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कहते हैं कानून हर किसी के लिए बराबर होता है. ये अमीर और गरीब में कोई भेद नहीं करता. लेकिन कानून की मजबूती और बराबरी के दावों के बीच कुछ हाई प्रोफाइल मामलों के दोषियों की रिहाई और रिहाई की कोशिश के मामले कुछ और ही कहानी बयां करते हैं. हाल के दिनों में जिस तरह से अलग-अलग राज्य सरकारों ने अपने-अपने हिसाब से संविधान की व्याख्या करते हुए उम्र कैद की सज़ा काट रहे कुछ खास कैदियों को छोड़ने की एक नई रवायत की शुरुआत की है, उसने देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट की पेशानी पर भी बल डाल दिए हैं.
केस नंबर-1
गुजरात का बिलकिस बानो गैंगरेप केस
उस एक महिला के साथ गैंगरेप के मामले में अदालत ने 11 दोषियों को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई थी. लेकिन गुजरात सरकार ने तमाम कानूनों को ताक पर रख कर 14 साल बाद अचानक सभी के सभी दोषियों को जेल से रिहा कर दिया.
केस नंबर-2
गोपालगंज के डीएम जी कृष्णैया की हत्या
बिहार के बाहुबली नेता आनंदमोहन को इस हत्याकांड के मामले में पहले फांसी की सजा दी गई थी और बाद में उसे उम्र क़ैद की सज़ा में बदल दिया गया था. मगर 16 साल बाद अचानक आनंद मोहन को जेल से रिहा कर दिया गया.
केस नंबर-3
लखनऊ में कवियित्री मधुमिता शुक्ला की हत्या
इस जघन्य हत्याकांड के दोषी राज्य के तत्कालीन मंत्री अमरमणि त्रिपाठी और उसकी बीवी मधुमणि को अदालत ने उम्र कैद की सज़ा सुनाई थी. लेकिन 20 साल बाद दोनों पति-पत्नी जेल से रिहा कर दिए गए.
केस नंबर-4
दिल्ली में IAS के बेटे नीतीश कटारा की हत्या
इस मर्डर केस में बाहुबली नेता डीपी यादव के बेटे विकास यादव समेत तीन लोगों को अदालत ने दोषी करार देते हुए उम्र कैद की सजा सुनाई थी. लेकिन अब 22 साल बाद विकास की रिहाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में अर्जी डाली गई है.
सवाल दर सवाल
इस तरह के मामलों ने संविधान और कानून के मसलों पर फिर बहस छेड़ने की वजह दे दी है. दिल दहला देने वाले बिलकिस बानो के मामले में तो सुप्रीम कोर्ट गुजरात सरकार के सामने सवालों की झड़ी लगा चुकी है. जस्टिस बीवी नागरत्ना ने गुजरात सरकार से सीधे सवाल पूछे-
- इस मामले में दोषियों के बीच भेदभाव क्यों किया गया? यानी पॉलिसी का लाभ अलग-अलग क्यों दिया गया?
- 14 साल की सजा के बाद रिहाई की राहत सिर्फ इन्हीं को क्यों? बाकी कैदियों को क्यों नहीं?
- जेलें कैदियों से भरी पड़ी हैं, लेकिन सुधार का मौका सिर्फ इन कैदियों को ही क्यों मिला?
जाहिर है, इन चुभते हुए सवालों का जवाब देने में अब गुजरात सरकार के भी पसीने छूट रहे हैं. और कमोबेश ऐसी ही हालत उन राज्य सरकारों की भी है, जिन्होंने अपने-अपने हिसाब से अपने कुछ खास-खास और वीआईपी कैदियों को रिहाई दी है.
यूपी में सिर्फ चुनिंदा लोगों की रिहाई
ऐसा तब है, जब इस वक्त देश में करीब 78500 से ज्यादा कैदी अलग-अलग राज्यों की जेलों में उम्र कैद की सजा काट रहे हैं. और इनमें वैसे कैदियों की एक बड़ी तादाद है, जिन्होंने 14 साल की सजा पूरी कर ली है, लेकिन जेल के अंदर एड़ियां रगड़ रहे हैं. कुछ ऐसा ही हाल यूपी का भी है. यूपी सरकार की तरफ से एक दूसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने रखे गए इन आंकड़ों के मुताबिक इस साल मई तक यूपी की अलग-अलग जेलों में उम्र कैद की सजा पाए कुल 15,771 कैदी बंद हैं. इनमें से 1958 कैदी ऐसे हैं जो 14 साल से ज्यादा अपनी सज़ा काट चुके हैं. लेकिन रिहाई सिर्फ चुनिंदा लोगों को ही मिलती है.
