हिंदुस्तान की पुलिस के इतिहास में ऐसे मौके और ऐसे मंज़र बहुत कम आए हैं जब पूरी की पूरी पुलिस टीम को बाराती बनना पड़ा. ना सिर्फ बाराती बनना पड़ा बल्कि बारातियों की तरह नाचना भी पड़ा. और ये सब सिर्फ इसलिए ताकि एक ऐसे कुख्यात गैंगस्टर का एनकाउंटर किया सके, जिसने सीधे पुलिस को ही चुनौती दे दी थी. एनकाउंटर की ये कहानी यूपी के कुख्यात गैंगस्टर रमेश कालिया की है, जिसने कई सालों तक पूरे यूपी में आतंक मचा रखा था. रमेश कालिया के शूटआउट के लिए खास तौर पर एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की टीम बना गई थी.
लखनऊ का रायबरेली रोड. विदाई के बाद दो-तीन कारों में बाराती लौट रहे थे. मगर अचानक दूल्हा-दुल्हन की अगुवाई में सभी बाराती गाड़ियों से उतर कर एक मकान की तरफ़ दौड़ पड़ते हैं. दुल्हन बिल्कुल प्रॉफेशनल अंदाज़ में कमर से रिवाल्वर निकालती है और दूल्हा अपनी जुराब से. फिर वे सब मकान में दाखिल होने के साथ ही बाराती मकान में मौजूद गुंडों को ललकारते हैं और फिर दोनों तरफ़ से फायरिंग शुरू हो जाती है. बारातियों के हमले से घबराए मकान में छिपे कुछ लोग भाग निकलते हैं और कुछ गोली खाकर ढेर हो जाते हैं. एक आध पुलिसवाले भी गोली लगने से घायल हो जाते हैं. फिर शूटआउट के बाद वहां खामोशी पसर जाती है.
दरअसल, बाराती बनकर मकान पर धावा बोलने वाले कोई और नहीं बल्कि यूपी पलिस के अफसर थे, जो भेष बदलकर उस वक्त के कुख्यात गैंगस्टर रमेश कालिया का शिकार करने आए थे. और वे अपने मकसद में कामयाब भी हो गए. ये वारदात थी फरवरी 2005 की. रमेश कालिया एक ऐसा गैंगस्टर था, जिसके आतंक से खुद यूपी की राजधानी लखलऊ भी कांपती थी. उसे कई सफेदपोश लोगों का समर्थन भी हासिल था. लिहाजा वो आसानी से पुलिस के हाथ आने वाला नहीं था.
ये वो दौर था, जब यूपी में श्रीप्रकाश शुक्ला के शूटआउट के बाद गुंडे बदमाश नए सिरे से पनप रहे थे. लेकिन 2003 के आते-आते यूपी में माफियाराज एक बार फिर से उरूज पर था. पूरब में मुख्तार अंसारी और ब्रजेश सिंह की बादशाहत कायम हो गई थी, तो लखनऊ में अजीत सिंह और अखिलेश प्रताप सिंह की तूती बोलती थी. रेलवे और पीडब्ल्यूडी के ठेकों को लेकर एक बार फिर बर्चस्व की लड़ाई तेज़ हो गई थी. माफियाओं की इसी जंग में उभरा एक नया नाम रमेश कालिया.
रमेश कालिया वो नाम था जिसे सुनते ही ठेकेदारों और बिल्डरों की रुह कांपने लगती थी. दरअसल, छोटी-मोटी वारदातों को अंजाम देने वाले रमेश ने साल 2002 और 2003 में अचानक जैसे गियर ही बदल लिया था. अब उसकी नज़र सिर्फ़ ज़मीनों पर थी. ख़ास उन ज़मीनों पर जिनमें कोई लफड़ा होता था. वो ऐसी ज़मीनों पर कब्जा करता और रास्ते में जो भी आता, उसे ढेर कर देता.
