सट्टा कबूतर पर लगे या क्रिकेट पर है है तो सट्टा ही. इसके बुनियादी तौर-तरीके नहीं बदलते. सट्टेबाजों की नजर इतनी पैनी होती है कि उड़ते कबूतर की भी चाल पहचान लेते हैं. और एक अपनी सरकार है कि इतनी कमजोर कि हाथ आए कबूतर को भी उड़ा देती है. दरअसल सट्टेबाजी का इतिहास सदियों पुराना है. अलग-अलग जमाने में सट्टेबाजी की अलग-अलग शक्ल हुआ करती थी. और उन्हीं शक्लों को समेट कर हम आपके लिए लाए हैं ये खास पेशकश... कबूतर से क्रिकेट तक...
मुगल सल्तनत की कहानियों में खास जगह रखने वाली नूरजहां और जहांगीर की दासतां की सबसे खूबसूरत पहलू है उनकी पहली मुलाकात. और इत्तेफाक से उनकी इस पहली मुलाकात का गवाह एक कबूतर ही बना था. वही कबूतर जिसकी उड़ान बेहद दिलकश हुआ करती है. लेकिन बदलते वक्त ने कबूतर पर दांव खेलने वाले पैदा कर दिए. दांव इस बात पर कि कौन सा कबूतर कितनी ऊंची उड़ान भरता है या किस रफ्तार से उड़ान भरता है. दाव लगाने वाले और कबूतर के बीच अगर तालमेल सही बैठ गया तो दाव लगाने वाले की पौ-बारह.
अंग्रेजों का दौर आते-आते सट्टा इतना आम हो गया कि इस पर रोक लगाने के लिए 1866 गैंबलिंग एक्ट बनाना पड़ा. उस वक्त बॉम्ब और दिल्ली से बड़ा सट्टा बाजार कलकत्ता का था. फिर आज के दौर तक आते-आते तो खैर इस खेल ने खेल को भी नहीं बख्शा.
पर सफेद कपड़ों में तब क्रिकेट सचमुच जेंटलमैन गेम था. अंग्रेज चूंकि हिंदुस्तान में ही थे लिहाजा उन्हें बॉल फेंकते-फेंकते हमने भी जल्द ही इस खेल के गुर सीख लिए. 47 में अंग्रेज तो चले गए पर हम उनका खेल सीख चुके थे. शुरू में हमने जीत का लंबा इंतजार किया. लेकिन आज हम जहां हैं उसके पीछे वो ताकत काम कर रही है जिसके बल पर हम मैदान में लगातार डटे रहे. फिर अस्सी के दशक में क्रिकेट मैदान से उठ कर टीवी पर आ गया. उधर हॉकी की हालत लगातार पतली होता जा रही थी. लिहाजा दम तोड़ते हॉकी और घर-घर में घुस रहे टीवी ने देखते ही देखते किकेट को सिर माथे पर बिठा दिया. वक्त बदला तो यादों की तरह ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें भी रंगीन होनी शुरू हो गईं. ब्लैक एंड व्हाइट टीवी के बाद कलर टीवी का दौर शुरू हुआ तो मैदान की हरी-हरी घास सचमुच हरी दिखने लगी. पर कपड़े अब भी सफेद दिख रहे थे. और उन्हीं सफेद कपड़ों में लोग एक दिन का रेस्ट लेते हुए छह दिन तक टेस्ट मैच का लुत्फ उठा रहे थे.
पर टीवी रंगीन हो चुका था. टीवी का बाजार अंगड़ाई लेने को बेताब था. सो कपड़े कब तक सफेद रहते? लिहाजा सफेद को रंगीन बनाने के लिए फटफाट क्रिकेट को पैदा किया गया. छह दिन के टेस्ट के बाद पैदा हुआ एक दिन का ये बच्चा बचपन से ही इतना कमाऊ पूत निकलेगा, इसका अंदाज़ा खुद उन्हें भी नहीं था जिन्होंने इसे पैदा किया. आईसीसी के दूसरे बच्चे यानी वन-डे के पैदा होने से पहले तक मुंबई का बीसीसीआई परिवार गरीब जरूर था पर परिवार में तब भी खुशहाली थी. लेकिन इस बच्चे के आते ही उसकी तकदीर ऐसी पलटी कि वो देखते ही देखते दुनिया का सबसे अमीर परिवार यानी अमीर बोर्ड बन गया. पैसा आया तो ताकत भी आई. अब क्रिकेट के मैदान पर बीसीसीआई की हुकूमत थी.
