'कबीरा खड़ा बाजार में मांगे सबकी खैर, ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर.'
बहुत पहले कबीर ने ये दोहा बनारस के बाजार में खड़ा होकर कहा था. लेकिन तब उन्हें शायद की यह अंदाजा हो कि अब उसी बनारस में वो वक्त भी आएगा, जब गंगा की लहरें भी सियासत के बाजार में हिचकोले खाने लगेंगी. कहने वाले कह रहे हैं कि इस बार दिल्ली का रास्ता बनारस से होकर जाने वाला है. लिहाजा सुनने वालों ने बनारस को ही घेरने की तैयारी कर ली है और उसी तैयारी की पहली सीढ़ी बने हैं बाहुबली मुख्तार अंसारी.
बनारस कहिए, वारणसी या फिर काशी. पर ये वही है जहां कबीर ने बाजार में खड़ा होकर मजहब पर हावी रस्मों-रिवाज और परंपराओं के खिलाफ आवाज बुलंद की थी. जात-पात और धर्म की बुराइयों के खिलाफ कमजोरों को अपने दोहों के जरिए राह दिखाई थी. अब उसी बनारस में वो वक्त भी आएगा कि गंगा की लहरें सियासत के बाजार के दमखम पर खड़ी खुद ही अपनी एक नई लहर को हैरत से देखकर हैरान हो जाएंगी.
गंगा, धर्म, सियासत और दिल्ली
16वीं लोकसभा अंगड़ाई ले चुकी है और इसमें बनारस जो करेगा अब बस सभी की नज़रें उसी पर गड़ी हैं. जाहिर है ऐसे में बनारस के लिए दलों में आपाधापी सबसे तेज है. मगर बेचैनी सबसे ज्यादा बीजेपी में है, क्योंकि इसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी शिव की नगरी से होकर ही दिल्ली जाना चाहते हैं. जबकि बाकी सारे दल किसी भी तरह मोदी का रास्ता काटने में जुट गए हैं.
सात फुट से भी ऊंचे लहीम-शहीम बाहुबली मख्तार अंसारी का बनारस के चुनावी रस को चखने से इनकार करना कोई यूं ही नहीं है. इसके पीछे एक पूरी गहरी सोच है. वो सोच जिसे अमली जामा पहनाने के लिए उसी दिन कवायद शुरू हो गई थी जिस दिन आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को लेकर शिवगंगा एक्सप्रेस ने बनारस की राह पकड़ी थी.
दरअसल 2009 के लोकसभा चुनाव में मुख्तार अंसारी का रिपोर्ट कार्ड देखते हुए मोदी विरोधी दलों को ये अहसास हो चुका था कि अगर मुख्तार इस बार चुनाव ना लड़ें तो तय है कि बनारस के मुसलमानों का वोट एकमुश्त केजरीवाल की झोली में जाना तय है. अगर ऐसा हो गया तो केजरीवाल वही करिश्मा बनारस में भी दोहरा सकते हैं जो उन्होंने नई दिल्ली में किया था.
कहां फंसा सियासी पेंच
वर्ष 2009 में मुख्तार अंसारी ने बीएसपी के टिकट पर वाराणसी से लोकसभा का चुनाव लड़ा था. उनके सामने थे बीजेपी के कद्दावर नेता मुरली मनोहर जोशी. उस चुनाव में मुख्तार अंसारी सिर्फ 17 हज़ार 87 वोटों से हारे थे. मुरली मनोहर जोशी को 2 लाख 3 हजार 122 वोट मिले थे जबकि मुख्तार अंसारी को एक लाख 85 हजार 911 वोट मिले थे.
लोकल विधायक अजय राय जो इस बार बनारस से कांग्रेस के उम्मीदवार हैं 2009 में समाजवादी पार्टी की टिकट पर लड़े थे और एक लाख 23 हजार 874 वोट लेकर तीसरे नंबर पर रहे थे. यानी अगर अजय राय और मख्तार अंसारी का वोट मिला दें तो मुरली मनोहर जोशी करीब एक लाख वोट पीछे रहते. और बस यही वो चीज है जिसे मोदी विरोधी दल इस बार के चुनाव में भुनाना चाहते हैं. और इसमें सबसे अहम भूमिका हो जाती है मुख्तार अंसारी की.
यूपी में मऊ के मौजूदा विधायक मुख्तार अंसारी 4 बार से मऊ से ही विधानसभा का रिकॉर्ड चुनाव जीत चुके हैं. वो भी भारी मतों से. बनारस और आसपास के पूरे इलाके में मुख्तार अंसारी का जबरदस्त बोलबाला भी है पर ऐसा नही हैं कि मुख्तार के इनकार के साथ ही बनारस का सस्पेंस खत्म हो गया. अभी इसमें कुछ दिन और लगेंगे. वैसे भी जल्दी नहीं है, क्योंकि बनारस में चुनाव सबसे आखिर में यानी 12 मई को है. अभी तो आप के नेता और आप की टीम का बनारस में डेरा डालना बाकी है.
