अप्रैल 1984 में तीसरे पहर का सूरज तप रहा था. नई दिल्ली में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निवास 1 सफदरजंग रोड के अहाते में एक सफेद एंबेसडर कार आकर रुकी. चश्मा पहने लंबे कद का एक आदमी कार से उतरा. उसकी पहचान सिर्फ डीजीएस यानी डायरेक्टर जनरल सिक्योरिटी थी, जो रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग (रॉ) में एक प्रमुख अधिकारी था. डीजीएस लिविंगरूम में पहुंचे, जहां इंदिरा गांधी खिचड़ी बालों वाले एक आदमी के साथ विचारमग्न थीं. मोटा चश्मा पहनने वाले 66 साल के रामेश्वर नाथ काव पर्दे के पीछे रहने वाले जासूस थे.
रामेश्वर नाथ काव ने 1968 में गुप्तचर एजेंसी रॉ का गठन किया था. 1971 में बांग्लादेश युद्ध के दौरान रॉ से मुक्तिवाहिनी के छापामारों को ट्रेनिंग दिलाई थी. वह पंजाब समस्या के बारे में श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रमुख सलाहकार थे. भारत का यह सबसे संपन्न राज्य दो साल से सांप्रदायिक हिंसा की आग में जल रहा था. तेजतर्रार ग्रंथी जरनैल सिंह भिंडरांवाले के नेतृत्व में सिखों के एक विद्रोही गुट ने जंग छेड़ रखी थी. 37 साल के भिंडरांवाले के हथियारबंद साथी 1984 तक 100 से ज्यादा आम नागरिकों और सुरक्षाकर्मियों की जान ले चुके थे.
1981 से भिंडरांवाले अमृतसर में सिखों के सबसे पवित्र गुरुद्वारे स्वर्ण मंदिर के पास अपने हथियारबंद साथियों के घेरे में छिपा बैठा था. डीजीएस ने इंदिरा गांधी को इन विद्रोहियों को दबोचने के लिए एक गुप्त मिशन के बारे में बताया, जो सैनिक हमले से कुछ ही कम था. उनका कहना था कि ऑपरेशन सनडाउन असल में झपट्टा मारकर दबोचने की कार्रवाई है. हेलिकॉप्टर में सवार कमांडो स्वर्ण मंदिर के पास गुरु नानक निवास गेस्ट हाउस में उतरेंगे और भिंडरांवाले को उठा लेंगे. ऑपरेशन को यह नाम इसलिए दिया गया कि सारी कार्रवाई आधी रात के बाद होनी थी.
ऑपरेशन से पहले कमांडो ने किया अभ्यास
स्पेशल ग्रुप के सदस्य श्रद्धालुओं और पत्रकारों के वेश में स्वर्ण मंदिर में घुसकर आसपास का सारा नक्शा देख आए थे. उसके बाद दो सौ से ज्यादा कमांडो ने उत्तर प्रदेश में सरसावा में अपने अड्डे पर दो मंजिला रेस्टहाउस के नकली मॉडल पर इस ऑपरेशन का कई हफ्ते तक अभ्यास किया. कमांडो एमआइ-4 हेलिकॉप्टर से रस्सी के सहारे गेस्टहाउस में उतरते थे और भिंडरांवाले की तलाश करते थे. उसे दबोचने के बाद जमीनी दस्ता वहां घुसकर उसे उड़ा ले जाता था. आशंका थी कि भिंडरांवाले के अंगरक्षकों और बचाने आने वाले नागरिकों के साथ गोलीबारी होगी.
पहले हुआ ऑपरेशन सनडाउन का पटाक्षेप
इंदिरा चुपचाप सारी बात सुनती रहीं और फिर सिर्फ एक सवाल किया, ‘‘कितना नुकसान होगा?’’ डीजीएस ने जवाब दिया कि 20 प्रतिशत कमांडो और दोनों हेलिकॉप्टर. उसके इस जवाब से गांधी खीज गईं. वे जानना चाहती थीं कि कितने आम नागरिक मारे जाएंगे. रॉ के अधिकारी के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था. इंदिरा ने इनकार कर दिया और पहले हेलिकॉप्टर के उड़ान भरने से पहले ही ऑपरेशन सनडाउन का पटाक्षेप हो गया. दो महीने बाद इंदिरा ने सेना को स्वर्ण मंदिर से उग्रवादियों का सफाया करने का आदेश दिया.
