'होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिए, इन परकटे परिंदों की कोशिश तो देखिए...' करीब 300 किलोमीटर के पहाड़ी इलाकों में डेढ़ लाख लोग फंसे थे. न खाना, न पानी, न सिर पर छत, न ज़मीन की गोद, न रास्ते और न मंज़िल पर पहुंचने की उम्मीदें. आसमान से आई आफत डेढ़ लाख लोगों को हर पल मौत के करीब ले जा रही थी. पर तभी उसी आसमान से ज़िंदगी आई और एक-एक ज़िंदगी को बचाकर ले गई.
अलकनंदा की गुस्साई सहेलियों की ऐसी बेलगाम और कातिलाना लहरें उठीं कि जो भी उनके रास्ते में आया, या तो उसे बहा दिया या फिर इतनी दूर फेंक दिया कि वापस अपनी दुनिया में आना ही उनके लिए मुश्किल हो गया, क्योंकि उन्हें उनकी दुनिया तक पहुंचाने वाले तमाम ज़मीनी रास्ते खुद अपनी मंजिल से बिछड़ चुके थे. करीब 300 किलोमीटर के दायरे में पहाड़ियों के ऊपर-नीचे उफनती नदियों के इर्द-गिर्द और दूर-दराज जंगलों में डेढ़ लाख से ज्यादा लोग फंसे थे. अब उनकी जिंदगी पूरी तरह से रहमो-करम पर थी उसी आसमानी मदद के, जिस आसमान से ही उनके सिर पर मुसीबत का बादल फटा था.
इसके साथ ही शुरू हुआ उत्तराखंड में सदी का सबसे बड़ा ऑपरेशन. डेढ़ लाख लोगों को उनकी दुनिया में बा-हिफाज़त वापस लाने का ऑपरेशन. आसमानी तेवर अब भी कड़े थे. बादलों का जमावड़ा अब भी लगा था. मौसम अब भी बदमिजाज़ था और नीचे ज़मीन जहां-तहां नदारद. उड़ना भी मुश्किल, उतरना भी खतरनाक. पर सवाल डेढ़ लाख ज़िंदगियों का था. लिहाज़ा आसमान और ज़मीन, दोनों की अनसुनी कर हवाई मददगारों ने जान जोखिम में डालकर अपना फर्ज निभाने का फैसला किया.
सेना, वायुसेना, सरकारी और गैर सरकारी मिलाकर 60 चॉपर देहरादून पहुंचा. सेना के तीनों अंगों के अलावा आईटीबीपी और बीआरओ के करीब 15 हजार जवान कमर कस चुके थे. सबसे मुश्किल रेस्क्यू ऑपरेशन की रूपरेखा तैयार हो चुकी थी. तय हुआ कि जहां ज़रा-सी भी गुंजाइश होगी, वहां चॉपर उतरेगा और फंसे लोगों को बचाएगा.
इसके साथ ही देहरादून के जॉली ग्रांट एयरपोर्ट और गोचर के आर्मी बेस पर चॉपर कतार से खड़े किए गए. सारे चॉपर इन्हीं दो जगहों से उड़ने और उतरने थे. पर मुश्किल ये थी कि शुरुआत में यह पता ही नहीं चल रहा था कि लोग कहां-कहां फंसे हैं? किन-किन इलाको में मदद की जरूरत है. लिहाज़ा बाकी जगहों से इसकी जानकारी जुटाने के अलावा पहली कुछ उड़ानों ने सिर्फ और सिर्फ यही पता लगाने की लिए उड़ान भरी.
पहली कुछ उड़ानों से काफी कुछ साफ हो गया कि कहां-कहां सबसे ज्यादा हालत खराब हैं और कहां-कहां फौरी मदद की जरूरत है. तस्वीरें सामने थीं. टारगेट का पता चल चुका था. लिहाज़ा अब हर चॉपर को अलग-अलग टारगेट दे दिया गया और इसी के साथ आसमानी मददगार की पहली उड़ान परवाज़ भरती है.
