देश की आजादी के 75 साल पूरे हो जाने के मौके पर आजादी का अमृत महोत्सव (Azadi ka Amrit Mahotsav) मनाया जा रहा है. 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजी हुकूमत से हिंदुस्तान को आजादी मिली थी. लेकिन इसके लिए कई स्वतंत्रता सैनानियों को अपनी जान की कुर्बान देनी पड़ी थी. मगर देश आजाद हो जाने के बाद भी कई ऐसे मौके आए जब हमारे देश की सीमा पर कई जांबाज जवानों ने अपनी शहादत दी.
दरअसल, हमारे देश को आजादी मिलने के बाद दो पड़ोसी मुल्क हमेशा से हमारे लिए खतरा बने रहे हैं. उन्होंने जब भी भारत की तरफ आंख उठाई तो हमारे देश की सेना ने उन्हें मुंहतोड़ जवाब दिया. भारत की आजादी के बाद हमारी सेना ने कुल 5 युद्ध लड़े. जिनमें से 4 पाकिस्तान के साथ तो 1 चीन के साथ लड़ा गया था.
पहला युद्ध भारत-पाकिस्तान 1947-48 441 दिन
दूसरा युद्ध भारत-चीन 1962 32 दिन
तीसरा युद्ध भारत-पाकिस्तान 1965 50 दिन
चौथा युद्ध भारत-पाकिस्तान 1971 13 दिन
पांचवां युद्ध भारत-पाकिस्तान 1999 85 दिन कारगिल
इन सभी युद्धों के दौरान भारत के कई दिलेर और जांबाज फौजियों ने अपना शौर्य दिखाया. दुश्मनों का मुकाबला करते हुए हमारे देश की सेना, वायुसेना और नौसेना के कई जवानों ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. ऐसे तमाम शहीदों का बलिदान हमारा देश कभी भुला नहीं सकता. आज हम बात करेंगे देश के ऐसे ही 10 योद्धाओं की, जिन्होंने ने अपना जीवन राष्ट्र के नाम कर दिया था.
वीर अब्दुल हमीद
कम्पनी क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हमीद भारतीय सेना की 4 ग्रेनेडियर में एक सिपाही थे. जिन्होंने 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान खेमकरण सैक्टर के आसल उत्ताड़ में अद्भुत वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति प्राप्त की थी. जिसके लिए उन्हें मरणोपरान्त भारत का सर्वोच्च सेना पुरस्कार परमवीर चक्र देकर सम्मानित किया गया था. जब पाकिस्तानी सेना ने भारतीय गांव आसल उत्ताड़ पर हमला किया तो भारतीय सैनिकों के पास न तो टैंक थे और नहीं बड़े हथियार. ऐसे में शहीद होने से पहले परमवीर अब्दुल हमीद ने महज अपनी गन माउन्टेड जीप से उस समय अजेय समझे जाने वाले पाकिस्तान के पैटन टैंकों को तबाह कर दिया था. कहते हैं उन्होंने युद्ध स्थल को पैटन टैंकों की कब्रगाह बना दिया था. जब पाकिस्तानी सेना के लोग भागने लगे तो अब्दुल हमीद उनका पीछा करने लगे तभी उनकी जीप पर एक गोला गिर जाने से वे बुरी तरह जख्मी हो गए थे और 9-10 सितम्बर की दरम्यानी रात उनका स्वर्गवास हो गया था.
मार्शल ऑफ द एयर फोर्स अर्जन सिंह
अर्जन सिंह (डीएफसी) का पूरा नाम अर्जन सिंह औलख था. वह भारतीय वायु सेना के एकमात्र अधिकारी थे, जिन्हें मार्शल ऑफ द एयर फोर्स पद पर पदोन्नत किया गया था. 16 सितंबर 2017 को 98 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ. वह भारतीय वायुसेना के प्रमुख पद पर 1964-69 तक आसीन रहे. 1965 के भारत-पाक युद्ध के समय वायु सेना की कमान को सफलतापूर्वक संभालने के लिए उन्हें भारत सरकार ने पद्म विभूषण से सम्मानित किया था. इसी के बाद 1966 में उन्हें एयर चीफ मार्शल बनाया गया था. वायु सेना से सेवानिवृत्त हो जाने के बाद उन्होंने भारत सरकार के राजनयिक और परामर्शदाता के रूप में भी कार्य किया था. 1989 से 1990 तक वे दिल्ली के उपराज्यपाल भी रहे थे.