28 अक्टूबर 2002, बाराबंकी
शाम के 5 बजे थे. सपा नेता रघुनाथ यादव अपने दो साथियों के साथ बाराबंकी से लौट रहे थे. जब उनकी सफेद रंग की एंबेंसडर कार सफेदाबाद बाजार के पास पहुंची, तो ड्राइवर सरवन की नज़र एक टाटा सूमो पर पड़ी. वो गाड़ी उनका पीछा कर रही थी. उसने यादव से कहा कि एक गाड़ी उनका पीछा कर रही है. लेकिन यादव ने उसकी बात को हल्के में लिया और उसे आगे बढ़ने के लिए कहा. और तभी टाटा सूमो, एंबेसडर को ओवरटेक कर लेती है. जबरदस्ती कार सड़क के किनारे रुकवाई जाती है. सूमो से चार लोग निकलते हैं. जिनके हाथों में पिस्तौल और रायफल है. और अगले ही पल वे कार में बैठे नेताजी रघुनाथ यादव पर फायरिंग शुरू कर देते हैं. बीडीसी मेंबर रघुनाथ समेत दो लोग मारे जाते हैं. जबकि ड्राइवर और एक शख्स भाग निकलता है. बदमाश फिर सूमो में सवार होकर फ़रार हो जाते हैं.
ये वो वक्त था, जब यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. तब मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी, प्रदेश की काननू व्यवस्था. खासकर राजधानी लखनऊ की. क्योंकि कालिया ने उन दिनों पूरे उत्तर प्रदेश में अपना आतंक पैदा कर दिया था और तभी मुलायम सिंह यादव ने एक अहम फैसला लिया. उन्होंने डीजीपी के कहने पर मुजफ्फरनगर के तेज तर्रार एसएसपी नवनीत सिकेरा को लखनऊ बुलाने का फरमान जारी कर दिया.
दिसंबर 2004 में नवनीत सिकेरा लखनऊ के एसएसपी बना दिए गए. नवनीत एनकाउंटर स्पेशलिस्ट के तौर पर जाने जाते थे. आईपीएस नवनीत सिकेरा बदमाशों के लिए खौफ का दूसरा नाम था. ख़ास कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदमाश तो सिकेरा के नाम से ही कांपते थे. आलम ये था कि यूपी के क्राइम कैपिटल के नाम से बदनाम रहे मुज्जफ्फरनगर में अपनी तैनाती के दौरान सिकेरा ने अलग-अलग शूटआउट में कुल 55 छंटे हुए बदमाशों को मौत की नींद सुलाया था.
लिहाजा लखनऊ को कालिया के ख़ौफ़ से आज़ाद करने के लिए सिकेरा को वहां तैनात करने का शायद यही सबसे अच्छा समय था. नवनीत अब लखनऊ के नए एसएसपी थे. उन्होंने अपने अधिकारियों के साथ बैठक की और निर्देश जारी करते हुए कहा कि उन्हें लखनऊ और आसपास के टॉप 10 माफियाओं की लिस्ट और उनके क्रिमिनल रिकार्ड्स चाहिए और वो भी 24 घंटे के अंदर. एसएसपी के फरमान का असर दिखने लगा था. पूरे लखनऊ में माफ़ियाओं और गुंडे-बदमाशों की धरपकड़ शुरू हुई. कई को सलाखों के पीछे डाल दिया गया, तो कई मुठभेड़ में मार गए. पुलिस की इस कार्रवाई से बदमाशों का सिडिंकेट चलाने वाले बड़े माफ़ियाओं की नींद हराम हो चुकी थी.
उस दौर में राजधानी लखनऊ में अजीत सिंह का सिक्का चलता था. ख़ास कर रेलवे के ठेकों पर तो अजीत और उसके लोगों का एकछत्र राज था. किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि वो अजीत के खिलाफ चूं भी कर सके. लेकिन एक शख्स था, जिससे अजीत भी डरता था और वो नाम था रमेश यादव उर्फ रमेश कालिया. दरअसल, उस दौर में अजीत सिंह, अखिलेश प्रताप सिंह और रमेश कालिया की अपनी सल्तनत थी.
4 सितंबर 2004, उन्नाव
लखनऊ से सटे उन्नाव जिले के एक गेस्ट हाउस में समाजवादी पार्टी के बाहुबली एमएलसी अजीत सिंह का जन्मदिन मनाया जा रहा था. देर रात तक अजीत सिंह की बर्थ-डे पार्टी चली. नशे में धुत्त गनर और अजीत सिंह के चेले हवा में फायरिंग कर रहे थे. तभी अचानक एक गोली स्विमिंग पूल के नज़दीक बैठे अजीत सिंह के सिर को छेद कर बाहर निकल गई. वो ज़मीन में लुढ़क गया. अब रंग में भंग पड़ चुका था. फ़ौरन अजीत सिंह को उठाकर इलाज के लिए कानपुर ले जाया गया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
दरअसल, सपा के एमएलसी अजीत सिंह का कत्ल हुआ था. उसके जन्मदिन पर ही उसे मौत की सौगात मिली. चूंकि ये कत्ल सत्ताधारी समाजवादी पार्टी के एमएलसी का था, लिहाजा अजीत सिंह की मौत की खबर आग की तरह पूरे सूबे में फैल गई. मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव खुद अजीत सिंह की अंतिम यात्रा में शामिल हुए. ये हाईप्रोफाइल मर्डर सियासी गलियारों में भूचाल ले आया. अजीत सिंह के क़त्ल से पुलिस पर क़ातिलों को पकड़ने के लिए दबाव बढ़ने लगा. अजीत सिंह की दुश्मनी रमेश कालिया से थी, लिहाज़ा पुलिस रमेश कालिया के खिलाफ कत्ल का मामला दर्ज कर उसकी तलाश करने लगी और यूपी पुलिस ने शुरु किया 'ऑपरेशन कालिया'.