अलगाववादियों का अड्डा बना अकाल तख्त
1984 तक पंजाब के हालात बेकाबू हो गए. स्वर्ण मंदिर में डीआइजी ए.एस. अटवाल की हत्या ने पंजाब पुलिस को पंगु कर दिया. 1983 तक यह स्पष्ट हो चला था कि अकाल तख्त अलगाववादियों का अड्डा बन चुका है. खुफिया एजेंसियों के पास इस बात के भी पर्याप्त सबूत थे कि भिंडरांवाले बगावत करने के लिए बड़े पैमाने पर हथियार जमा कर रहा था. अक्तूबर, 1983 में राज्य सरकार को बरखास्त करने के बाद दिल्ली से भेजे गए हजारों अर्धसैनिककर्मी राज्य में अफरा-तफरी रोकने में नाकाम रहे.
भिंडरांवाले ने नामंजूर किया अंतिम प्रस्ताव
नरसिंह राव के नेतृत्व में श्रीमती गांधी के थिंक टैंक ने अकाली दल के सामने समझौते का जो अंतिम प्रस्ताव रखा उसे भिंडरांवाले ने नामंजूर कर दिया. कुछ ही दिन बाद सेनाध्यक्ष जनरल अरुण कुमार वैद्य अकसर श्रीमती गांधी के दफ्तर में आने-जाने लगे. श्रीमती गांधी के विश्वस्त निजी सचिव आर.के. धवन उन आधे घंटे की मुलाकातों में से एक में मौजूद थे. धवन ने इंडिया टुडे को बताया था कि जनरल वैद्य ने उन्हें भरोसा दिलाया कि कोई मौत नहीं होगी और स्वर्ण मंदिर को कोई नुकसान नहीं होगा.
ऑपरेशन ब्लूस्टार को हरी झंडी मिली
वरिष्ठ पत्रकार मार्क टुली और सतीश जैकब ने 1985 में अपनी पुस्तक अमृतसरः मिसेज गांधीज लास्ट बैटल में लिखा है, 'श्रीमती गांधी आसानी से फैसले लेने वाली महिला नहीं थीं. वे कोई भी कदम उठाने में बहुत हिचकती थीं. उन्होंने कार्रवाई का फैसला तब किया जब बुरी तरह से घिर गई थीं. सेना उनका आखिरी सहारा थी. उन्होंने ऑपरेशन ब्लूस्टार को हरी झंडी दिखा दी. धवन का कहना है कि दो संविधानेतर हस्तियों ने उनका फैसला बदलवाया. इन दोनों को बाद में राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में बड़ी हैसियत मिली.'
नहीं था उग्रवादियों की ताकत का अंदाजा
5 जून, 1984 को रात में 10.30 बजे के बाद काली कमांडो पोशाक में 20 कमांडो चुपचाप स्वर्ण मंदिर में घुसे. उन्होंने नाइट विजन चश्मे, एम-1 स्टील हेल्मेट और बुलेटप्रूफ जैकेट पहन रखी थीं. उनके पास कुछ एमपी-5 सबमशीनगन और एके-47 राइफल थीं. उस समय एसजी की 56वीं कमांडो कंपनी भारत में अकेला ऐसा दस्ता था, जिसे तंग जगह में लडऩे का अभ्यास कराया गया था. सेना को उग्रवादियों की सही ताकत का अंदाजा नहीं था. स्वर्ण मंदिर में कदम रखते ही एक निशानची की गोली ने हेल्मेट के भीतर से यूनिट के रेडियो ऑपरेटर की खोपड़ी उड़ा दी.
सेना के बख्तरबंद गाड़ी को उड़ा दिया
बाकी दस्ते ने अकाल तख्त को जाने वाले खंभों के लंबे गलियारे की आड़ ली. मंदिर की अभेद्य दीवारों के पीछे से हल्की मशीनगन और कार्बाइन की गडग़ड़ाहट गूंजने लगी और तोपों के शोलों ने कमांडो के नाइट विजन चश्मों को चौंधिया दिया. कमांडो और पैदल सैनिक खंभों की आड़ लेते हुए आगे बढऩे लगे. अकाल तख्त की तरफ बढ़ने वालों को संगमरमर की परिक्रमा पर रोक दिया गया. सैनिकों को लाने वाली बख्तरबंद गाड़ी को रॉकेट से गोला दागकर उड़ा दिया गया. सेना की कमजोरी ये थी कि वो किलाबंद इलाके में नहीं लड़ सकती थी.