पर इसी वन-डे के साथ क्रिकेट में एक अपशकुन आया. मैच फिक्सिग का. रंगीन टीवी पर क्रिकेट घर-घर को लुभा रहा था. घर-घर में मैच देखे जा रहे थे. और ठीक उसी वक्त अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहीम अपने ही घर से बेघर होकर यानी हिंदुस्तान से भाग कर दुबई पहुंच चुका था.
तब तक क्रिकेट भी रेगिस्तान का रुख कर चुका था. शारजाह में हिंदुस्तान और पाकिस्तान के मैच शुरू हुए.मैच हिट साबित हुआ. दाऊद मुंबई
से भागने के बाद शारजाह में ही दिखाई देता. क्रिकेठ उसका शौक था. शौक की खातिर वो हर मैच देखता हुआ. पर फिर कब ये शौक उसका काराबोर बन गया किसी को पता ही नहीं चला. और जब तक पता चलता तब तक दाऊद इस खेल को एक नया खेल बना चुका था. खेल सट्टा का. खेल मैच फिक्सिंग का. खेल स्पॉट फिक्सिंग का. अब खिलाड़ी मैदान में तो खेलते. पर कैसे खेलेंगे य़े डी-कंपनी तय करता. मैच फिक्सिंग और सट्टे के लिए वन-डे आइडियल क्रिकेट था. एक ही दिन में फटाफट नतीजा और फटाफट कमाई. धंधा जोरों पर चल निकला.
पासे से कबूतर, कबूतर से मटका और मटके से मोबाइल. सट्टेबाजों ने अपने धंधे को चलाने के लिए हर दौर में नई तकनीक का सहारा लिया. लेकिन तब तक ये धंधा आम लोगों के हाथों में ही था. पर जैसे ही वन-डे क्रिकेट का जन्म हुआ और टीवी ब्लैक एंड व्हाइट से कलर, अचानक इस धंधे को अंडरवर्ल्ड ने अपनी बपौती बना लिया. फिर तो जो खेल शुरू हुआ तो बस थमने का नाम ही नहीं ले रहा.
इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल यानी आईसीसी के दूसरे बच्चे वन-डे पर जब डी-कंपनी का साया पड़ा तो क्रिकेट मैदान से उठ कर सेटेलाइट फोन, पेजर और कंप्यूटर से होते हुए मोबाइल तक जा पहुंचा. दो टीमों के बीच पूरा मैच ही फिक्स करा देने की संभावना ने सट्टेबाजी की पूरी तस्वीर ही बदल कर रख दी. खेल ऐसा था कि इस खेल को खेलने और खिलाने के लिए ना दुकान की जरूरत थी, ना दफ्तर की. और ना ही पूंजी लगाने की. बस, फोन और कागज की पर्ची के साथ जहां बैठ गए दुकान वहीं खुल गई. बस इसके लिए सट्टे का भाव खोलने वाली डी-कंपनी का आशीर्वाद उसे जरूर हासिल होना चाहिए. यानी हींग लगे ना फिटकिरी और मुनाफा करोड़ों का. ऊपर से जोखिम भी नहीं. क्योंकि पकड़े भी गए तो सज़ा कुछ महीनों की या जुर्माना कुछ सौ रुपए का. अंडरवर्लड के लिए भला इससे फायदे का सौदा और क्या हो सकता था.
लिहाजा देखते ही देखते डी-कंपनी की कमाई का सबसे बड़ा ज़रिया यही सट्टा बन गया. खेल जारी था. मैदान के अंदर भी और मैदान के बाहर भी. हालंकि उसी दौर में बीच-बीच में फिक्सिंग का जिन्न बोतल से बाहर भी आया. कई खिलाड़ियों पर गाज भी गिरी. हल्ला-हंगामा हुआ. रुसवाई के साथ साफ-सफाई हुई. पर धंधा फिर भी चलता रहा.