गुजरात का बिलकिस बानो गैंगरेप केस
सजा और रिहाई के इस खेल को समझने के लिए एक-एक कर इन केस स्टडीज़ को समझना भी जरूरी है. तो आइए शुरुआत बिलकिस बानो केस से ही करते हैं. साल 2002 के गुजरात दंगों के दौरान 21 साल की बिलकिस बानो से ज्यादती करने में तब 11 दरिंदों ने सारी हदें पार कर दी थी. बिल्किस के साथ ना सिर्फ गैंगरेप किया गया था, बल्कि उसकी मासूम बच्ची समेत उसके परिवार के सात लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था. बिल्किस के साथ ये ज्यादती तब हुई, जब वो पांच महीने की गर्भवती थी.
14 साल बाद सभी दरिंदों की रिहाई
इस मामले में मुकदमा चला और 2008 में सभी के सभी 11 दोषियों को उम्र कैद की सजा सुनाई गई. 9 साल बाद यानी मई 2017 को बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी इस सजा को बरकरार रखा. मामले की नजाकत को इसी से समझिए कि इसके बाद अपैल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने बाकायदा गुजरात सरकार को आदेश दिया कि वो बिलकिस बानो को 50 लाख रुपये का मुआवज़ा भी दे. लेकिन कोर्ट से सजा सुनाए जाने के 11 साल बाद इस मामले में तब एक बड़ा ट्विस्ट आया, जब गुजरात सरकार ने एकाएक 14 साल की सजा पूरी होने के बाद सभी के सभी 11 दोषियों को रिहा कर दिया.
दोषियों की रिहाई के खिलाफ याचिकाएं दायर
असल में इनमें से एक दोषी ने गुजरात हाईकोर्ट में अपील दायर कर रिमिशन पॉलिसी के तहत अपनी रिहाई की मांग की थी. गुजरात हाईकोर्ट ने इसे खारिज कर दिया था, जिसके बाद दोषी गुजरात हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले में गुजरात सरकार फैसला करे. कोर्ट के निर्देश पर ही गुजरात सरकार ने रिहाई पर फैसला लेने के लिए एक कमेटी बनाई. कमेटी की सिफारिश पर गुजरात सरकार ने सभी 11 दोषियों को रिहा करने का फैसला किया. लेकिन इतने संगीन मामले के दोषियों की एकाएक हुई इस रिहाई से मानों पूरे देश में भूचाल आ गया और इन दोषियों की रिहाई रद्द कर उन्हें फिर से जेल भेजने के लिए अदालत में कई याचिकाएं दाखिल की गई. जिन पर सुनवाई अब भी जारी है.
बिहार के बाहुबली आनंद मोहन का मामला
पहले फांसी और फिर उम्र कैद की सजा पाने वाले बिहार के बाहुबली नेता आनंद मोहन का मामला तो बिलकिस बानो केस से भी दो कदम आगे है. इल्जाम ये कि आनंद मोहन को रिहाई देने के लिए ही बिहार सरकार ने बाकायदा कैदियों की जेल से रिहाई की नियामावली यानी रूल बुक में ही तब्दीली कर डाली. 5 दिसंबर, 1994 को मुजफ्फरपुर में बिहार पिपुल्स पार्टी से जुड़े गैंगस्टर छोटन शुक्ला का कत्ल करने के बाद कार्यकर्ता उसकी लाश का अंतिम संस्कार करने जा रहे थे. इस दौरान गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी कृष्णैया कार्यकर्ताओं की भीड़ में फंस गए और गुस्साए लोगों ने उन पर हमला कर दिया. जिससे उनकी जान ही चली गई.
बिहार सरकार के फैसले से बदली किस्मत
तब खुद आनंद मोहन ने मौके पर मौजूद रह कर भीड़ को ऐसा करने के लिए उकसाया था. बाद में इसी मामले में साल 2007 में आनंद मोहन को पहले फांसी की सजा सुनाई गई. हालांकि एक साल बाद पटना हाई कोर्ट ने इस मामले में आनंद मोहन की फांसी की सजा को कम करते हुए उसे आजीवन कारावास यानी ताउम्र कैद में तब्दील कर दिया था. जिसके बाद आनंद मोहन लगातार जेल में बंद रहा. लेकिन इसके बाद बिहार सरकार के फैसले से उसकी किस्मत रातों-रात पलट गई.