कालिया की तलाश में लखनऊ पुलिस दलबल के साथ उन्नाव के कई ठिकानों पर रेड करती है. लेकिन हर जगह पुलिस को नाकामी ही मिली. तभी पुलिस को इम्तियाज़ नामक एक बिल्डर ने कालिया के खिलाफ कंप्लेंट दी. उसने पुलिस को बताया कि कालिया उससे 5 लाख रुपये मांग रहा है. एसएसपी नवनीत ने फौरन उसे बुलवाया. इधर. पुलिस कालिया के खात्मे का प्लान तैयार कर रही थी, उधर, कालिया बेफ़िक्र घूम रहा था. उसे नहीं पता था कि इम्तियाज़ की शक्ल में पुलिस को उसके खिलाफ़ एक तुरुप का इक्का मिल चुका है.
एसएसपी ने इम्तियाज़ के जरिए रमेश कालिया तक पहुंचने की योजना बनाई. 10 फरवरी 2005 को एसएसपी के कहने पर इम्तियाज ने कालिया को फोन पर कहा कि वह कुछ पैसे अभी देने को तैयार है. इस पर कालिया ने उसे मिलने का टाइम दे दिया. बातचीत बेशक मुख्तसर थी, लेकिन घबराहट में इम्तियाज़ की सासें तेज हो चुकी थी. इम्तियाज़ इसलिए भी ज़्यादा घबराया हुआ था, क्योंकि अब उसकी कालिया से मुलाक़ात का वक्त और जगह तय हो चुकी थी.
12 तारीख फरवरी 2005 एसएसपी ने इम्तियाज को बताया कि उसे डरना नहीं वे उसके साथ साथ रहेंगे. शिकार पुलिस के जाल में फंसता दिख रहा था. लिहाज़ा, पुलिस ने शूटआउट की तैयारी शुरु कर ली. पुलिस टीम ने कालिया के ठिकाने तक जाने के लिए एक योजना बनाई और बारात की शक्ल में धीरे से बिल्डिंग को चारों ओर से घेर कर धावा बोलने का प्लान बनाया.
पुलिस की टीम बाराती बनकर तीन अलग-अलग गाड़ियों में बैठ कर नीलमत्था के लिए रवाना हो जाती है. इम्तियाज़ अपनी कार में पुलिसवालों से थोड़ा पहले रवाना होता है. इम्तियाज़ के पीछे पुलिस की बारात निकल पड़ती है. इम्तियाज़ कालिया के मकान में डरते-डरते दाखिल होता है. कालिया और इम्तियाज़ के बीच बातचीत होती है. इम्तियाज़ अपनी जेब से नोटों की एक गड्डी निकालकर कालिया को देता है. लेकिन रकम केवल 40 हजार होती है. इम्तियाज कालिया से सहमकर कहता है- भाई, गुस्ताख़ी माफ़. ज़्यादा इंतज़ाम नहीं हो सका. बस इतना ही है. इस बात से कालिया उखड़ जाता है. वो नोटों की गड्डी इम्तियाज़ के मुंह पर दे मारता है. वो इम्तियाज को गालियां देना शुरू करता है.
तभी बारातियों के भेष में आई पुलिस कमरे में घुसकर धावा बोल देती है. करीब 20 मिनट तक दोनों तरफ से गोली बारी होती है. इस दौरान कालिया और उसके दो गुर्गे मौके पर ही मारे जाते हैं. इस ख़ौफनाक एनकाउंटर दो पुलिसवाले भी गोली लगने से ज़ख्मी हो जाते हैं. और इसी के साथ पूरा होता है मिशन कालिया.