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इस बच्चे ने देखा था आतंकवादियों को मौत बांटते हुए

सात साल पहले दिल्ली के दिल पर सिलसिलेवार हमला होता है. कई बम फटते हैं और कई बेगुनाह मारे जाते हैं. पर इस हमले के गुनहगार उसी भीड़ का फायदा उठा कर बच निकलते हैं. आगे के हमलों के लिए. मगर तभी 12 साल का एक बच्चा सामने आता है.

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तत्कालीन राष्ट्रपति ने भी दिया था इस बच्चे को पुरस्कार
तत्कालीन राष्ट्रपति ने भी दिया था इस बच्चे को पुरस्कार

सात साल पहले दिल्ली के दिल पर सिलसिलेवार हमला होता है. कई बम फटते हैं और कई बेगुनाह मारे जाते हैं. पर इस हमले के गुनहगार उसी भीड़ का फायदा उठा कर बच निकलते हैं. आगे के हमलों के लिए. मगर तभी 12 साल का एक बच्चा सामने आता है. पुलिस वाले अंकल को बताता है कि बम रखने वाले अंकल जैसे लोग कौन थे? उस बच्चे की बहादुरी को देश की राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक सलाम करते हैं. फिर सलाम कर सभी उसे और अपने वादे दोनों भूल जाते हैं. अब सात साल बाद वो वापस फुटपाथ पर लौटता है चंद सवालों के साथ.

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इस शख्स की जिंदगी को सरकार और पुलिस ने सात साल पहले एक राज़ बना दिया. जी हां, ऐसा राज़, जिसके बारे में या तो ये जानता है या फिर पुलिस. मगर, अब वो सारे राज़ एक-एक करके बेपर्दा होंगे, क्योंकि राज़दार को तो सब कुछ याद है, लेकिन सरकार भूल गई्. पुलिस भूल गई. आतंकियों की आंखों में आंखें मिलाकर देखने वाले इस शख्स को जांच एजेंसियां भूल गईं. देश की राजधानी का बेपरवाह सिस्टम भूल गया.

दिल्ली के कनॉट प्लेस में हनुमान मंदिर के ठीक सामने फुटपाथ है. यहां बेहद गरीब या यूं कहें कि दुनिया के रहमो-करम पर पेट पालने वाले लोग ही रहते हैं. और यहीं से शुरू होती है एक ऐसे नौजवान की कहानी, जिसने आतंकवादियों को सबक सिखाने का सबक इसी फुटपाथ पर सीख लिया था. हम आपको इसका नाम नहीं बताएंगे. इसकी पहचान भी नहीं बताएंगे. इसका चेहरा भी नहीं दिखाएंगे. मगर इस नौजवान की पूरी कहानी बताएंगे क्योंकि, ये कोई आम लड़का नहीं बल्कि दिल्ली को दहलाने वालों के खि‍लाफ सबसे बड़ा हथियार है. ये एक सच्ची पर बेहद ख़ौफ़नाक सच्चाई है, जो सात साल पहले सामने आई थी.

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13 सितंबर 2008 की उस शाम को दिल्ली का दिल खून में नहा गया था. सीरियल ब्लास्ट के साथ दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस में 30 लोगों की धड़कने थम गई थीं. 100 से ज्यादा लोग आतंकी हमलों में घायल हो गए थे. सारियल ब्लास्ट के गुनहगारों की तलाश शुरू ही हुई थी कि कनॉट प्लेस के करीब बाराखंबा रोड परं भी एक धमाका हो गया. इस धमाके में करीब 20 लोग घायल हो गए थे. ये आतंकी साजि‍श का एक और हिस्सा था. पुलिस और आतंकी हमलों की जांच करने वाली एजेंसियां हर बार की तरह सबूत और सुराग तलाशने लगीं.