आनंद मोहन समेत 26 कैदियों को मिला फायदा
ये फैसला सरकार ने 10 अप्रैल को अचानक अपने जेल के नियमों में बदलाव कर लिया. जिसके मुताबिक नियमावली से ड्यूटी पर तैनात सरकारी कर्मचारी की हत्या वाली लाइन को हटा दिया गया और इसी के साथ पिछले 16 सालों से बिहार के सहरसा जेल में बंद बाहुबली आनंद मोहन की जेल से रिहाई का रास्ता साफ हो गया. असल में सरकार ने सरकारी कर्मचारियों की हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे कैदियों को एक तय सीमा के बाद रिहा करने के लिए कानून में ये बदलाव किया, जिसका फायदा आनंद मोहन समेत 26 कैदियों को मिला और वो जेल से छूट गए. लेकिन सरकार का ये फैसला जहां आनंद मोहन और उसके परिवार के लिए एक लॉटरी साबित हुआ, वहीं जी कृष्णैया के परिवार के लिए ये फैसला एक सदमा लेकर आया. वो सदमा जिसने 29 साल पुराने जख्म को एक बार फिर कुरेद डाला और फिलहाल ये मामला भी सुप्रीम कोर्ट में है.
लखनऊ का मधुमिता शुक्ला हत्याकांड
लखनऊ की कवियित्री मधुमिता शुक्ला की हत्या के दोषी अमरमणि और मधुमणि की रिहाई का मामला तो और भी अजीब है. इस मामले में बेशक अमरमणि और मधुमणि को बीस साल की सजा काटने के बाद अच्छे चाल-चलन के बदले रिहाई दी गई है. लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल तो सज़ा पर ही है. इस मामले को समझने के लिए सबसे उत्तर प्रदेश सरकार के एक आदेश को समझना ज़रूरी है. जिसमें लिखा है कि अमरमणि त्रिपाठी ने 22 नवंबर 2022 तक कुल बीस साल एक महीना और 19 दिन जेल में काटे और जेल में उनके अच्छे आचरण को देखते हुए उन्हें रिहा कर दिया जाए.
अमरमणि की बीमारी के बारे में कोई नहीं जानता
तो आदेश के हिसाब से अमरमणि और उनकी पत्नी ने बीस साल से ज्यादा जेल में सज़ा काटी है. लेकिन सच्चाई यही है कि पूर्व माननीय विधायक और मंत्री जी की उम्र कैद का कुल जोड़-घटाव ये है कि 2013 य़ानी पिछले दस साल में दोनों मियां-बीवी सिर्फ 16 महीने ही जेल में रहे. पिछले दो साल यानी 2021 से अब तक तो दोनों जेल गए ही नहीं और तो और दोनों की रिहाई का परवाना भी उन्हें जेल में नहीं बल्कि गोरखपुर के इसी बीआरडीओ अस्पताल में मिला. खुद जेलर साहब मुस्कुराते हुए वो परवाना लेकर शुक्रवार को अस्पताल पहुंचे थे. यानी पिछले दस सालों में साढे आठ साल से ज्यादा वक्त दोनों मियां-बीवी ने गोरखपुर जेल के बाहर एक सरकारी अस्पताल के दो खास कमरों में काट ली और वो भी फुल आज़ादी के साथ. वो भी उन रहस्यमयी बीमारियों के नाम पर जिसके बारे में सही-सही जानकारी आज भी किसी को नहीं पता.
विकास यादव की रिहाई पर सुनावई करेगी तीन जजों बेंच
सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच अब विकास यादव के रिहाई के लिए लगाई गई अर्जी की सुनवाई करेगी. करीब 22 साल पहले यानी 2002 में हुए बहुचर्चित नीतीश कटारा हत्याकांड में 25 साल कैद की सजा काट रहे विकास यादव ने रिहाई की गुहार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका लगाई थी. जिसे कोर्ट ने तीन जजों की बेंच के पास सुनवाई के लिए भेजा दिया है. उधर, यूपी सरकार, दिल्ली सरकार और नीतीश कटारा की पीड़ित मां नीलम कटारा ने विकास यादव की याचिका का विरोध किया है.
22 साल से जेल में है विकास यादव
विरोध में वकील ने कहा कि अनुच्छेद 32 के तहत विकास यादव याचिका दाखिल नहीं कर सकता. सुप्रीम कोर्ट मे अगली सुनवाई 3 अक्टूबर को इसी मुद्दे पर होगी कि सजायाफ्ता कैदी सीधे सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकता है क्या? दरअसल, विकास यादव ने सजा पूरी होने से पहले रिहाई की मांग की है. जेल में सजा काटते हुए विकास यादव को 22 साल हो गए हैं.
इसलिए हुआ था नीतीश कटारा का मर्डर
नीतीश कटारा हत्याकांड में सुप्रीम कोर्ट ने ही विकास यादव को 25 साल की सजा सुनाई थी. जबकि विकास यादव को निचली अदालत और हाईकोर्ट से उम्रकैद की सजा मिली थी. विकास जिसमें से 22 साल की सजा काट चुका है. विकास और उसके साथियों ने नीतीश की हत्या इसलिए कर दी थी, क्योंकि उसका विकास की बहन भारती के साथ अफेयर चल रहा था और विकास के घरवाले इस रिश्ते से नाखुश थे.