इंसान की पहचान ही उसके वजूद को जीने की वजह देती है. लेकिन जब पहचान, परेशानी और परेशानी दाग बन जाए तो जीना मुहाल हो जाता है. फिर उनकी तो सबसे बड़ी परेशानी यही थी कि उन्हें पूरा समाज ना तो मर्द मानता था और ना ही औरत.
समाज के बनाए दस्तूर में अब तक बस दो जेंडर या यूं कहें कि दो ही दर्जा है. यानी आप या तो मर्द हो सकते हैं या औरत. लेकिन देश की सबड़े बड़ी अदालत ने मंगलवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए देश को एक तीसरा जेंडर यानी तीसरा दर्जा दे दिया. जी हां, अब देश में मौजूद पचास लाख से भी ज्यादा किन्नरों को तीसरे दर्जे में शामिल कर लिया गया है.
जब अचानक टिक जाती हैं उनपर नजरें
कभी भीड़ में तो कभी घर के आंगन में. कभी सड़क पर तो कभी किसी महफिल में. कभी ढोलक की थाप पर तो कभी तालियों की आवाज पर थिरकते उन चेहरों को आपने कई बार देखा होगा. ये वो हैं जो जब-जब सामने आते हैं नजरें ना चाहते हुए भी उनपर टिक जाती हैं. इनकी पहचान ही कुछ ऐसी बनी हई थी कि हर खासो-आम इनसे बस किसी तरह पीछा छुड़ाना चाहता था. लेकिन जब खुद ये किसी के पीछे पड़ जाएं तो फिर इनसे पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता.
दुनिया में और दुनिया के साथ-साथ हिंदुस्तान में भी अब तक बस दो श्रेणियां यानी दो जेंडर थीं और इन्हीं दो दर्जों यानी मर्द और औरत को तमाम जरूरी पहचान, हक, सुविधाएं, अधिकार हासिल थीं. मगर 15 अप्रैल को देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि उस फैसले के आते ही अचानक अब एक तीसरा जेंडर यानी तीसरे दर्जे ने जन्म ले लिया है.
पिछड़ी जातियों के समान अधिकार
देश की पचास लाख से भी ज्यादा किन्नरों को इजज्त से सिर उठा कर जीने का हक दे दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें थर्ड जेंडर करार देकर वो सारे अधिकार देने को कहा है जो पिछड़ी जातियों को हासिल हैं. इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी, आरक्षण सभी शामिल हैं. इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में किन्नरों को बच्चा गोद लेने का अधिकार देने के साथ-साथ उन्हें सेक्स चेंज करवाकर औरत या मर्द बनने का भी अधिकार दे दिया है.
अपने इस हक के लिए किन्नर बिरादरी वर्षों से लड़ाई लड़ रही थी. 1871 से पहले तक भारत में किन्नरों को ट्रांसजेंडर का अधिकार मिला हुआ था. मगर 1871 में अंग्रेजों ने किन्नरों को क्रिमिनल ट्राइब्स यानी जरायमपेशा जनजाति की श्रेणी में डाल दिया था. बाद में आजाद हिंदुस्तान का जब नया संविधान बना तो 1951 में किन्नरों क्रिमिनल ट्राइब्स से निकाल दिया गया. मगर उन्हें उनका हक तब भी नहीं मिला था.
हालांकि तब से अब तक ये किन्नर उसी दुनिया में रह रहे थे, जिसमें हम और आप रहते हैं. लेकिन इनसे हमारी और आपकी मुलाकात सिर्फ खुशियों के मौके पर होती है. मर्जी से या जबरदस्ती. जिन्हें बदनसीब समझा जाता है उनका काम है सिर्फ दुआएं देना. लेकिन इन दुआ देने वालों का भी एक सच है.
हर साल 40-50 हजार किन्नर, लेकिन कैसे?
हमारे और आपके लिए किन्नर सिर्फ किन्नर होते हैं. ज्यादातर लोग या तो किन्नरों का सामना करने से बचते हैं या फिर उनसे नफरत करते हैं. शायद ही कोई हो जो किन्नरों को करीब से जानने की कोशिश करता हो. शायद ही कोई हो जिसने किन्नरों की दुनिया में झांकने की कोशिश की हो.
किन्नरों की दुनिया की सच्चाई बेहद खौफनाक और खुलासों भरा है. देश में हर साल किन्नरों की संख्या में 40-50 हजार की वृद्धि होती है. देशभर के तमाम किन्नरों में से 90 फीसद ऐसे होते हैं जिन्हें बनाया जाता है. फिलहाल देश में किन्नरों की चार देवियां हैं. समय के साथ किन्नर बिरादरी में वो लोग भी शामिल होते चले गए जो जनाना भाव रखते हैं.
किन्नरों की दुनिया के अपने कानून हैं और अपने रिवाज. किन्नरों की जब मौत होती है तो उसे किसी गैर किन्नर को नहीं दिखाया जाता. ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से मरने वाला अगले जन्म भी किन्नर ही पैदा लेगा. किन्नर मुर्दे को जलाते नहीं बल्कि दफनाते हैं.
ख्वाब और हकीकत के बीच
किन्नरों की जिंदगी रहस्यमय होती है और यही समाज के दूसरे लोगों को उनके प्रति उत्सुक रखता है. किन्नरों की दुनिया का एक खौफनाक सच यह भी है कि यह समाज ऐसे लड़कों की तलाश में रहता है जो खूबसूरत हो. जिसकी चाल-ढाल थोड़ी कोमल हो और जो ऊंचा उठने के ख्वाब देखता हो. यह समुदाय उससे नजदीकी बढ़ाता है और फिर समय आते ही उसे बधिया कर दिया जाता है. बधिया, यानी उसके शरीर के हिस्से के उस अंग को काट देना, जिसके बाद वह कभी लड़का नहीं रहता.