scorecardresearch
 

Uttarkashi Tunnel Crisis: सुरंग में रेस्क्यू का वो मोमेंट जहां से रैट माइनर्स ने संभाला मोर्चा... कैसे टूटी 10 मीटर की वो अभेद्य दीवार!

उत्तरकाशी में सुरंग बनाने के दौरान ये हादसा दिवाली के दिन यानी 12 नवंबर के रोज़ हुआ था. जब सुबह 4 बजे अचानक टनल में मलबा गिरना शुरू हुआ और फिर इतनी तेजी से गिरने लगा कि देखते ही देखते सुरंग में काम कर रहे 41 मजदूर अंदर फंस कर रह गए थे.

Advertisement
X
रैट माइनर्स इस पूरे रेस्क्यू ऑपरेशन के हीरो बन गए
रैट माइनर्स इस पूरे रेस्क्यू ऑपरेशन के हीरो बन गए

Uttarkashi Tunnel Crisis: उत्तरकाशी की सुरंग में फंसे 41 मजदूरों को आखिरकार 17 दिनों की लंबी जद्दोजहद के बाद बाहर निकाल लिया गया. लेकिन सवाल ये है कि आखिर सुरंग के अंदर फंसे इन मजदूरों तक पहुंचने में इतना लंबा वक्त क्यों लगा? जिन रैट होल माइनर्स ने मोर्चा संभालने के कुछ ही घंटे के अंदर सुरंग में फंसे मजदूरों के करीब पहुंचने में कामयाबी हासिल कर ली, उन रैट होल माइनर्स को इस काम में लगाने में आखिर इतनी देर क्यों हुई? 

Advertisement

क्या अमेरिकी ऑगर मशीन, हाईड्रोलिक जैक, वर्टिकल ड्रिलिंग जैसे तरीके आज़माए जाने से पहले रैट होल माइनर्स को काम पर लगाए जाने से ये मिशन और आसानी से पूरा हो सकता था? आस्ट्रेलिया से लेकर नॉर्वे और थाईलैंड से लेकर अपने देश के विशेषज्ञों ने तमाम तरीके आज़मा लिए और फिर आखिरकार खुदाई के उस पुराने तरीके की तरफ लौटे, जिससे अब दुनिया दूरी बना चुकी है. तो आपको इन सारे सवालों के जवाब सिलसिलेवार तरीके से बताने की कोशिश करते हैं. 

12 नवंबर के दिन हुआ था हादसा
तो शुरुआत उस रैट होल माइनिंग से. जिस तरीके ने हादसे के 17वें दिन आखिरकार उम्मीद की वो किरण दिखाई, जिसका इंतजार पूरे देश को था. उत्तरकाशी में सुरंग बनाने के दौरान ये हादसा दिवाली के दिन यानी 12 नवंबर के रोज़ हुआ था. जब सुबह 4 बजे अचानक टनल में मलबा गिरना शुरू हुआ और फिर इतनी तेजी से गिरने लगा कि डेढ़ घंटे के अंदर सिलक्यारा छोर पर अंदर तक मलबे का भारी ढेर जमा हो गया और देखते ही देखते सुरंग में काम कर रहे 41 मजदूर अंदर फंस कर रह गए. एक वक्त के लिए तो ऐसा लगा कि शायद अब मजदूरों की ज़िंदगी नहीं बचेगी, लेकिन एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, बीआरओ, आईटीबीपी जैसी एजेंसियों को फौरन काम पर लगाया गया और मजदूरों को बचाए जाने की कोशिश शुरू कर दी गई.

Advertisement

15 नवंबर को आई थी अमेरिकी ऑगर मशीन 
इसके बाद एक-एक कर हॉरीजेंटल और वर्टिकल दोनों ही तरीके से ड्रिलिंग कर मजदूरों तक पहुंचने की कई कोशिशें शुरू हुई, लेकिन हर कोशिश को किसी ना किसी मुकाम पर झटका लगा और उम्मीदें कमजोर हुईं. आखिरकार 15 नवंबर को पहली बार अमेरिकी ऑगर मशीन से मलबे की खुदाई कर मजदूरों तक पहुंचने की नए सिरे से कोशिश शुरू हुई. लेकिन 15 नंवबर से लेकर 27 नवंबर तक ऑगर मशीन ने कई बार धोखा दिया. कभी ऑगर मशीन अंदर चट्टान से टकराई, तो कभी लोहे के बीम और चादरों से. 

