरां और आदित्य कुमार के घर में रची गई. तय ये हुआ कि आदित्य कुमार का एक जालसाज़ दोस्त अभिषेक अग्रवाल पटना हाई कोर्ट का फर्जी चीफ जस्टिस बनेगा और बिहार के डीजीपी को फोन कर मुकदमा खत्म कराएगा. वैसे पटना के असली चीफ जस्टिस का नाम संजय कोरोल है. इसी के बाद पिछले महीने सितंबर के शुरू में नया सिम और मोबाइल खरीदा गया. अब साज़िश के तहत अभिषेक अग्रवाल ने सबसे पहले तो इस नए सिम के नंबर पर डीपी में चीफ जस्टिस की तस्वीर लगाई. इसके बाद डीजीपी के सरकारी मोबाइल नंबर पर फोन घुमाना शुरू कर दिया.
कई बार किया गया डीजीपी को फोन
खुद को चीफ जस्टिस बताते हुए उसने डीजीपी से एसएसपी आदित्य कुमार के खिलाफ गया में दर्ज शराब से जुड़ा वही मुकदमा खत्म करने और आदित्य कुमार को केस में क्लीन चिट देने को कहा. सितंबर के महीने में अभिषेक ने कई बार डीजीपी को फोन किया. कभी व्हॉट्सएप क़ॉल तो कभी नॉर्मल नंबर पर. एक दो-बार तो फोन पर उसने डीजीपी को अपनी नाराजगी भी दिखाई. जिसके बाद खुद डीजीपी साहब ने पलट कर उसे फोन किया. यानी फर्जी चीफ जस्टिस को फोन किया.
IPS आदित्य कुमार को दी थी क्लीन चिट
खैर आदित्य कुमार का आइडिया रंग लाया. कुछ दिन बाद ही पांच सितंबर को एसएसपी आदित्य कुमार के खिलाफ दर्ज केस खत्म करते हुए डीजीपी ने उन्हें क्लीन चिट दे दी. यानी क्लीन चिट मिलने के बाद अब आदित्य कुमार का वनवास खत्म होने जा रहा था और वो वापस जिले में कप्तानी करने कभी भी जा सकते थे. मगर तभी कहानी में एक नया ट्विस्ट आ जाता है.
40 दिन बाद डीजीपी को पता चली हकीकत
एसएसपी आदित्य कुमार को क्लीनचिट देने के 40 दिन बाद 15 अक्तूबर को बिहार के डीजीपी को पता चलता है कि चीफ जस्टिस के नाम पर किसी ने उन्हें 'मामू' बना दिया है. इसी के बाद 15 अक्तूबर को इस मामले में डीजीपी की शिकायत पर राज्य की आर्थिक अपराध इकाई एफआईआर दर्ज करती है. इसके बाद जांच शुरू होती है और फिर आदित्य कुमार और अभिषेक अग्रवाल की सरी जालसाज़ी सामने आ जाती है. अब शर्मिंदगी के बीच बिहार पुलिस को आदित्य कुमार के खिलाफ खत्म मुकदमा तो वापस बहाल करना ही पड़ता है, साथ ही जालसाज़ी का नया मुकदमा भी दर्ज हो जाता है. मगर तब तक एसएसपी साहब फुर्र हो चुके थे.
डीजीपी की समझ पर सवाल!
पर सवाल यही था कि आखिर डीजीपी एसके सिंगल साहब को ये समझने में 40 दिन कैसे लग गए कि उन्हें चीफ जस्टिस के नाम पर ठगा गया है? 40 दिन बाद उन्हें इस सच्चाई की जानकारी कैसे मिली. हाालांकि बिहार पुलिस ने इस बारे में गोलमोल सा ये जवाब देकर पल्ला झाड़ लिया कि डीजीपी साहब को फोन करने वाले की बातचीत के टोन से शक हुआ था. पर एसएसपी का मुकदमा तो 40 दिन पहले वापस ले लिया गया था. 40 दिन से फर्जी चीफ जस्टिस का उनके पास कोई फोन भी नहीं आया था, तो फिर 40 दिन तक वो किसका इंतजार करते रहे?
अगर बातचीत के टोन से उन्हें पहले ही शक हो गया था तब उसी वक्त उन्होंने इसकी तसदीक क्यों नहीं की या किसी से इसकी शिकायत उस वक्त क्यों नहीं की? क्या 15 अक्तूबर को शिकायत दर्ज कराने से पहले उन्होंने सरकार के आला अफसरों या मुख्यमंत्री से इस बारे में कोई बात की? क्या सरकार को 15 अक्तूबर से पहले खुद के ठगे जाने की जानकारी दी? अब इसी 40 दिन की सच्चाई और डीजीपी साहब को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दाखिल कर दी गई.
पहले एसएसपी का निलंबन क्यों नहीं?
दरअसल, सवाल ये उठ रहे हैं कि कहीं एसएसपी आदित्य कुमार को क्लीन चिट देने की इस साजिश में कुछ और बड़े लोग तो शामिल नहीं हैं? इस सवाल और शक की कई वजहें हैं. मसलन जालसाज़ी का खुलासा होते ही मंगलवार को एसएसपी को निलंबित कर दिया गया था, मगर उन्हें तब निलंबित क्यों नहीं किया गया था जब उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ था?
अधिकारी या महाधिवक्ता को जानकारी क्यों नहीं दी?
इस मामले की जांच आर्थिक अपराध इकाई कर रहा है जो बिहार डीजीपी के मातहत है. ऐसे में कैसे निष्पक्ष जांच की उम्मीद की जा सकती है? जब अभिषेक अग्रवाल पटना हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस बनकर डीजीपी को फोन कर रहा था, तब डीजीपी ने राज्य सरकार के किसी अधिकारी या सरकार के महाधिवक्ता को जानकारी क्यों नहीं दी?
फरारी में IPS आदित्य को क्यों दी गई सुविधाएं?
जिस मामले में फतेहपुर थाना का प्रभारी अभी भी आरोपी है, उसी मामले में आदित्य कुमार को कैसे बरी कर दिया गया? जब आदित्य कुमार फरार थे तो उन्हें ड्राइवर, सुरक्षा गार्ड और कुक कैसे मुहैया कराया गया? गया के तत्कालीन आईजी अमित लोढ़ा को भी फंसाने की बात FIR में दर्ज है लेकिन उन्हीं आईजी साहब ने जब आदित्य कुमार की लिखित शिकायत पुलिस मुख्यालय में की तब डीजीपी ने कोई कार्रवाई क्यों नही की?
उलझी हुई है ये कहानी
कायदे से कहानी एक एसएसपी और फर्जी चीफ जस्टिस के बीच की लगती है. मगर ये कहानी उतनी सीधी है नहीं. खासकर बिहार पुलिस मुख्यालय को करीब से जानने वाले अफसरों को असली कहानी कुछ और ही लगती है. लिहाज़ा ये कहना कि इस कहानी में किसने किसको मामूं बनाया या कौन मामू बना, शायद जल्दबाजी होगी.
कब पकड़ में आएगा फरार IPS?
मगर मामू की असली कहानी जल्दी सामने आ जाए या आ ही जाएगी, इसकी उम्मीद फिलहाल कम ही नज़र आती है. बाकी कहानी के हीरो यानी अपने आईपीएस अफसर एसएसपी आदित्य कुमार फिलहाल किसी फरार मुजरिम का पीछा करने की बजाए खुद ही फरार हैं. अब बिहार पुलिस अपने ही बॉस को चूना लगाने वाले इस पुलिस अफसर को कब पकड़ती है?