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इधर लीवर खींचा, उधर फंदे पर लटका जिस्म और निकलने लगी जान, ऐसे दी जाती है फांसी

फांसी देने से पहले क्या होता है. फांसी घर या फांसी कोठी में क्या होता है. फांसी के बाद क्या होता है. फांसी का गवाह कौन-कौन बनता है. ऐसे सैकड़ों सवाल हैं फांसी को लेकर जिनके जवाब हर कोई जानना चाहता है.

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पूरे देश को निर्भयाकांड के दोषी 4 दरिंदों की फांसी का इंतजार है
पूरे देश को निर्भयाकांड के दोषी 4 दरिंदों की फांसी का इंतजार है

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इधर लीवर खींचा. उधर तख्ता हटा. इधर तख्ता हटा और उधर गले में कसे फंदे पर पूरा शरीर हवा में झूल गया. पैर के नीचे ज़मीन नहीं होती. फंदा कसता गया और दम निकलता गया. क्या बस यही है फांसी? इसी तरह फांसी दी जाती है? इसी को फांसी कहते हैं? क्या एक वक्त में एक ही गुनहगार को फांसी दी जा सकती है?

क्या अपने देश में कभी चार लोगों को एक साथ फांसी दी गई है? फांसी देने से पहले क्या होता है. फांसी घर या फांसी कोठी में क्या होता है. फांसी के बाद क्या होता है. फांसी का गवाह कौन-कौन बनता है. ऐसे सैकड़ों सवाल हैं फांसी को लेकर जिनके जवाब हर कोई जानना चाहता है.

दोषियों को फांसी, निर्भया को इंसाफ

और ये सारे सवाल इस वक्त चार लोगों की वजह से उठ रहे हैं, जिनके नाम हैं मुकेश, पवन, अक्षय, विनय. निर्भया के ये वो चार गुनहगार हैं, जिनके हिस्से में मौत की सजा आई है. मौत से बचने के इनके सारे कानूनी दरवाजे अब बंद हो चुके हैं. सिर्फ एक रहम का दरवाजा खुला था जिसकी अर्जी ऱाष्ट्रपति के पास है. लेकिन रहम की उम्मीद ना के बराबर है. राष्ट्रपति भवन से कभी भी दया याचिका खारिज हो सकती है. और जैसे ही ऐसा होता है. इन चारों के नाम पटियाला हाउस कोर्ट से ब्लैक वारंट जारी कर दिया जाएगा. ब्लैक वारंट यानी मौत का आखिरी पैग़ाम.

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क्या होता है ब्लैक वारंट?

ब्लैक वारंट जारी होते ही आजाद हिंदुस्तान में फांसी पाने वाले ये 58वें. 59वें, 60वें और 61वें गुनहगार होंगे. देश में पहली फांसी महात्मा गांधी के हत्यारे नाथुराम गोडसे को हुई थी जबकि आखिरी यानी 57वीं फांसी 2015 में याकूब मेमन को दी गई थी.

तिहाड़ में आखिरी फांसी अफजल गुरु को!

तो कायदे से इन चारों की मौत की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है. मौत की ख़बर अब कभी भी आ सकती है. और ये खबर बाहर आएगी तिहाड़ जेल से. जहां मुकेश, विनय और अक्ष्य पिछले सात सालों से बंद हैं. जबकि पवन जो कि अब तक मंडोली जेल में बंद था, उसे भी अब मंडोली जेल से तिहाड़ भेज दिया गया है. क्योंकि मंडोली जेल में फांसी देने का इंतजाम नहीं है.

सुनसान जगह पर है फांसी कोठी

1945 में तिहाड़ जेल बनना शुरू हुआ था. 13 साल बाद 1958 में तिहाड़ बन कर तैयार हुआ. और कैदी वहां आना शुरू हो गए. अंग्रेजों के ज़माने में ही तिहाड़ के नक्शे में फांसी घर का भी नक्शा बनाया गया था. उसी नक्शे के हिसाब से फांसी घर बनाया गया. जिसे अब फांसी कोठी कहते हैं. ये फांसी कोठी तिहाड़ के जेल नंबर तीन में कैदियों के बैरक से बहुत दूर बिल्कुल अलग-थलग सुनसान जगह पर है.

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क्या है फांसी कोठी, डेथ सेल

जेल नंबर तीन में जिस बिल्डिंग में फांसी कोठी है, उसी बिल्डिंग में कुल 16 डेथ सेल हैं. डेथ सेल यानी वो जगह जहां सिर्फ उन्हीं कैदियों को रखा जाता है, जिन्हें मौत की सज़ा मिली है. डेथ सेल में कैदी को अकेला रखा जाता है. 24 घंटे में सिर्फ आधे घंटे के लिए उसे बाहर निकाला जाता है टहलने के लिए. डेथ सेल की पहरेदारी तमिलनाडु स्पेशल पुलिस करती है. दो-दो घंटे की शिफ्ट में इनका काम सिर्फ और सिर्फ मौत की सजा पाए कैदियों पर नजरें रखने का होता है. ताकि वो खुदकुशी करने की कोशिश ना करे. इसीलिए डेथ सेल के कैदियों को बाकी और चीज तो छोड़िए पायजामे का नाड़ा तक पहनने नहीं दिया जाता.