25 नवंबर को रेस्क्यू ऑपरेशन हुआ बाधित
इससे पहले शुक्रवार यानी 25 नवंबर को तब एक बार फिर इस रेस्क्यू ऑपरेशन को जोर का झटका लगा, जब ऑगर मशीन फिर से स्टील के पाइप में फंस गया कर टूट गई. जाहिर है इस हालत से निराश हर कोई था, लेकिन रेस्क्यू ऑपरेशन की अगुवाई कर रहे इंटरनेशनल टनलिंग एक्सपर्ट अर्नाल्ड डिक्स ने इसके बाद जो बात कही उसने लोगों की उम्मीदें फिर से जगाई तो जरूर, लेकिन इसके साथ ही हर किसी को थोड़ा हैरान भी किया. क्योंकि ऑर्नल्ड डिक्स का कहना था कि अब आगे की खुदाई किसी मशीन से नहीं, बल्कि मैनुअली यानी हाथों से करनी होगी. और तभी पहली बार आया- रैट होल माइनर्स का नाम.

Advertisement

बुलाए गए रैट होल माइनर्स
जी हां, रैट होल माइनर्स. यानी चूहे की तरह जमीन की खुदाई करने वाले वो खास मजदूर जिन्हें इस काम में महारत हासिल है. वैसे तो देश में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने मजदूरों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए साल 2014 में ही रैट होल माइनिंग पर रोक लगा दी थी, लेकिन यहां उत्तरकाशी में मजदूरों की ज़िंदगी बचाने की ख़ातिर शासन-प्रशासन को उसी रैट होल माइनिंग का सहारा लेने का फैसला करना पड़ा. इसके बाद अलग-अलग एजेंसियों की मदद से देश के अलग-अलग हिस्से से रैट होल माइनर्स की एक टीम मौका-ए-वारदात पर बुलाई गई और उन्हें काम पर लगाया गया. पहले चरण में 12 रैट होल माइनर्स काम पर जुटे. 

छोटे औजार, बड़ा काम 
सुरंग खोदने की खास सलाहियत और समझ रखनेवाले वो मजदूर जो छोटे-मोटे औजारों के सहारे बेहद पतले और संकरे छेद बना कर मिट्टी में काफी अंदर तक चले जाते हैं, उन्हें रैट होल माइनर्स कहा जाता है. देश के कोयला खदानों में अवैध तौर पर चोरी-छुपे ऐसे माइनर्स कोयला निकालने के लिए सुरंग खोद कर सैकड़ों फीट नीचे चले जाते हैं और फिर अपनी-अपनी खेप के साथ बाहर निकल आते हैं. खासकर मेघालय के कोयला खानों में ऐसी रैट होल माइनिंग का अच्छा प्रचलन है. 

Advertisement

खतरनाक मानी जाती है रैट होल माइनिंग
लेकिन अक्सर ऐसी खुदाई से मिट्टी गिरने का खतरा होता है, जिसके चलते रैट होल माइनिंग को खतरनाक माना जाता है और इसी वजह से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने इसे बैन भी कर रखा है. हालांकि उत्तराखंड सरकार के नोडल अधिकारी ने साफ किया है कि उत्तरकाशी में जिन लोगों को रैट होल माइनिंग का काम सौंपा गया था, वो कोई कोई रैट होल माइनिंग मजदूर नहीं, बल्कि टेक्निकल एक्सपर्ट्स हैं.

अब बची थी महज 10 मीटर की दूरी
बहरहाल, अब आगे की कहानी वहीं से जहां 25 नवंबर को ऑगर मशीन टूटने की वजह से रेस्क्यू के काम को झटका लगा था. मशीन भले टूट गई, लेकिन एक अच्छी बात ये थी कि ऑगर मशीन ने इतने दिनों में मलबे का एक बड़ा हिस्सा काट दिया था. एक मोटे अनुमान के मुताबिक मशीन काफी हद तक फासला तय कर चुकी थी और बस कुछ ही मीटर की दूरी बाकी थी. 

27 नवंबर को निकाले गए मशीन के टूटे पार्ट
उस दिन सुबह 3 बजे सिलक्यारा की तरफ से फंसे ऑगर मशीन के 13 मीटर से ज्यादा लंबे पार्ट्स को भी निकाल लिया गया. और देर शाम तक ऑगर मशीन के हेड को भी मलबे से निकालने में सेना को कामयाबी मिल गई. अब बस इसके बाद शुरू हुआ रैट माइनर्स का वो करिश्मा. जिसका इंतजार लोग टकटकी लगाए कर रहे थे. रैट माइनर्स ने मैन्युअली ड्रिलिंग के ज़रिए कुछ घंटों में ही अंदर फंसे मजदूरों के बिल्कुल करीब तक पहुंचने का मिशन पूरा कर लिया.

Advertisement

कैसे काम करते हैं रैट माइनर?
असल में वहां लगाए गए तकरीबन 800 एमएम की साइज वाले एक पाइप के सहारे एक्सपर्ट्स पिछले कई दिनों से मजदूरों तक पहुंचने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन अगर ऑगर मशीन के दम तोड़ने के बाद रैट माइनर्स ने इसी पाइप के सहारे आगे का रास्ता तय करने का फैसला किया. दो अलग-अलग टीमों में बंटी 6 रैट माइनर्स की टोली उसी पाइप से अंदर जाती रही. हाथों से मिट्टी खोदती रही और उसे बाहर निकालती रही. 