देर से हुआ तबाही का अंदाजा
सरकार देर से जागी. तबाही और बर्बादी का अंदाज़ा देर से हुआ. इसी देरी के चलते पहाड़ों में आसमानी राहत को भी पहुंचने में देर लगी. पर एक बार जैसे ही ये वहां पहुंचे, बस उसी वक्त शुरू हो गया हाल के सालों में देश का सबसे बड़ा रेस्क्यू ऑपरेशन. डेढ़ लाख लोगों को ढूंढकर उन्हें मौत के मुंह से निकालना बॉर्डर पर किसी ताकतवर दुश्मन से जंग जीतने से कम नहीं है.
एमआई 17 उत्तराखंड में आर्मी के अस्थाई एयरबेस यानी गोचर से गुप्तकाशी तक के लिए उड़ान भरने को तैयार है. हेलीकॉप्टर में इस वक्त कुछ फौजी अफ़सर और जवान खाने-पीने की चीज़ों और दवाइओं के साथ उड़ान भरने जा रहे हैं, ताकि पहाड़ों पर फंसे लोगों को निकालने के साथ-साथ वहां मौजूद दूसरे लोगों तक बुनियादी ज़रूरत की ये चीज़ें वक्त पर पहुंचाई जा सकें.
तैयारी पूरी हो चुकी है. लिहाज़ा, पायलट अपनी कुर्सी संभाल लेते हैं और फिर अगले चंद सेकेंड में हेलीकॉप्टर हवा से बातें करने लगता है. ख़राब मौसम और बारिश के खतरों के बीच पहाड़ों के बीच होता हुआ ये हेलीकॉप्टर तकरीबन 20 मील का हवाई सफ़र पूरा कर गुप्तकाशी पहुंचता है. केदारनाथ से 22 किलोमीटर दूर इस जगह पर अब भी हज़ारों ऐसे लोग मौजूद हैं, जिन्हें सेना की मदद की दरकार है, ताकि वो यहां से निकल महफ़ूज़ ठिकानों तक पहुंच सकें. लेकिन एक एमआई 17 हेलीकॉप्टर एक बार में इतने लोगों को एयरलिफ्ट नहीं कर सकता. लिहाज़ा, पहले से गुप्तकाशी में मौजूद फौजी अब एक-एक कर लोगों को यहां से निकालने की तैयारी शुरू कर देते हैं.
इसके बाद पहले तो एयर ड्रॉपिंग के ज़रिए ज़रूरत की चीज़ें वहां फंसे लोगों तक पहुंचाई जाती है, फिर एक-एक कर लोगों को हेलीकॉप्टर की तरफ़ लाया जाता है. आर्मी ने इसके लिए टोकन का भी इंतज़ाम किया है, ताकि बूढ़े, बीमार, महिलाओं और बच्चों को तवज्जो दी जा सके. अब लाइन से एक-एक कर लोगों को हेलीकॉप्टर में जगह दी जाती है. चूंकि एमआई 17 दुनिया के सबसे बड़े हेलीकॉप्टरों में से एक है, इसमें 5 क्रू मैंबर और फ़ौजियों के अलावा कुल 14 लोगों को लिफ्ट किया जाता है, फिर ये हेलीकॉप्टर एक बार फिर अपने ठिकाने यानी गोचर के लिए रवाना हो जाते हैं.
हेलीकॉप्टर तकरीबन 20 मिनट का सफ़र तय कर गोचर के एयरबेस तक दोबारा आ पहुंचता है. फ़ौज के तमाम जांबाज़ों के लिए ये भले उनकी एक्सरसाइज़ का एक हिस्सा हो, लेकिन इस हेलीकॉप्टर में सवार होकर यहां तक पहुंचे इन लोगों के लिए ये ज़िंदगी की उड़ान है. लिहाज़ा, इस उड़ान के पूरी होने के बाद यहां पहुंचे हर शख्स के चेहरे पर कामयबारी और राहत की एक लकीर देखी जा सकती है. कई लोग यहां अपनों से लिपट कर रोने लगते हैं और फिर यहां से आगे अपने-अपने घरों के लिए उनका सफ़र शुरू हो जाता है. लेकिन दूसरी तरफ इसी एयरबेस पर एक दूसरा हेलीकॉप्टर ज़िंदगी की एक दूसरी उड़ान पर निकल पड़ता है.