डेथ सेल में अकेले होते हैं कैदी

ब्लैक वारंट पर दस्तखत होने के बाद फांसी की तारीख और वक्त जेल प्रशासन के सुझाव और तैयारी को देख कर अदालत तय करती है. इसके बाद सबसे पहला काम होता है, फांसी के लिए जल्लाद ढूंढना और दूसरा काम फंदे की रस्सी का इंतजाम करना. हालांकि देश में पिछली तीन फांसी जो कसाब, अफजल गुरू और याकूब मेमन को दी गई वो तीनों फांसी बगैर पेशेवर जल्लाद के दी गई. तीनों ही मामले में लिवर पुलिस वाले ने ही खींचा था.

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फांसी के लिए मनीला रोप

फांसी का फंदा किसी आम रस्सी का नहीं बनाया जाता. बल्कि ये एक खास रस्सी होती है. जिसे मनीला रोप कहते हैं. फांसी के फंदे के लिए ये रस्सी देश में सिर्फ बिहार की बक्सर जेल में तैयार होती है. अफजल गुरू की फांसी के लिए बक्सर से मनीला रोप मंगवाया गई थी. जिसकी कीमत थी 860 रुपये. हालांकि रस्सी से ज्यादा पैसे तो किराए में ही खर्च हो गए थे.

अफजल गुरु के ट्रायल में 2 बार टूटी थी रस्सी

एक बार मनीला रोप जेल पहुंचन जाने के बाद अब उसी रस्सी से ट्रायल होता है. ट्रायल यानी फांसी देने से पहले फांसी की प्रैक्टिस. इसके लिए बाकायदा फांसी पर चढ़ाए जाने वाले शख्स की लंबाई, वजन गर्दन की नाप, सब लिया जाता है. फिर ठीक उसी साइज और वजन के सैंड बैग को फंदे पर झुलाया जाता है. यही वजह है कि जिस शख्स को फांसी दी जानी होती है, उसके वजन और लंबाई का रिकार्ड रोजाना अपडेट होता रहता है. अफजल गुरू की फांसी के पहले ट्रायल के दौरान दो बार रस्सी टूट गई थी.

ऐसे तैयार होती है फांसी की रस्सी

फांसी के लिए रस्सी की लंबाई भी कैदियों के वजन के हिसाब से तय होती है. दरअसल, जिस तख्ते पर फांसी दी जाती है. उस तख्ते के नीचे कुएं की गहराई 15 फीट होती है. ताकि जमीन और झूलते पैर के बीच पूरा फासला हो. फांसी के फंदे पर झूलने वाले शख्स का वजन अगर 45 किलो या उससे कम है तो फिर तख्ते के नीचे कुएं में लटकने के लिए रस्सी की लंबाई ज्यादा रखी जाती है. जो करीब आठ फीट होती है. जबकि फांसी पर चढ़ाए जाने वाले शख्स का वजन अगर 90 किलो या उससे ज्यादा है, तो कुएं में झूलने के लिए रस्सी की लंबाई कम रखी जाती है. करीब छह फीट. ऐसा इसलिए होता है वजन की वजह से रस्सी पर दबाव ज्यादा पड़ता है. रस्सी की लंबाई की नाप सिर से नहीं बल्कि बाएं कान के नीचे जबड़े से ली जाती है. क्योंकि फांसी के फंदे की गांठ वहीं से शुरू होती है.

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निर्भया के गुनहगारों को एक साथ फांसी!

तिहाड़ के जेल नंबर तीन में जो फांसी कोठी है उस फांसी कोठी में पहली और आखिरी बार एक साथ दो लोगों को फांसी अब से 37 साल पहले 31 जनवरी 1982 को रंगा-बिल्ला को दी गई थी. चार लोगों को एक साथ फांसी तिहाड़ में कभी नहीं हुई. मगर निर्भया के गुनहगारों की तादाद चार है. हालांकि देश में चार लोगों को एक साथ इससे पहले भी फांसी हो चुकी है. पर वो पुणे की यड़वडा जेल में हुई थी. 27 नवंबर 1983 को. जोशी अभयंकर केस के नाम से मशहूर दस लोगों का कत्ल करने वाले चार लोगों को तब एक साथ फांसी दी गई थी. तो क्या निर्भया के चारों गुनहगारों को भी एक साथ तिहाड़ में फांसी दी जा सकती है?

दो-दो करके भी दी जा सकती है फांसी

तिहाड़ में जो फांसी कोठी है उसके तख्ते की लंबाई करीब दस फीट है. यानी इतनी जगह काफी है. जिसके ऊपर एक साथ चार लोगों को खड़ा किया जा सके. बस इसके लिए तख्ते के ऊपर लोहे के रॉड पर चार फांसी के फंदे कसने होंगे. तख्ते के नीचे भी लोहे की रॉड होती है. जिससे तख्ता खुलता और बंद होता है. इस रॉड का कनेक्शन तख्ते के साइड में लगे लिवर से होता है. लिवर खींचते ही नीचे का रॉड हट जाता है और तख्त के दोनों सिरे नीचे की तरफ खुल जाते हैं. जिससे तख्त पर खडे शख्स के पैर नीचे कुएं में झूल जाते हैं.

