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'कसाब' से 'कासिम' तक...ऐसे बदलता गया आतंक का 'चोला'

2008 में कसाब आया, तो 2015 में कासिम. कसाब लश्कर का कमांडर था. कासिम लश्कर का लड़ाका. कसाब पाकिस्तान के फरीदकोट के ओकारा गांव का था. कासिम फैसलाबाद के गुलाम मोहम्मद अबद कालोनी का रहने वाला है.

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पाकिस्तान की जमीन पर तैयार होने वाले आतंकवादियों में बड़ा परिवर्तन आने लगा है.
पाकिस्तान की जमीन पर तैयार होने वाले आतंकवादियों में बड़ा परिवर्तन आने लगा है.

2008 में कसाब आया, तो 2015 में कासिम. कसाब लश्कर का कमांडर था. कासिम लश्कर का लड़ाका. कसाब पाकिस्तान के फरीदकोट के ओकारा गांव का था. कासिम फैसलाबाद के गुलाम मोहम्मद अबद कालोनी का रहने वाला है. कसाब गरीब परिवार से निकला था. कासिम मिडिस क्लास परिवार से निकला. कसाब फिदायिन था. कासिम सिर्फ हमलावर. जी हां, अब पाकिस्तान की जमीन पर तैयार होने वाले आतंकवादियों में भी बड़ा परिवर्तन आने लगा है.

लश्कर जो कल तक सिर्फ गरीब लड़कों को इस्लाम के नाम पर आतंक के लिए खड़ा करता था. वह अब पढे-लिखे लड़कों को भी अपने साथ जोड़ रहा है. ऐसे यह बात सामने आ रही है कि क्या लश्कर के आतंक की रणनीति ठीक उसी तरह बदली है, जैसे संसद पर हमले के बाद जब पाकिस्तान में लश्कर को लेकर सवाल उठे थे, तो हाफिज सऊद ने जमात-उल-दावा बना कर खुद को पाक-साफ करार दिया था.

लश्कर 1986 में बना, तो 2002 में जमात-उल-दावा. दोनों में सबसे बडा अंतर यही था कि लश्कर बंदूक उठाता, लेकिन जमात-उल-दावा सामाजिक तौर पर काम करता. लश्कर के साथ ज्यादातर इस्लाम के नाम पर बंदूक उठाने वाले वैसे युवा जुड़ते, जो गरीबी से निकले थे या फिर इस्लाम के नाम पर आतंक को भी जायज ठहराते. लेकिन अब तीन सवाल महत्वपूर्ण हो चले हैं. इसका जवाब बहुत जरूरी है.

पहला सवाल है कि क्या लश्कर आतंक को शहरी युवाओं से जोड़ने में सफल हो रहा है? दूसरा, क्या फिदायिन की जगह पढ़े-लिखे लड़ाके बंदूक उठा रहे हैं? और तीसरा कि क्या कासिम का पकड़ा जाना लश्कर की रणनीति का हिस्सा है? तीसरा महत्वपूर्ण है क्योंकि कासिम के चेहरे पर कोई शिकवा नहीं था. वह जिस तरह पकड़ा गया उससे लगता है कि या तो उसे फिदायिन की ट्रेनिन सही तरीके से नहीं होगी या वह खुद की पहचान बनाने के लिए फिदायिन नहीं बना है.

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