हिंदुस्तान की करीब 70 फीसदी आबादी गांव में बसती है. इन 70 फीसदी में से करीब 40 फीसदी आबादी रोजी-रोटी की तलाश में शहरों का रुख करते हैं. शहर और शहर वालों के आशियानों को सजाने-संवारने वाले हाथ इन्हीं के होते हैं. शहर का शायद ही ऐसा कोई घर हो जिसका कान इनके बिना चल पाता हो. मगर इसके बावजूद हम गांव से आए इन लोगों को कितना जानते हैं.
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हिंदुस्तान में 80 हज़ार कोरोना मरीज़. इनमें से ढाई हज़ार की मौत. लेकिन इन ढाई हज़ार से हट कर इसी कोरोना काल में तीन सौ और मौतें हुईं. इन मौतों का कोरोना के वायरस से कोई रिश्ता नहीं है. लेकिन फिर भी रिश्ता है क्योंकि कोरोना को मात देने के लिए जिस लॉकडाउन को औज़ार बनाया गया, उस लॉकडाउन ने गरीबों के घरों के चूल्हे भी बुझा दिए. लिहाज़ा भूखा पेट लिए ये लोग बदहवासी में जब शहरों से घरों की तरफ लपके, तो मीलों लंबे रास्ते और उन रास्तों पर होने वाले हादसे दोनों ने मिल कर तीन सौ लोगों को निगल लिया. कुछ ट्रेन का शिकार हुए, कुछ बेलगाम गाड़ियों के. कुछ भूख के, कुछ बोझ तले, कुछ थक कर, कुछ सांसे उखड़ने से.
गांव में हिंदुस्तान बसता है, शहरों की नई नस्ल कितना जानती है? हिंदुस्तान के गांव में रहनेवाले करीब 50 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो अपना गांव छोड़कर रोज़ी रोटी के लिए दूसरे राज्य और शहरों का रुख करते हैं. इनमें खेतीहर मजदूर भी हैं और वो मजदूर भी जो बाकी तमाम तरह की मजदूरियां करते हैं. एक नजर इस सच्चाई पर डाल लें तो आपको पता चल जाएगा कि सड़कों पर ये हुजूम और इसकी कतारें इतनी लंबी क्यों हैं.
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यूपी, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश से ये मज़दूर बड़े शहरों में पलायन इसलिए करते हैं क्योंकि इनके राज्यों में काम की कमी है. औद्योगीकरण के नाम पर यहां के लोगों को अबतक सिर्फ छला ही गया है. इसलिए मजबूरन इन्हें अपना सब कुछ दांव पर लगाकर दो वक्त की रोटी के लिए पलायन करना पड़ता है. जब सब कुछ बंद है. लोग घरों में कैद हैं. फैक्ट्रियां या काम धंधा चल नहीं रहा. तो कोई भी भला बैठे बैठे इन मज़दूरों को पैसा कैसे दे पाएगा. ज़ाहिर है सरकार को ही इस बारे में सोचना होगा. लेकिन अगर सरकार ने इनके बारे में सोच ही लिया होता. तो सड़कों पर क्या ये मंज़र देखने को मिलता.