दिल्ली हाई कोर्ट ने बुधवार को वैवाहिक बलात्कार यानि मैरिटल रेप (Marital rape) के अपराधीकरण की मांग वाली याचिकाओं पर एकमत ना होते हुए विभाजित फैसला सुना दिया. इसके मुताबिक इस मुद्दे को अब सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भेजा जाएगा. वहीं इसका निपटारा होगा. यही वजह है कि इस मामले को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाने वाली और इंसाफ की मांग करने वाली महिलाओं का इंतजार अब लंबा हो सकता है.
दिलचस्प बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कर्नाटक उच्च न्यायालय के उस आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया है, जिसमें पत्नी द्वारा अपने पति के खिलाफ दायर बलात्कार के मामले को खारिज करने से इंकार कर दिया गया है और पति के लिए मैरिटल रेप का अपवाद पूर्ण नहीं है.
इस मामले ने फिर से सहमति जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर ध्यान केंद्रित किया है. महिला यौन स्वायत्तता पर राज्य के नियंत्रण की सीमा और औपनिवेशिक युग के कानून, जिसमें आईपीसी 1860 की धारा 375 के अपवाद 2 शामिल हैं, जो मैरिटल रेप की छूट को निर्धारित करता है. कानून कहता है कि अगर पत्नी की उम्र पंद्रह वर्ष से कम नहीं है, तो अपनी पत्नी के साथ किसी पुरुष द्वारा यौन संबंध या यौन कृत्य बलात्कार नहीं है.
जबकि जस्टिस राजीव शकधर ने धारा 376 आईपीसी के तहत आपराधिक अभियोजन से उन पुरुषों की रक्षा करने वाले अपवाद 2 को खारिज कर दिया, जिन्होंने अपनी पत्नियों को बिना सहमति सेक्स करने के लिए मजबूर किया है. न्यायमूर्ति सी हरि शंकर ने यह कहते हुए असहमति जताई कि अपवाद 2 अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन नहीं करता है.
न्यायमूर्ति शकधर ने कहा, 'अब तक के आक्षेपित प्रावधान सहमति के बिना पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ सेक्स करने से संबंधित हैं, जो अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है और इसलिए इसे रद्द कर दिया जाता है.'
न्यायमूर्ति शंकर ने कहा, 'मैं इससे सहमत नहीं हूं. यह दिखाने के लिए कोई समर्थन नहीं है कि आक्षेपित अपवाद अनुच्छेद 14, 19 या 21 का उल्लंघन करता है. इसमें एक सुगम अंतर है. मेरा विचार है कि ये चुनौती टिक नहीं सकती.'
हालांकि दोनों न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील करने के लिए छुट्टी का प्रमाण पत्र देने पर सहमत हुए क्योंकि इस मामले में कानून के महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल हैं. सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों ने अपने सवालों के ज़रिए साफ कर दिया था कि इस मुद्दे पर उनके विचारों में अंतर होगा.
हर दिन की सुनवाई में न्यायमूर्ति शकधर ने जोर देकर कहा कि जब एक प्रेमिका या लिव-इन पार्टनर ने ना कहा, तो जबरन सेक्स एक अपराध था और कहा कि रिश्ते को एक अलग आधार पर नहीं रखा जा सकता है. हालांकि, न्यायमूर्ति हरि शंकर ने उन लोगों के बीच यौन समीकरण में गुणात्मक अंतर को रेखांकित किया, जो एक-दूसरे से विवाहित थे और जो विवाहित नहीं थे.
सुनवाई के दौरान केंद्र ने सुनवाई के निलंबन की मांग करते हुए कहा कि उसे व्यापक परामर्श की आवश्यकता है लेकिन उच्च न्यायालय ने आगे बढ़कर मामले का फैसला किया.
मैरिटल रेप के अपराधीकरण की मांग वाली याचिका 2015 और 2017 से अदालत के समक्ष लंबित थी. ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वूमेन्स एसोसिएशन इस मामले में अदालत के समक्ष प्रमुख याचिकाकर्ताओं में से एक थी.
फैसले का स्वागत करते हुए सुप्रीम कोर्ट की वकील रेखा अग्रवाल ने कहा कि ये फैसला इस दिशा में एक कदम आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करता है. अगर आप अपने चारों ओर देखें, तो आप पाएंगे कि पाकिस्तान सहित 100 से अधिक देशों ने मैरिटल रेप को अपराध बना दिया है. इंग्लैंड में जहां इस औपनिवेशिक विरासत का जन्म हुआ, वहां भी 1991 में मैरिटल रेप को अपराध घोषित कर दिया गया. इसलिए अब समय आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट भी इस पर विचार करे.
रेखा अग्रवालने आगे कहा कि यह एक ऐसा खतरा है, जिसे न केवल वर्तमान पीढ़ी के लिए दूर किया जाना चाहिए, बल्कि भविष्य में महिलाओं के साथ समान व्यवहार करने के लिए एक संकेत के रूप में भी इसे देखा जाना चाहिए, चाहे वो विवाह में हो या बाहर. भारत के पड़ोसी देश नेपाल ने साल 2006 में मैरिटल रेप को अपराध घोषित किया और राष्ट्रीय नागरिक संहिता में भी संशोधन किया.
इसी तरह से पाकिस्तान में बलात्कार की परिभाषा में बदलाव किए गए और महिला सुरक्षा अधिनियम 2006 के पारित होने के बाद मैरिटल रेप को एक जुर्म के रूप में मान्यता दी गई. हालांकि, सेक्स एक वर्जित विषय मानने के कारण वहां कई मामले अदालतों तक नहीं पहुंचते हैं.
(कानू सारदा की रिपोर्ट)