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16 दिसंबर का बदला पूरा होगा 10 सितंबर को?

16 दिसंबर का जवाब दस सितंबर से देने की तैयारी है. हाल के वक्त का सबसे बड़ा फैसला मंगलवार को आने वाला है. एक ऐसा फैसला जिस पर पूरे देश की निगाहें टिकी हैं. बहुत मुम्किन है कि ये फैसला आज के हिन्‍दुस्तान के लिए एक नजीर साबित हो.

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16 दिसंबर का जवाब दस सितंबर से देने की तैयारी है. हाल के वक्त का सबसे बड़ा फैसला मंगलवार को आने वाला है. एक ऐसा फैसला जिस पर पूरे देश की निगाहें टिकी हैं. बहुत मुम्किन है कि ये फैसला आज के हिन्‍दुस्तान के लिए एक नजीर साबित हो. दिल्ली गैंगरेप मामले में मंगलवार को फास्ट ट्रैक कोर्ट अपना फैसला सुनाने जा रही है. पर ये फैसला आए उससे पहले खुद गैंगरेप की शिकार वो लड़की कुछ कहना चाहती है. वो भी अदालत से.

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योर ऑनर मैं भी कुछ कहना चाहती हूं. मैं इस केस की सबसे जरूरी गवाह हूं. जिनके मुकदमे का फैसला आप कर रहे हैं. अगर वो कातिल हैं तो मैं मकतूल हूं. अगर वो जालिम हैं को मैं मजलूम हूं. अगर वो पत्थर हैं तो मैं वो दिल हूं जिसे कुचला गया है.

योर ऑनर, आखिर ये कैसे हो सकता है कि मुझे इंसाफ देने के आपके इरादे में मेरी गवाही शामिल नहीं हैं. योर ऑनर आप जिस तराजू पर जुल्म को इंसाफ से तौलते हैं उसका एक पलड़ा में हूं. लेकिन योर ऑनर मेरी बात सिर्फ और सिर्फ इसलिए नहीं सुनी जा रही है, क्योंकि मैं खुद अपने लिए भी राख में तब्दील हो चुकी हूं. चलिए योर ऑनर आपका कानून किसी मुर्दा के बयान को नहीं मानता तो न सही. कम से कम मैं आपसे बात तो कर सकती हूं ना.

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योर ऑनर मेरे साथ 16 दिसंबर की रात जिन लोगों ने हवस का जानलेवा हमला किया था. उनमें से एक ने तो खुदकुशी कर ली. उसने आपके फैसले का भी इंतजार नहीं किया. अपना फैसला खुद कर लिया, अपनी सजा खुद तय कर ली.

योर ऑनर वो जिसने मेरे साथ सबसे ज्‍यादा बेरहमी दिखाई. आपका कानून और हमारा समाज उसे बच्चा समझता है. लेकिन बच्चे तक के अंदर जो वहशीपन समा गया, उसका जिम्मेदार कौन है? इसके बारे में आप और ये समाज दोनों खामोश हो जाते हैं.

योर ऑनर, अगर आपको मुझे, मेरी मौत, मेरे साथ हुई दरिंदगी को, हकीकत में इंसाफ देना है, तो एक ऐसी दुनिया बनाने के लिए समाज को, कानून को, कानून की हिफाजत करने वालों को मजबूर कर दीजिए कि मेरी जैसी लड़कियों को. मेरी बहनों को, मेरी माओं को, लगे कि वो महफूज हैं. जब किसी की आंखों में वासना उतरे तो उससे पहले उसका दिल अंजाम के खौफ से कांप उठे.

अगर आपने ये नहीं किया तो किसी को बच्चा कहकर छोड़ देना. किसी को फांसी दे देना या उम्र कैद देना, इससे कुछ नहीं होगा. कुछ नहीं होगा जज साहब. और मुझे ये मालूम है कि इस हकीकत को मुझसे ज्‍यादा अच्छी तरह आप जानते हैं.

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योर ऑनर आप फैसला सुनाने जा रहे हैं इसलिए मैं चाहती हूं कि उस रात जो कयामत मुझ पर टूटी थी वो कहानी आप एक बार फिर सुन लें. मेरा दोस्त उस रात मेरे साथ था. उस दरिंदगी का सबसे बड़ा गवाह. मैं तो रही नहीं, तो मेरा वही दोस्त आपको उस रात की कहानी सुनाएगा. प्लीज सुन लीजिए योर ऑनर.

अदालत से जो कहना था वो तो कह दिया उसने. अब अदालत के बाहर उस रात की कहानी वो अपने दोस्त से सुनाना चाहती है. वो चाहती है कि कयामत की उस रात जो कुछ उस पर बीती वो एक बार फिर अदालत सुने. ताकि फैसला करने में आसानी हो.

रविवार का दिन था. मैं अपनी दोस्त के साथ साकेत मॉल में ईवनिंग शो फिल्म ‘लाइफ ऑफ पाई’ देखकर लौट रहा था. हमें साकेत से पालम मोड़ तक जाना था. पर कोई ऑटोवाला चलने को तैयार ही नहीं था. बड़ी मुश्किल से बिना मीटर के एक ऑटोवाला चलने को राजी हुआ. वहां से हम ऑटो में मुनीरका बस स्टैंड पहुंचे.