अभी शुरू होगा चुनावी खेल
जाहिर है काशी में असली चुनावी खेल आप के डेरा डालने के बाद शुरू होगा. खेल मोदी के नाम पर बनारस के मुस्लिम वोटरों को एकजुट करने का. ताकि उनका वोट कांग्रेस, बीएसपी या एसपी में ना बटे. माहौल ऐसा बने कि बनारस के मुस्लिम वोटरों को यकीन हो जाए कि काशी में अगर मोदी को कोई रोक सकता है तो वो सिर्फ केजरीवाल हैं. मुख्तार का बनारस से चुनाव ना लड़ने का ऐलान उसी कोशिश की पहली जीत है.
हिंदुत्व की केंद्रभूमि
नरेंद्र मोदी के लिए भी वाराणसी की सीट महज एक सीट नहीं है. वाराणसी पूर्वांचल का दिल तो है ही हिंदुत्व की केंद्रभूमि भी है. पूर्वांचल में लोकसभा की 23 सीटें हैं और माना जा रहा है कि वाराणसी से मोदी की उम्मीदवारी से सभी 23 सीटों पर बीजेपी की दावेदारी को दम मिल सकता है. बीजेपी की चुनावी रणनीति फिलहाल ज़बरदस्त दिख रही है, लेकिन पार्टी को अब ये डर डरा रही है कि मुख्तार अंसारी का ये मास्टर स्ट्रोक कहीं बना बनाया खेल न बिगाड़ दे.
दरअसल बनारस की फिजाओं का असर है कि यहां राजनीति भी संस्कृति की उंगली पकड़कर चलती है. गंगा की लहरों की तरह ही यहां राजनीति भी कल-कल करती पल-पल बदलती है. लेकिन ये बदलाव हमेशा ही व्यवस्था में एक नई उम्मीद की अकुलाहट का अंजाम होता है.
मोदी और केजरीवाल की दौड़
वैसे सियासी चाल भले ही बरानस के वोटरों को बाट दे, लेकिन इस नगरी की एक-दूसरे पर निर्भरता से हिंदू-मुसलमान दोनों के बीच एक ऐसा ताना-बाना बनता है जो कबीर की झीनी-झीनी चदरिया तक जा पहुंचता है. यही वजह है कि नफरतों की पथरीली घाटी में भी यहां मोहब्बत के गुलाबों का खिलना अभी भी रुका नहीं है. अलबत्ता गंगा किनारे इस मजबूत ताने-बाने के रहते हुए भी एक सवाल इस शहर में जरूर घूम रहा है कि आखिर नरेंद्र मोदी ने वाराणसी को ही क्यों चुना? और केजरीवाल उनके पीछे-पीछे यहां क्यों चले आए?
सवाल ये भी है कि जो लोग बनारस में सियासत का सितारा चमकाने आए हैं क्या काशी उनके राजनीतिक भाग्य का सूरज चमकने देगी? अगर उनकी खोज कुछ और होती वो शांति की तलाश में आते, मन को शांत करने आते तो बात समझ में आती. मगर उनकी तलाश तो वर्चस्व की तलाश है तो उन्हें शांति कहां से मिलेगी? तभी तो कबीर ने बनारस के बाजार में खड़ा होकर कहा था...
मोको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तोरे पास रे
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलाश में
ना तो कोनो क्रिया कर्म में ना ही योग वेरान में
खोज होवे तो तुरंत मिलिहे पल भर की तलाश में
यह वही बनारस है जहां गंगा से सिर्फ हिन्दू का ही ताल्लुक नहीं है, बल्कि मुस्लमान का भी बड़ा मजबूत रिश्ता है. वह इसके पानी से वजू करता है. गंगा उसके लिए भी जिंदगी का पैग़ाम लाती है. यहां की तहजीब बिस्मिल्ला से शुरू होकर भोलेनाथ के चरणों तक पहुंचती है.
यहां के मुस्लिम बुनकरों के बुने कपड़े हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों की शोभा बढ़ाते हैं. कारोबारी और सामाजिक लिहाज से भी हिन्दू-मुस्लमान दोनों का ताना-बाना ही कबीर की झीनी-झीनी चदरिया तक पहुंचता है, जो भारतीय संस्कृति का एक अहम रंग है. लेकिन क्या यहां भी जब चुनाव का वक्त आएगा तो ये सारा सामजिक ताना-बाना बिखर जाएगा और कबीर के मुल्ला पंडित की अजानें और घंटों की आवाजें जुदा हो जाएंगी? सियासत इबादत का रंग बदल देगी ताकि हुकूमत की जंग जीती जा सके? क्या बनारस बिस्मिल्लाह खान की शहनाई से निकलती शिव रंजनी की तान भुला देगा? क्या सुब्हे बनारस पर नफरत की सियासत हावी हो जायेगी?
इस यकीन के साथ कि गंगा किनारे वाले हमेशा गंगा के पानी की तरह साफ और शीतल मन के मालिक होते हैं लिहाजा वो झीनी-झीनी चदरिया का ताना-बाना मिटने नहीं देंगे. कबीर की इन लाइनों को तब तक दोहराते रहेंगे जब तक कि चुनावी नतीजे नहीं आ जाते...
झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया झीनी-झीनी बीनी
काहे का ताना, काहे की वर्नी, कौन तार से वीनी चदरिया
झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया झीनी-झीनी बीनी