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दिल्ली गैंगरेप को एक साल बीता, पर बदला क्या?

गम, गुस्से और आंसुओं की उंगली पकड़कर इंसानों के बीच मौजूद भेड़ियों से मुक़ाबला करने पहली बार ये देश पिछले साल 16 दिसंबर को निकल तो पड़ा था, लेकिन क्या हुआ? क्या हुआ उस गुस्से का जो अपना आपा खोता नज़र आ रहा था? क्या हुआ पत्थरों की जगह हाथों में उठाई गईं उन मोमबत्तियों की लौ का? क्या हुआ उस ग़म का जो परे देश की आंखें नम कर गया था? क्या 16 दिसंबर के बाद सब कुछ बदल गया? या फिर सिर्फ तारीख बदली हैं?

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गम, गुस्से और आंसुओं की उंगली पकड़कर इंसानों के बीच मौजूद भेड़ियों से मुक़ाबला करने पहली बार ये देश पिछले साल 16 दिसंबर को निकल तो पड़ा था, लेकिन क्या हुआ? क्या हुआ उस गुस्से का जो अपना आपा खोता नज़र आ रहा था? क्या हुआ पत्थरों की जगह हाथों में उठाई गईं उन मोमबत्तियों की लौ का? क्या हुआ उस ग़म का जो परे देश की आंखें नम कर गया था? क्या 16 दिसंबर के बाद सब कुछ बदल गया? या फिर सिर्फ तारीख बदली हैं?

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16 दिसंबर 2012 के बाद अखबारों की सुर्खियां इस बात की गवाह हैं कि उस माहौल का असर भेड़ियों पर नहीं हुआ. याद कीजिए इंडिया गेट पर जमा लोगों का हुजूम, मोमबत्तियों से टपकते आंसूओं का गर्म लावा और बिल्कुल उसके नज़दीक 24 दिसंबर की रात. एक पांच सितारा होटल में एक बुज़ुर्ग कहा जाने वाला इज़्ज़तदार इंसान अपनी पोती की उम्र की लड़की को वाइन पिलाकर मुंह काला करने की तरकीबें सोच रहा था. इस बार इलज़ाम किसी और पर नहीं बल्कि रिटायर्ड जस्टिस पर लग रहा था.

इसलिए हम कह रहे हैं, बदला कुछ भी नहीं. बस आबादी बढ़ती गई. गुनाहों की फेहरिस्त में कुछ और गुनाह जुड़ते गए. सच्चे, झूठे, फ़ौरी और फर्जी, लेकिन उनके जवाब में देह से उठती हुई चीख हमेशा से बेगुनाह थी, है और रहेगी. उस शर्मनाक, खौफ़नाक रात की इस वर्षगांठ पर जज्बात एक बार फिर उमड़ पड़े.

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मां-बाप की तकलीफ़ें शायद समझ से परे हैं. हर बेटी सुबह जब घर की दहलीज़ पार करके दुनिया में जाती है तो हर धड़कन निर्भया की याद दिलाती है और तबतक चैन नहीं मिलता जबतक वो वापस न आ जाए.

पिछले साल दिसंबर में जब ज्योति (जिसे निर्भया कहा गया था) अस्पताल में अपनी सांसों से लड़ रही थी तब हम सब अपने अंदर लड़ रहे थे. कहते हैं कि दुनिया के हर ग़म पर वक़्त अपना मरहम ज़रूर लगाता है. इस ग़म को भी एक साल हो गया, पर पता नहीं क्यों इस ग़म पर वक्त भी अपना मरहम नहीं लगा पाया. ऐसा लगता है 16 दिसंबर का ये ग़म अब कभी दूर नहीं होगा.

12 दिन वो अस्पताल में अपनी सांसों से लड़ती रही और सब लोग अपने अंदर लड़ते रहे. उसकी रूह ने उस जिस्म को आख़िर छोड़ ही दिया जो उसका सबसे बड़ा दुश्मन था. जिसकी चाहत किसी को दरिंदा बना सकती थी. वो हार गई तो क्या हम जीत गये???

क्या उसके बाद अब कोई दरिंदगी का शिकार नहीं होगी? वो 12 दिन क्या बस हमारे लिए एक याद बनकर रह जायेंगे? या हम ख़ुद को सोचने पर मजबूर करेंगे कि क्यों ऐसे होता है कि एक लड़की अपनी तमाम आज़ादियों के साथ इस समाज में इज़्ज़त के साथ नहीं रह सकती?

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जो बलात्कार सामने नहीं आते, जिन पर पर्दा डाला जाता है, वो बलात्कारी जो घर की चारदीवारी के अंदर ही बैठा है, उससे कैसे बचा जाए? जिस समाज में महिलाओं को इस्तेमाल की चीज़ समझा जाता है वहां बलात्कारियों को फांसी की सज़ा देना, क्या कोई जवाब हो सकता है?

और सबसे बड़ा सवाल ये कि क्या इस जुर्म की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ उन मर्दों पर है जिन्हें ये पता ही नहीं कि वो क्या कर हैं या फिर उन औरतों पर भी है जो अपने बेटों की, अपने पिताओं की, अपने भाइयों की और अपने पतियों की ऐसी हरकतों पर सदियों से पर्दा डालती आ रही हैं?

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