पर फिर इसी बीच आईसीसी के तीसरे बच्चे का जन्म हुआ. जिसका नाम रखा गया टी-20. ये बच्चा दूसरे बच्चे से भी ज्यादा होनहार निकला. पैदा होते ही ये सबसे पहले टीम इंडिया की ही गोद में आया. इसके गोद में आते ही बीसीसीआई के ललित मोदी ने आईपीएल की शक्ल में इसके जुड़वां भाई को जन्म देने का फैसला किय. फैसला कारगर रहा. फकत कुछ सौ, फिर हज़ार, लाख से होते हुए अब क्रिकेट करोड़ों का खेल हो चुका था. बीसीसीआई अमीर से और अमीर होती चली गई और खिलाड़ी लखपति से करोड़पति और करोड़पति से अरबपति बनते गए.
22 गज की पिच पर दौड़ने-भागने वाले खिलाड़ी अचानक हथौड़े के नीचे आ गए. खिलाड़ियों की बोली लगने लगी. तमाशा लाइव हो रहा था. खिलाड़ी की अहमियत अब उसके खेल से नहीं बल्कि उसके खरीदने और बिकने की कीमत से होने लगी. छह दिन के टेस्ट मैच से जो सफऱ शुरू हुआ था वो एक दिन के सौ ओवरों से होते हुए तीन घंटे के तमाशे तक जा पुहंचा था. वन-डे से भी कहीं ज्यादा टी-20 सट्टा बाजार के लिए कमाऊ पूत बन गया. फकत तीन घंटे और 40 ओवरों के 240 गेंदों ने हर गेंद को बिकाऊ बना दिया. तमाशा ऐसा था कि जो पैसे के लिए नहीं बिक रहे थे, उन्हें नाइट पार्टी की रंगीनियों ने बिकवा दिया.
पर दुनिया भर की क्रिकेट बोर्ड भी अब चौकन्नी थी. लिहाज़ा पूरा मैच फिक्स करने का जोखिम उठाने की बजाए अंडरवर्ल्ड ने एक नया खेल ईजाद किया. खेल स्प़ॉट फिक्सिंग का. स्पॉट फिक्सिंग यानी जिससे मैच के नतीजे पर तो सीधा असर ना पड़े, पर सेशन या ओवर बिक जाए. यानी अगर एक मौच के दो-चार ओवर का नतीजा ही पहले से पता चल जाए तो कई सौ करोड़ की कमाई पक्की.
ड्रेसिंग रूम कराची में, चेंजिंग रूम दुबई में और जिस पिच पर मैच खेला जाना है वो मैदान भारत में. इशारा कराची से होता, तिजोरी दुबई में खुलती और उस तिजोरी में पैसे हिंदुस्तान से भरे जाते. बस यही खेल है सट्टे का और यही खेल है डी-कंपनी का. और यही है आज के दौर का वो सट्टा जो खुद फिक्स है.
खेल दुनिया की किसी भी पिच पर हो, पर इस खेल का असली खिलाड़ी कराची के ड्रेसिंग रूम में ही बैठता है. और वहीं से बैठे-बैठे वो ऐसे-ऐसे खेल-खेल कर जाता है कि थर्ड अंपायर री-प्ले देख कर भी कुछ नहीं देख पाते. जी हां. सट्टे के खेल का असली बादशाह डी-कंपनी का बॉस यानी दाऊद इब्राहीम ही है. मैच फिक्सिंग से लेकर स्पॉट फिक्सिंग सब उसी के गंदे जेहन की पैदाइश है.
मगर सट्टे की कंपनी का सीईओ उसने अपने छोटे भाई अनीस इब्राहीम को बना रखा है. यानी पूरा धंधा अनीस ही देखता है. आईसीसी के कैलेंडर के हिसाब से अनीस अपना गेम सेट करता है. कराची में बैठ कर. पर उसकी सबसे ज्यादा नजर होती है उन मैचों पर जिनमें हिंदुस्तान या पाकिस्तीन की टीमें खेल रही होती हैं. क्योंकि सारी कमाई इन्हीं दो टीमों से होती हैं.
डी कंपनी का सट्टे का हेडक्वार्टर दुबई के बुर्ज डेरा में है. दुबई में इसका इंचार्ज सुनील दुबई है. जो कभी मुंबईका बिजनेसमैन हुआ करता था. पर फिलहाल अनीस के सट्टा बाजार का मैनेजिंग डायरेक्टर है और सीधे अनीस इब्राहीम को ही रिपोर्ट करता है. सुनील दुबई की मदद के लिए दुबई में दो और लोग बिठाए गए हैं. इनमें से एक का नाम मनोज मेट्रो है जबकि दूसरा पवन जयपुर. ये इन दोनों के कोड नेम हैं.