हम दोनों बस स्टॉप पर खड़े बस का इंतजार कर रहे थे. मगर काफी देर तक कोई बस नहीं आई. फिर इसी बीच बस स्टॉप पर सफेद रंग की एक चार्टड बस आकर रुकी. उस बस में सवार एक लड़के ने ही हमें आवाज दी थी. हमारे पूछने पर उसने बताय़ा कि बस पालम गांव की तरफ ही जा रही है. लिहाजा हम दोनों बस में सवार हो गए. जब हम बस में चढ़े तो अंदर सवारी की सीट पर तीन लोग बैठ थे. हमें बाद में पता चला कि वो तीनों सवारी नही बल्कि उसी बस के जानने वाले हैं. बस में चढ़ते ही मैंने उनसे दो बार टिकट के लिए कहा. इसके बाद उन्होंने हमसे बीस रुपये लिए.

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बस चलने के कुछ ही देर बाद अचानक सवारी के तौर पर बैठे तीनों लड़कों ने हमारी तरफ देखकर हमें उलटा-सीधा बोलना शुरू कर दिया. फिर जब वो काफी बदतमीजी करने लगे, तो मुझे गुस्सा आ गया और मैंने उन तीनों की पिटाई कर दी. उन्होंने झगड़ा जानबूझ कर मुझे उकसाने के लिए ही किया था. क्योंकि झगड़ा होते ही दो और लोग जो पहले से ही बस में सवार थे अचानक सामने आ गए और लोहे की रॉड से मुझपर हमला कर दिया.

रॉड सिर पर लगा था इसलिए मैं बेहोश होने लगा. इसके बाद बस मैंने यही देखा कि वो मेरी दोस्त को खींचते हुए बस की पिछली सीट की तरफ ले जा रहे थे. इस दौरान मैं और मेरी दोस्त दोनों मदद के लिए लगातार चिल्ला रहे थे. लेकिन कोई मदद को नहीं आया. यहां तक कि मेरी दोस्त मुझे बचाने के लिए खुद बीच में आ गई. उसने उनसे मुकाबला किया. यहां तक कि उसने अपने मोबाइल से 100 नंबर पर पुलिस को कॉल भी करने की कोशिश की. लेकिन बदमाशों ने उससे मोबाइल छीन लिया.

हम अब पूरी तरह फंस चुके थे. उन लोगों ने अब बस की लाइट भी बंद कर दी थी. इस बीच मेरी दोस्त ने जितनी बार खुद को बचाने की कोशिश की, उतनी ही बार बदमाशों ने उस पर हमला किया. उसे बुरी तरह से मारा-पीटा. पर इस दौरान पूरे रास्ते में एक बार भी कोई मददगार नजर नहीं आया.

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आखिर दो घंटे बाद जब बदमाशों की हवस पूरी हो गई तो शायद उन्हें पहली बार लगा कि मेरी दोस्त अब मर चुकी है, मैं सुन रहा था. वो आपस में बातें कर रहे थे कि लगता है लड़की मर गई. इसलिए इसे भी यानी मुझे भी मार डालो. इसके बाद मेरे ऊपर अचानक फिर से रॉड से हमला शुरू हो गया.

मेरी दोस्त अब पूरी तरह बेहोश और लहुलुहान पड़ी थी. और मैं भी दम साधे चुपचाप बस की फर्श लेटा था. ताकि उन्हें ये ना लगे कि मुझमें अब भी जान बाकी है. इसके बाद उन लोगों ने मेरा और मेरी दोस्त का पर्स, बैग, मोबाइल सब कुछ ले लिया. फिर आखिर में उन्होंने हम दोनों के सारे कपड़े भी उतार लिए.

इसके बाद रात करीब ग्यारह बजे महिपालपुर फ्लाइओवर के नजदीक चलती बस से उन्होंने हम दोनों को नीचे फेंक दिया. नीचे फेंककर वो हमें उसी बस से कुचल देना चाहते थे. पर मैं किसी तरह अपनी दोस्त को खींचते हुए चलती बस के पहिए से दूर ले गया.

इसके बाद वो बस को दौड़ाते हुए अंधेर में गुम हो गए. अब हम दोनों पूरी तरह लहुलुहान सड़क किनारे पड़े थे. खून अब भी बह रहा था. जिस्म पर एक भी कपड़ा नहीं था, ठड भी बहुत थी. मैं किसी तरह हिम्मत कर हाथ उठा-उठाकर लोगों से मदद की भीख मांग रहा था कि कोई हम दोनों को अस्पताल पहुंचा दे. कोई हमें कपड़े दे दे. पर किसी ने हमारी मदद नहीं की. इस दौरान वहां से बहुत से ऑटोवाले, कारवाले गुजरे, कइयों ने स्पीड भी कम करके हमारी तरफ देखा, पर रुका कोई नहीं. शाय़द लोग इसलिए हमारी मदद नहीं कर रहे थे कि कहीं पुलिस केस या गवाही के चक्कर में ना फंस जाएं.

