दिल्ली दंगे 2020. ये सुनते हैं तो आपके दिमाग में क्या आता है? मार-धाड़, तोड़ फोड़… दिल्ली दंगे की चीख सुनाई देती है कभी? जवाब तालाशती आंखों की भूख दिखाई देती है कभी? शायद कुछ समय बाद दंगे महज़ एक ईवेंट बन जाता है. टीवी न्यूज़ चैनलों पर डिबेट होने लगती है तो प्रवक्ता चीखते चिल्लाते कभी 84 का जाप जपते हैं, कभी 2002 का. लेकिन इन सब खबरों और ईवेंट के पार कुछ लोग हैं, जो दंगों में ‘अपना’ खो देते हैं.
किसी की जीवन भर की कमाई से बना घर या दुकान राख में तब्दील हो जाता है तो किसी का पारिवारिक सदस्य ही राख बन जाता है.
शिव विहार का मोनू अपने डेढ़ साल के बच्चे के लिए दूध लेने घर से बाहर निकला. सामने से दंगाइयों की गोली भी निकली और भेजे के आर-पार हो गई. पिता 74 साल के हैं, हम पहले दिन ढूंढते-ढूंढाते उनके घर जब पहुंचे तो सीढ़ी पर चढ़कर कमरे की पुताई कर रहे थे ताकि कमरा किराए पर चढ़ाया जा सके, इस किराए की ज़िंदगी का गुज़ारा करने के लिए.
14 फरवरी को मुस्तफाबाद के अशफाक की शादी हुई. 25 फरवरी को एक जानकार का फोन आया और कहने लगे कि अशफाक मियां अब तो शादी भी हो गई, कई दिनों से बिजली का काम पेंडिंग है, वो कर जाओ. नाला पार किया ही था कि कुछ दंगाइयों ने पीट पीटकर अशफाक को मार डाला. अशफाक का मतलब दया होता है. शादी के 11 दिन बाद अशफाक की पत्नी के हाथ की मेहंदी देख सब उसे दया भाव से ही देख रहे थे.
ये महज़ दो कहानिया हैं. ऐसी अनेकों कहानियां है जो हमारे ज़हन में दाखिल तक नहीं हो पाती. दी लल्लनटॉप की डॉक्यूमेंट्री ‘दहली’ इसी दर्द का बखान करती है. और एक टाइमलाइन भी बताती है कि कैसे सिटिज़नशिप अमेंडमेंट एक्ट बनने के बाद दिल्ली के चुनावों से होते हुए उत्तर पूर्वी दिल्ली दंगाइयों का स्टेडियम बन जाता है. इस डॉक्यूमेंटी को रजत सैन और रूहानी ने बनाया है.