कोई भी मैच या टूर्नामेंट शुरू होने से पहले दुनिया भर में सट्टे के लिए पैसों की डिलिवरी दुबई से ही की जाती है. और ये काम सुनील दुबई करता है. कराची से इशारा मिलने के बाद सुनील दुबई मनोज मेट्रो और पवन हिंदुस्तान और पाकिस्तान में अपने एजेंट से संपर्क साधते हैं. हिंदुस्तान में डी-कंपनी का सट्टे का सबसे बड़ा बॉस सुरेंद्र बरगी उर्फ कोलकाता जूनियर है.
कराची में वो ठिकाने है जहां से आईपीएल में स्पॉट फिक्सिंग का पूरा खेल खेला जा रहा था. जहां से सट्टा की लाइन दुबई के रास्ते हिंदुस्तान तक पहुंचती थी. ये वो गढ़ है जहां से आईपीएल के मुकाबले स्पॉट फिक्स किए जा रहे हैं. ये वो अड्डे हैं जहां से हिन्दुस्तान की क्रिकेट पर सबसे बड़ा हमला हो रहा है. ये दाऊद इब्राहिम का कराची का वो पता है जहां से उसका छोटा भाई अनीस इब्राहिम आईपीएल के खिलाड़ियों की बोली लगवाता है.
दूसरा पता है दुबई का. ये घर है अनीस इब्राहिम के दुबई में सबसे भरोसेमंद एजेंट सुनील हीरानंद अभिचंदानी का. क्रिकेट का ये शातिर बुकी है जो हवाला के जरिए डी कंपनी के लिए दुबई में बैठ कर बाजियों का हिसाब किताब करता है.
अली बुदेश पर हिन्दुस्तान में दो दर्जन संगीन मुकदमें चल रहे हैं. ये वो शख्स है जिसने दुबई में दाउद इब्राहिम के पैर जमवाये और अब सट्टे के खेल में दाउद के पैर उखड़वाने पर आमादा है.
मुंबई में डी कंपनी का सट्टा एक्सचेंज चलाने वाला सबसे बड़ा गुर्गा रमेश व्यास है. रमेश व्यास ने पूछताछ में ये खुलासा किया है कि यूं तो वो पाकिस्तान के 14 बड़े बुकीज के लिए हिन्दुस्तान से सट्टे की लाइन जोड़ रहा था लेकिन इन 14 में छह बुकीज सीधे तौर पर अनीस इब्राहिम के मोहरे थे.
अनीस इब्राहिम के मोहरे छह बुकीजों के नाम हैं- विक्की, जंबो, कुमार, मास्टर सलमान, डॉक्टर जावेद और शरीफ इन बुकीज के जरिए स्पॉट फिक्सिंग की काली कमाई हो रही थी.
सूत्रों के मुताबिक अनीस इब्राहिम के कहने पर ही व्यास ने कराची की लाइन हिन्दुस्तान के तीन बुकीज के लिए खासतौर पर जोड़ी थी. इन बुकीज में दिल्ली के टिंकू और भरत के अलावा ज्यूपिटर का नाम प्रमुख है. सट्टेबाजों की इसी तिगड़ी ने श्रीसंत पर डोरे डाले और ऐश और कैश के जरिए स्पॉट फिक्सिंग को अंजाम दिया.
जूनियर कोलकाता के नाम से मशहूर सुरेंद्र बांगड़ी को सट्टे की दुनिया में मिस्टर इंडिया भी कहा जाता है क्योंकि ये पुलिस की रडार पर तो रहता है लेकिन गिरफ्त से बाहर.
सूत्रों की मानें तो सुरेंद्र बांगड़ी के तार सीधे तौर पर दुबई में बैठे सुनील दुबई से जुड़े हैं. पुलिस सूत्रों के मुताबिक 14 मई को जब मुंबई पुलिस की रेड कालबा देवी में पड़ी और जैसे ही रमेश व्यास को दबोचा तब तक सुरेंद्र बांगड़ी को खबर हो चुकी थी. सूत्रों का कहना है कि सट्टे की दुनिया में आज की तारीख में बांगड़ी से बड़ा खिलाड़ी कोई नहीं और वो आईपीएल के कई खिलाड़ियों के सीधे संपर्क में रहता है. सच तो ये है कि बांगड़ी के गिरफ्तार होने के बाद ही इंडियन अंडरवर्ल्ड लीग का असली चेहरा सामने आएगा.