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डेथ सेल में आखरी पल

फांसी से एक या दो दिन पहले फांसी दिए जाने वाले शख्स को डेथ सेल से निकाल कर दूसरे सेल में डाल दिया जाता है. चूंकि फांसी कोठी डेथ सेल के करीब है. ऐसे में फांसी की तैयारी को लेकर क्या कुछ चल रहा है. कैसे ट्रायल हो रहा है. ये सब वो देख ना सके इसलिए ऐसा किया जाता है.

वसीयत और आखिरी मुलाकात

फांसी से पहले अगर मरने वाला कोई वसीयत करना चाहता है तो बाकायदा डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को जेल बुलवाकर उनके सामने उसकी वसीयत लिखी जाती है. इसी तरह आखिरी बार जिस रिश्तेदार से भी वो मिलना चाहे उससे भी उसे मिलवाया जाता है.

फांसी से पहले पूछी जाती है चाय

जिस सुबह फांसी दी जानी है. उस सुबह करीब चार बजे ही फांसी पर चढ़ने वाले को उठा दिया जाता है. उससे नहाने और नए कपड़े पहनने को कहा जाता है. कई बार कैदी नहाने या नए कपड़े पहनने से मना कर देता है. जैसे रंगा-बिल्ला ने किया था. मौत की सुबह कैदी को सिर्फ चाय के लिए पूछा जाता है.

सेल से फांसी के तख्ते तक का सफर

इसके बाद ब्लैक वारंट पर लिखे वक्त के हिसाब से कैदी को उसके सेल से बाहर निकाला जाता है. उसके इर्द-गिर्द 12 हथियारबंद गार्ड होते हैं. कई बार तो कैदी को बाकायदा कंधे से उठा कर ले जाया जाता है क्योंकि मौत के डर की वजह से उसके पैर तक कांप रहे होते हैं. कैदी को सेल से फांसी के तख्ते तक उसका चेहरा ढक कर ले जाया जाता है. ताकि उसके आस-पास क्या चल रहा है वो देख ना सके.

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मजिस्ट्रेट की मौजूदगी में होती है फांसी

फांसी घर में कितने लोग रहेंगे. इसके लिए भी जेल मैन्यूअल में साफ लिखा है. एक डाक्टर जो डेथ सर्टिफिकेट पर दस्तखत करता है. एक सब डिविजनल मजिस्ट्रेट. जिनकी निगरानी में फांसी की पूरी प्रक्रिया होती है. जेलर और डिप्टी सुप्रीटेंडेंट जेलर. इसके अलावा 10 कांस्टेबल और दो हेड कांस्टेबल या फिर इतने ही हथियारबंद गार्ड वहां मौजूद रहते हैं.

फांसी के वक्त किसका क्या रोल

फांसी कोठी पहुंचने के बाद आम तौर पर कोई भी जेल स्टाफ या जल्लाद आपस में बात नहीं करते हैं. सब खामोश रहते हैं. इसके आगे की सारी कार्रवाई इशारों में होती है. जेलर ब्लैक वारंट के हिसाब से तय वक्त होते ही रूमाल नीचे की तरफ गिरा कर इशारा करता है. लिवर पकड़े जल्लाद या पुलिसवाला लिवर खींच देता है. लिवर खींचने के आधे घंटे बाद पहली बार डॉक्टर मरने वाले की धड़कनें और नब्ज टटोलता है. अगर ध़ड़कन रुक गई और नब्ज थम गई तब डॉक्टर के इशारे पर फांसी के फंदे से लाश नीचे उतार ली जाती है.

फांसी के प्रकिया के दौरान जेल में नहीं होता कोई काम

क़ैदी जितना भारी होता है, फांसी के दौरान उसकी गर्दन भी उतनी ही ज़्यादा खिंचती है. जेलर या जल्लाद हमेशा यही दुआ मांगते हैं कि फांसी के दौरान क़ैदी की मौत गर्दन की हड्डी टूटने से ही हो. क्योंकि इससे मौत कम तकलीफदेह और कम वक्त में होती है. पूरी फांसी की कार्रवाई के दौरान जब तक फांसी अपने अंजाम को नहीं पहुंच जाती और जब तक लाश फंदे से नीचे नहीं उतार ली जाए, तब तक पूरी जेल के अंदर हर काम रोक दिया जाता है. हर कैदी अपने सेल अपने बैरक में होता है. जेल में कोई मूवमेंट नहीं होता. ये जेल मैनुअल का हिस्सा है. पर एक बार जैसे ही फांसी की प्रकिया खत्म होती है तो जेल की ज़िंदगी दोबारा शुरू हो जाती है.

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