पिछले दस दिनों से भी ज़्यादा का वक़्त इस बात का गवाह है कि जब-जब इन हेलीकॉप्टरों ने उड़ान भरी, अनगिनत टूटती सांसों की डोर फिर से जुड़ी हैं. फिर चाहे वो दुनिया के सबसे बड़े एमआई 17 और एमआई 26 हेलीकॉप्टर हों या फिर मीडियम या लाइटवेट चॉपर. बारिश और धुंध की चादरों के बावजूद आसमान में इन हेलीकॉप्टरों की हर उड़ान के साथ कुदरत की मार झेल रहे इंसानों की उम्मीद ने भी नई उड़ान ली है.
इस ऑपरेशन में इंडियन आर्मी और एयरफोर्स के दो हेलीकॉप्टर सबसे असरदार साबित हुए. 20 से ज़्यादा एमआई-17 और एमआई-26 हेलीकॉप्टरों ने ये दिखा दिया कि किस तरह ज़रूरत पड़ने पर फौजियों को जंग के मैदान तक पहुंचानेवाले ये मशीन इंसान की ज़िंदगी बचाने के काम आ सकते हैं.
यह तो रही बड़ी मशीनों यानी बड़े हेलीकॉप्टर की बात, पहाड़ों पर ऐसी जगहें भी कम नहीं, जहां इतने बड़े हेलीकॉप्टरों के पंखों के लिए आसमान भी छोटा पड़ जाए. ऐसी ही जगहों के लिए एयरफोर्स ने 16 एडवांस्ड लाइट हेलीकॉप्टरों का इंतज़ाम किया था, जो ज़िंदगी और मौत की इस लड़ाई में तुरुप का इक्का साबित हुए.
आर्मी ने अपने इस ऑपरेशन के लिए गोचर को अपना बेस कैंप बना रखा था, जबकि बाकी सरकारी और गैर सरकारी लाइट हेलीकॉप्टर देहरादून के जॉली ग्रांट एयरपोर्ट से उड़ान भर रहे थे. इन्हीं जगहों से हर रोज़ हेलीकॉप्टरों ने बद्रीनाथ, केदारनाथ, गुप्तकाशी, उत्तरकाशी, हरसिल और धरासू जैसे ठिकानों के लिए उड़ान भरी और एक-एक कर पहाड़ों में फंसे लोगों को निकाल लिया.
पर कुदरत का सितम देखिए. एक वक्त ऐसा भी आया, जब दूसरों को बचाते-बचाते मंगलवार को 20 जवानों ने मौत को गले लगा लिया. गौरीकुंड में एयरफोर्स का हेलीकॉप्टर क्रैश हो गया और उसमें सवार सभी जवान शहीद हो गए. सैनिकों की ये शहादत सीमा पर जंग में जान देने से कम नहीं थी.
हेलीकॉप्टरों की परवाज़ चाहे जितनी भी ऊंची क्यों न हो, उन्हें उतरना तो ज़मीन पर ही था. फिर जब ज़मीन पर राहत और बचाव का सिलसिला शुरू हुआ, तो फिर फ़ौज की जांबाज़ी की एक नई दास्तान पूरी हो गई. कहीं पहाड़ों में फंसे, तो कहीं खाइयों में घिरे हज़ारों लोगों को निकाल लिया गया.
दो पहाड़ों के बीच ऊफनती नदी की धार और ऊपर सिर्फ़ एक रस्सी के सहारे ज़िंदगी का जंग जीतने की कोशिश कामयाब रही. बद्रीनाथ मंदिर के क़रीब मंदाकिनी नदी के ऊपर से लोगों को बचाए जाने का मंज़र देखने भर से जिस्म में झुरझुरी पैदा हो जाती है. लेकिन सेना ने इसी तरह से एक नहीं, दो नहीं, बल्कि हज़ारों लोगों की जान बचा ली.