इसी बीच भीड़ को चीरता हुआ करीब बारह साल का एक बच्चा दिल्ली पुलिस के पास आया. वो दावा करता है कि उसने धमाके की साजि‍श रचने वालों को अपनी आंखों से देखा है. वो कहता है कि धमाकों से ठीक पहले पानी पीने चला गया था, लेकिन दो लोगों को उसने देखा है, जो इस पूरी तबाही के लिए ज़िम्मेदार थे. ये 2008 के सीरियल ब्लास्ट का इकलौता चश्मदीद गवाह था.

फुटपाथ के इस हीरो ने 12 साल की उम्र में जिस दिलेरी का मुज़ाहिरा किया, उसे देख कर देश के धाकड़ से धाकड़ पुलिसवाले भी दंग रह गए. खुद अपनी आंखों से आतंकवादियों को मौत बांटते देख कर भी वो डरा नहीं, बल्कि उसने आगे बढ़ कर आतंकवादियों के चेहरे से नकाब नोचने की कोशिश की. तब सियासी रहनुमाओं ने उसके इस हौसले की दाद भी दी थी और मदद का भरोसा भी. लेकिन बदकिस्मती से ये दोनों ही चीज़ें वक्ती साबित हुईं.

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ये वही नौजवान है जिसने सात साल पहले पुलिस को बताया कि दो लोगों ने कूड़ेदान में बम रखे थे.. उस वक्त उसी बच्चे की बदौलत दिल्ली पुलिस ने आतंकियों के स्केच बनवाए.. गिरफ्तारियां हुईं और दिल्ली में कई आतंकी साज़िश को नाकाम कर दिया गया.

धमाकों के फौरन बाद बारह साल के इस बच्चे की बहादुरी को देश की तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने भी सलाम किया था. 23 जनवरी 2009 को इसे बाकायदा वीरता पुरस्कार से नवाज़ा गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आतंकियों के खि‍लाफ गवाही देने वाले दिल्ली के दिलेर को ऑटोग्राफ के साथ एक घड़ी तोहफे में दी. उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के अलावा कई संस्थाओं ने इसके बेमिसाल हौसले को तमाम इनामों और मेडलों से नवाजा.

सड़क पर रहने वाला बच्चा यां बनने लगा. सरकार ने इसे एक निजी सुरक्षा गार्ड दे दिया, जो हर वक्त साए की तरह इसके साथ रहता. सरकार को ये फ़िक्र तो रही कि इस नौजवान की ज़िंदगी आतंकियों से महफ़ूज़ रहे. लेकिन सात साल पुराने वादे को पूरा करने की कोई फिक्र नहीं की सरकार ने. आतंकी हमलों के इस इकलौते चश्मदीद को पुलिस और सरकार ने मिलकर चिल्ड्रन वैलफेयर होम भेज दिया ताकि इसकी ज़िंदगी संवारी जा सके. पांचवी में दाखिला भी मिल गया अंग्रेजी सीखी, ख़ूब पढ़ाई की. तमाम हुनर सीख गया.यहां तक कि थिएटर भी किया.. साथ ही इसी दौरान लगातार तारीख़ों पर सीरियल ब्लास्ट के गुनहगारों को सज़ा दिलवाने के लिए अदालत में गवाही देने भी जाता रहा.

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वक्त गुज़रता गया. सात साल बीत गए. इन सात सालों में आतंकियों के ख़िलाफ़ गवाही देने वाला बच्चा अब बड़ा और बालिग हो चुका था. जिन हाथों में गुब्बारे थे उनमें इस देश के सिस्टम ने किताबें थमा दीं. मगर, उसी सिस्टम ने दोबारा उन हाथों में गुब्बारे थमा दिए हैं. सरकार, पुलिस और जांच एजेंसियां या यूं कहें कि पूरा सिस्टम महज़ सात साल में सबकुछ भूल गया.. फिर भी उस शख़्स की कहानी यहां खत्म नहीं होती क्योंकि, उसने फुटपाथ पर लौटने के बाद एक कसम खाई है.

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