फील्ड मार्शल मानेक शॉ
उनका पूरा नाम सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ था. 1969 को उन्हें सेनाध्यक्ष बनाया गया था. जब 1971 में भारत-पाक युद्ध हुआ तो उनके नेतृत्व में ही भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ जीत हासिल की थी. जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का जन्म हुआ था. इसके बाद 1973 में उन्हें फील्ड मार्शल का सम्मान दिया गया था. 1973 में सेना प्रमुख के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद वे वेलिंगटन, तमिलनाडु में जाकर बस गए थे. वृद्धावस्था में उन्हें फेफड़े संबंधी बिमारी हो गई थी, जिसकी वजह से वह कोमा में चले गए. वेलिंगटन के सैन्य अस्पताल के आईसीयू में 27 जून 2008 की रात 12.30 बजे उनकी मृत्यु हो गई थी. मानेक शॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में एक पारसी परिवार में हुआ था. उनका परिवार गुजरात के शहर वलसाड से अमृतसर पहुंचा था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा अमृतसर में हुई फिर वे नैनीताल के शेरवुड कॉलेज चले गए थे. वह देहरादून की इंडियन मिलिट्री एकेडमी (IMA) के पहले बैच (1932) के लिए चुने गए 40 छात्रों में से एक थे. 1934 में वे भारतीय सेना के लिए चुने गए थे. 1937 में उनकी मुलाकात लाहौर में सिल्लो बोडे से हुई थी. 2 साल की दोस्ती के बाद 22 अप्रैल 1939 को उन दोनों ने शादी कर ली थी.
ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान
ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान (एमवीसी) जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तानी सैनिकों से लड़ते हुए 3 जुलाई 1948 को शहीद हो गए थे. इसके बाद उन्हें दुश्मन के सामने असाधारण बहादुरी दिखाने के लिए भारत के दूसरे सबसे बड़े सैन्य पदक महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था. वे भारतीय सेना के एक शानदार और जांबाज अधिकारी थे. भारत-पाक विभाजन के वक्त उन्होंने कई अन्य मुस्लिम अधिकारियों के साथ पाकिस्तानी सेना में जाने से इनकार कर दिया था और वे भारतीय सेना में ही रहे. उन्होंने जीवनभर भारत की सेवा की और इसी देश की खातिर लड़ते हुए शहीद हुए थे. जानकार बताते हैं कि अगर ब्रिगेडियर उस्मान शहीद ना होते तो वे भारतीय सेना के पहले मुस्लिम सेनाध्यक्ष होते. 'नौशेरा के इस शेर' ने महज 36 साल की उम्र में शौर्य और पराक्रम की जो गाथा लिखी, वो भारत के इतिहास में अजर-अमर है.
ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चांदपुरी
कुलदीप सिंह का जन्म अविभाजित भारत के पंजाब क्षेत्र में मांटगोमेरी में 22 नवंबर 1940 को हुआ था. उनके पिता सरदार वतन सिंह थे. उनका पैतृक गांव चांदपुर रुरकी था, जो बलचौर में है. उस वक्त कुलदीप एनसीसी के सक्रिय सदस्य थे और जब उन्होने 1962 में होशियारपुर गवर्नमेंट कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की, तभी वे एनसीसी की परीक्षा भी उत्तीर्ण हो गए थे. कुलदीप सिंह भारतीय सेना में सेवा देने वाले अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी के सैन्य अधिकार थे. उनके दोनों चाचा भारतीय वायुसेना में ऑफिसर थे. कुलदीप सिंह 1962 में भारतीय सेना में भर्ती हुए थे. उन्होने ऑफिसर्स ट्रेनिंग एकेदमी, चेन्नै से कमीशन प्राप्त किया और पंजाब रेजिमेन्ट की 23वीं बटालियन में शामिल हुए. 1965 के युद्ध में उन्हें पश्चिमी सेक्टर में तैनात किया गया था. युद्ध के बाद उन्होंने एक साल के लिए संयुक्त राष्ट्र के आपातकालीन बल को अपनी सेवाएं दी और गाजा (मिस्र) में कार्यरत रहे. दो बार वे महू, मध्य प्रदेश के प्रतिष्ठित इन्फैंट्री स्कूल में इन्स्ट्रक्टर भी रहे. उन्होंने लोंगावाला के प्रसिद्ध युद्ध में भारतीय सेना का वीरता के साथ नेतृत्व किया था. जिसके लिए उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था. इसके साथ ही ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चांदपुरी को परमवीर चक्र, विशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित किया गया. बॉलीवुड की मशहूर फिल्म 'बॉर्डर' लोंगेवाला के युद्ध पर ही आधारित है, जिसमें ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह का किरदार अभिनेता सन्नी देओल ने निभाया था.
लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे
कैप्टन मनोज कुमार पांडेय का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में हुआ था. उनके पिता का नाम गोपीचन्द्र पांडेय और मां का नाम मोहिनी था. इंटरमीडियेट की पढ़ाई पूरी करने के बाद मनोज का दाखिला पुणे के पास खड़कवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (NDA) में हो गया था. प्रशिक्षण पूरा करने के बाद वह 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली वाहनी के अधिकारी बन गए थे. 3 जुलाई 1999 को कश्मीर में कारगिल युद्ध के दौरान वे वीरगति को प्राप्त हुए. उनकी असाधारण वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता पदक परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था.
कैप्टन विक्रम बत्रा
कैप्टन विक्रम बत्रा 7 जुलाई 1999 को कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व वीरता दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे. उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था. विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हुआ था. जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सैन्य अकादमी (IMA) देहरादून में प्रवेश पाया था. दिसंबर 1997 में प्रशिक्षण खत्म हो जाने पर उन्हें 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर इलाके में सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली थी. उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई अन्य प्रशिक्षण हासिल किए थे. 1 जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया था. हम्प और राकी नाब जीतने के बाद विक्रम को लेफ्टिनेंट से कैप्टन बनाया गया था. उनकी बहादुरी के किस्से हमेशा अमर रहेंगे.
ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव
योगेन्द्र सिंह यादव को कारगिल युद्ध के दौरान 4 जुलाई 1999 को असाधारण वीरता का प्रदर्शन करने के लिए उच्चतम भारतीय सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था. मात्र 19 वर्ष की आयु में परमवीर चक्र हासिल करने वाले ग्रेनेडियर यादव, सबसे कम उम्र के फौजी हैं, जिन्हें यह सम्मान प्राप्त हुआ था. ग्रेनेडियर यादव 18 ग्रेनेडियर्स के साथ कार्यरत कमांडो प्लाटून 'घातक' का हिस्सा थे, जिसने 4 जुलाई 1999 के शुरुआती घंटों में टाइगर हिल पर तीन सामरिक बंकरों पर कब्ज़ा किया था. यादव स्वेच्छा से चट्टान पर चढ़ गए थे और हालात को देखते हुए वहां रस्सियों का जाल फैला दिया था. तभी आधे रस्ते में दुश्मन ने बंकर से मशीन गन और रॉकेट से हमला कर दिया था. जिसमे प्लाटून कमांडर और दो अन्य जवान शहीद हो गए थे. तब गले और कंधे में तीन गोलियों के लगने के बावजूद, योगेंद्र सिंह यादव चोटी के शीर्ष पर पहुंच गए थे और फिर गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद वह पहले बंकर में घुस गए और एक ग्रेनेड से चार पाकिस्तानी सैनिकों को उड़ा दिया था. उनकी वजह से ही बाकी प्लाटून को चट्टान पर चढ़ने का मौका मिला था और टाइगर हिल पर फिर से कब्जा हो गया था.