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बाद में कई पैदल गुजरने वालों ने भी हमारी हालत देखी. वो हमारे पास भी आए, खड़े भी हुए, पर सिर्फ तमाशबीन की तरह. बिना किसी मदद के करीब 20-25 मिनट तक हम दोनों इसी तरह बस पड़े रहे. वक्त गुजरता जा रहा था, खून बेहिसाब बह रहा था. मेरी दोस्त पूरी तरह से बेहोश थी. पर मुझे अब भी अंदाजा नहीं था कि उसे कैसे-कैसे और क्या-क्या जख्म मिले हैं? काफी वक्त हम यूंही सड़क किनारे पड़े रहे. फिर कहीं जाकर एक शख्स ने हमें देखा और उसी ने पुलिस को फोन किया.

थोड़ी देर बाद ही मैंने देखा कि एक साथ तीन-तीन पीसीआर वैन हमारे पास पहुंच गई थीः लेकिन हमारी मदद करने की बजाए वो आपस में पहले ये तय कर रहे थे कि हमारा मामला किस थाने में आएगा? मैं तब भी लगातार चीख रहा था, चिल्ला रहा था. गिड़गिड़ा रहा था कि हमें कपड़े दे दो, एंबुलेंस बुला दो, अस्पताल पहुंचा दो. पर थाने की सीमा के चक्कर में करीब आधे घंटे उन्होंने यूंही जाया कर दिया. आधे घंटे बाद कहीं जाकर वो लोग एक चादर लाए जिससे मैंने अपनी दोस्त को ढका.

उसकी हालत लगातार खराब हो रही थी, फिर मैंने किसी तरह उसे उठाकर पीसीआर वैन की सीट पर लिटाया और उसके बराबर में खुद बैठ गया. वहां नजदीक ही एक अस्पताल भी था. मैंने पुलिसवाले से कहा भी कि मेरी दोस्त की हालत बिगड़ रही है, आप यहीं ले चलो. पर पुलिस वाले हमें वहां से बहुत दूर सफदरजंग अस्पताल ले गए. वहां पहुंचने में हमारा काफी वक्त बर्बाद हो गया.

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अस्पताल पहुंचने के बाद भी हमारी किसी ने मदद नहीं की. बहुत देर तक मैं लोगों से एक अदद कपड़ा मांगता रहा. पर किसी ने कपड़ा तक नहीं दिया. मैंने कहा ठंड लग रही है, कंबल नहीं तो दरवाजे, खिड़की पर पड़ा पर्दा ही दे दो. सफाईवाले तक से मदद मांगी. पर किसी ने मदद नहीं की. फिर किसी तरह मैंने एक आदमी से उसका मोबाइल मांगा और अपने घर फोन किया. मैंने घरवालों को यही बताया कि हमारा एक्सीडेंट हो गया है. असल में मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि मैं उनसे क्या बोलूं? दोस्त के साथ फिल्म देखकर लौटने की बात बता नहीं सकता था.

अस्पताल पहुंचने के बाद पहली बार मुझे पता चला कि मेरी दोस्त के साथ क्या हुआ है. जानवरों से भी बदतर सुलूक किया था उन्होंने उसके साथ. वो बोलने तक की हालत में नहीं थी. तब मैंने उससे लिखकर पूछा कि उसे क्या हो रहा है? उसने जवाब दिया कि उसे इलाज के खर्चे का टेंशन है. बहुत पैसे खर्च हो जाएंगे. हां, उसने ये भी लिखा था कि उन बदमाशों को फांसी नहीं बल्कि जिंदा जलाकर मारा जाए.

सफदरजंग में मैं अपनी दोस्त से लगातार मिलता रहा. उसे ये भी बताया कि कैसे पूरा देश उसके लिए लड़ रहा है. वो उन गुनहगारों के बारे में भी मुझसे पूछती थी कि उनका क्या हुआ? मैंने उसे बताया कि सभी पकड़े गए. हां, उसे इलाज के खर्च की बड़ी चिंता थी. हमेशा पूछती रहती थी कि कितना खर्च हो जाएगा? मैं उससे यही कहता था कि खर्च की फिक्र मत करो. बस तुम ठीक हो जाओ.

हालांकि खुद मेरे हाथ-पैर जख्मी थे. पैर की हड्डी टूटी हुई थी. लेकिन 16 दिसंबर की उस रात से ही अगले तीन-चार दिनों तक पुलिस ने मुझे थाने में ही रखा.

सच बताऊं तो जिस दिन एसडीएम मेरी दोस्त का बयान ले रही थीं उस रोज मुझे पहली बार मेरी दोस्त पर हुए जुल्म का पूरा सच पता चला. इतनी क्रूरता तो जानवर भी नहीं कर सकता. वो भी शिकार को गला दबाकर मार डालता है. मगर यहां तो जो हुआ उसके बारे में कह भी नहीं सकता.

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