बारी-बारी से काम कर रहे थे तीन-तीन माइनर्स
तीन-तीन माइनर्स ने बारी-बारी से ये काम किया. जिसमें एक माइनर खुदाई करता, दूसरा मिट्टी इकट्ठा करता और तीसरा उस मिट्टी को बाहर की ओर खिसका देता. कुछ इस तरह पहले एक मीटर, फिर दो मीटर, फिर तीन मीटर. और तब आगे का रास्ता तय होता रहा. ये काम कितना मुश्किल और पेचीदा है, इसका अंदाजा बस आप इसी बात से लगा सकता हैं कि जहां मलबे का पहाड़ लगा है, वहां एक बार में रैट माइनर्स बमुश्किल 6 से 7 किलो मलबे या मिट्टी की खेप ही बाहर निकाल पाते हैं. 

28 नवंबर को मजदूरों तक पहुंचे रैट माइनर्स
लेकिन हुनर और मेहनत की बदौलत ये माइनर्स आखिरकार 28 नवंबर की रात को रैट माइनर्स उसी पाइप के रास्ते मलबे की खुदाई का मजदूरों के करीब पहुंचने में कामयाब हो गए और इसी के साथ मजदूरों को भी एक नई जिंदगी की किरण दिखाई पड़ने लगी. और इसके बाद एक-एक कर 41 मजदूरों को बाहर निकाला गया. बाहर के आने के बाद उन लोगों ने कहा कि उन्हें ये दूसरी जिंदगी मिली है. 

Advertisement

पहले ही क्यों नहीं बुलाए गए रैट माइनर्स?
अब जवाब उस सवाल का, जिसका जिक्र हमने पहले ही किया था. सवाल ये कि क्या ऑगर मशीन, वर्टिकल ड्रिलिंग जैसे तमाम तरीकों की जगह पहले ही दिन से रैट माइनिंग के सहारे मजदूरों तक पहुंचने की कोशिश की जा सकती थी? अगर हां, तो ऐसा हुआ क्यों नहीं? तो जवाब है- नहीं. असल में मजदूरों और बाहर की दुनिया के बीच करीब 200 मीटर से ज्यादा का मलबा प़ड़ा था. ऐसे में अगर बगैर किसी मशीन के मैनुअली रैट माइनिंग के जरिए उन तक पहुंचने की कोशिश होती, तो शायद इस काम में महीनों का वक्त लग जाता. जिससे मजदूरों की जिंदगी पर खतरा हो सकता था. 

मशीन जितना काम कर चुकी थी, उसी से मिला फायदा
लेकिन चूंकि ऑगर मशीन समेत दूसरे उपकरणों ने मलबे का एक बड़ा हिस्सा पहले ही काट कर निकाल दिया, रैट माइनर्स के लिए बाकी के काम को पूरा करना मुमकिन हो पाया. अब जब आपने रैट माइनर्स के करिश्मे की कहानी सुन ली, तो आईए अब ये भी जान लीजिए कि आखिर ये रैट माइनर शब्द की उत्पत्ति कब और कैसे हुई? इसका इतिहास क्या है?

रैट माइनर्स का इतिहास
‘रैट होल माइनिंग’ शब्द का सबसे पहले इस्तेमाल अंग्रेज़ों ने किया था. ये बात 1920 के आसपास की है, जब हमारे देश में खनन शुरू ही हुआ था. उस समय कोयले की खदानों में बिल्कुल वैसे ही खनन हुआ करता था, जैसे चूहे अपना बिल बनाते हैं या ज़मीन में गड्ढा करते हैं. तब खनन में न तो मशीनों का इस्तेमाल हुआ करता था और ना ही विस्फोटकों का. बस लोग हथौड़ी या सरिया लेकर ज़मीन खोदते हुए कोयले तक पहुंच जाते थे. तब तकनीक इतनी विकसित नहीं हुआ करती थी. इसीलिए इसका नाम ‘रैट होल माइनिंग’ रखा गया.

Advertisement

सही फैसला
जानकारों की मानें तो हिमालय के पहाड़ बेहद कच्चे’ हैं. पृथ्वी की तुलना में ये पहाड़ बहुत नए हैं, इसलिए इनके पठार और चट्टानें भी कमज़ोर हैं. ऐसे में जब भी बड़ी मशीनों से ड्रिलिंग की जाती है तो ऊपर की लेयर नीचे धंसने का ख़तरा बना रहता है. इसलिए मानवीय तरीक़े से मज़दूरों तक पहुंचने का फ़ैसला बहुत अच्छा था.

(उत्तरकाशी से अंकित शर्मा, ओंकार बहुगुणा और आशुतोष मिश्र के साथ आजतक ब्यूरो)

Live TV

Advertisement
Advertisement