कैप्टन हनीफुद्दीन
देश की राजधानी दिल्ली के रहने वाले हनीफद्दीन का जन्म 23 अगस्त 1974 को हुआ था. महज 8 साल की कम उम्र में ही उन्होंने अपने पिता को खो दिया था. उनके दो भाई नफीस और समीर थे. उनकी मां हेमा अज़ीज़ एक शास्त्रीय संगीत गायिका थीं, जो दिल्ली में संगीत नाटक एकेडमी और कथक केन्द्र के लिए काम करती थीं. भारत-पाक के बीच कारगिल युद्ध प्रारंभ हो चुका था. उसी दौरान दुश्मन घुसपैठियों को रोकने के मकसद से 6 जून 1999 को लद्दाख के तुरतुक एरिया में 18000 फीट की ऊंचाई पर ऑपरेशन थंडरबॉल्ट शुरू किया गया था. जिसे 11वीं राजपुताना राइफल्स की एक टुकड़ी ऑपरेट कर रही थी. इस पूरे ऑपरेशन को कैप्टन हनीफुद्दीन लीड कर रहे थे. उनकी टीम में एक जूनियर कमीशन अधिकारी और 3 अन्य रैंक के अफसर शामिल थे. उन्होंने 4 - 5 जून की दरिम्यानी रात सफलतापूर्वक आस-पास की जगहों को दुश्मन सैनिकों से मुक्त करा लिया था. कैप्टन हनीफुद्दीन अदम्य साहस का परिचय देते हुए अपनी टुकड़ी के साथ आगे बढ़ रहे थे. 18,500 फीट की उंचाई और माइनस डिग्री से नीचे सर्द पारा भी उनके साहस को डिगा नहीं पाया था. इसी बीच दुश्मन ने कैप्टन हनीफुद्दीन की टुकड़ी पर गोलीबारी शुरू कर दी. बर्फ से ढकी चोटियों पर दुश्मन को मार गिराने के लिए हनीफ गोलाबारी के बावजूद आगे बढ़ते रहे. हथियार खत्म होने बावजूद आखिरी दम तक वो दुश्मन से लड़ते रहे. कैप्टन समझ गए थे कि दुश्मन की तादाद ज्यादा और उनकी टीम छोटी है. कैप्टन ने अपने साथियों को सुरक्षित जगह पर भेज दिया और दुश्मन का ध्यान भटकाया. इसी दौरान कैप्टन हनीफुद्दीन वीरगति को प्राप्त हुए. अपनी जान देकर भी उन्होंने अपने साथियों की जान बचा ली. महज 25 साल की उम्र में वे शहीद हो गए. कैप्टन हनीफुद्दीन को इस अदम्य साहस के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया.
कैप्टन अनुज नायर
कैप्टन अनुज नायर का जन्म 28 अगस्त 1975 को दिल्ली में हुआ था और उनका पालन-पोषण भी यहीं हुआ. उनके पिता सतीश कुमार नायर दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में एक गेस्ट प्रोफेसर के रूप में काम करते थे, जबकि उनकी मां मीना नायर दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस पुस्तकालय में काम करती थीं. अनुज एक मेधावी छात्र थे, उन्होंने शिक्षा और खेल में लगातार अच्छा प्रदर्शन किया था. नायर की शिक्षा आर्मी पब्लिक स्कूल, धौला कुआं में हुई थी. इसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (NDA) से स्नातक किया और बाद में भारतीय सैन्य अकादमी (IMA) से जून 1997 में 17वीं बटालियन, जाट रेजिमेंट (17 जाट) में कमीशन हासिल किया और भारतीय सेना के अधिकारी चुने गए. कैप्टन अनुज को 1999 में कारगिल युद्ध में दुश्मन का सामना करने के लिए भेजा गया. जहां कई अभियानों के दौरान उन्होंने युद्ध में अनुकरणीय वीरता दिखाई और 7 जुलाई 1999 को वो जंग में शहीद हो गए. मरणोपरांत उन्हें अदम्य साहस के लिए भारत के दूसरे सर्वोच्च वीरता पुरस्कार महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था.