स्वर्ण मंदिर में मारे गए 17 कमांडो
आधी रात के बाद एसजी यूनिट और सेना की 1 पैरा के बचे-खुचे सैनिक अकाल तख्त के नीचे एक फव्वारे के पास छिपे हुए थे. अकाल तख्त और स्वर्ण मंदिर को जाने वाली दर्शनी ड्योढ़ी के बीच का इलाका खूनी मैदान बन चुका था और शाबेग की लाइट मशीनगन हावी थीं. दुश्मन की इस दीवार को भेदने की पैरा कमांडो की हर कोशिश बार-बार नाकाम हुई. कम-से-कम 17 कमांडो मारे गए. काली पोशाक में उनकी लाशें सफेद संगमरमर पर चमक रही थीं. सीएक्स गैस के गोले दागने वाले कमांडो को पता लगा कि अकाल तख्त की तमाम खिड़कियां ईंटों से बंद थीं.
तीन विकर-विजयंत टैंक लगाए गए
सिर्फ कुछ सपाट झिर्रियों से मशीनगन आग उगल रही थीं. कमांडो दस्ते ने गोले फेंक कर मशीनगन के दो ठिकाने शांत कर दिए. फिर भी अकालतख्त अभेद्य था. फिर 5 जून को सुबह साढ़े सात बजे के आसपास तीन विकर-विजयंत टैंक लगाए गए. उन्होंने 105 मिलिमीटर के गोले दागकर अकाल तख्त की दीवारें उड़ा दीं. उसके बाद कमांडो और पैदल सैनिकों ने उग्रवादियों की धरपकड़ शुरू की. 5 जनवरी को स्वर्ण मंदिर में सेना के प्रवेश से पहले 1 जून को सीआरपीएफ और बीएसएफ ने गुरु रामदास लंगर परिसर पर फायरिंग शुरू कर दी थी.
चारों तरफ खून से सनी काली लाशें
2 जून को भारतीय सेना ने अंतरराष्ट्रीय सीमा सील कर दी. 3 जून को पूरे प्रदेश में कर्फ्यू लगा दिया गया था. 4 जून को सेना ने शाबेग की किलेबंदी को खत्म करने की कार्रवाई शुरू कर दी. मंदिर का अहाता पुराने जमाने का जंग का मैदान हो गया था. सफेद संगमरमर की परिक्रमा में चारों तरफ खून से सनी काली लाशें पड़ी थीं. अकाल तख्त के धुएं से काले पड़ चुके खंडहर के तहखाने में कमांडो को शाबेग की लाश मिली. सेना ने 41 लाइट मशीनगन बरामद की, जिनमें से 31 अकाल तख्त के आसपास मिली थी.
इंदिरा गांधी ने कहा- हे भगवान
6 जून, 1984 को सुबह 6 बजे आर.के. धवन के दिल्ली स्थित गोल्फ लिंक निवास पर फोन की घंटी बजी. रक्षा राज्यमंत्री के.पी. सिंहदेव चाहते थे कि धवन तुरंत श्रीमती गांधी तक एक संदेश पहुंचा दें. ऑपरेशन कामयाब रहा, लेकिन बड़ी संख्या में सैनिक और असैनिक मारे गए हैं. खबर मिलते ही श्रीमती गांधी की पहली प्रतिक्रिया दुख भरी थी. उन्होंने धवन से कहा, 'हे भगवान, इन लोगों ने तो मुझे बताया था कि कोई हताहत नहीं होगा.' स्वर्ण मंदिर की भूलभुलैया से भिंडरांवाले के आदमियों को निकालने में सेना को दो दिन और लगे.
ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद बवाल
8 जून को राष्ट्रपति जैल सिंह के साथ स्वर्ण मंदिर में गए एसजी दस्ते के कमांडिंग ऑफिसर, एक लेफ्टिनेंट जनरल किसी उग्रवादी निशानची की गोली से बुरी तरह घायल हो गए थे. ऑपरेशन ब्लूस्टार की खबर आते ही सिखों में बवाल मच गया. सेना की कुछ इकाइयों में बगावत हो गई. श्रीमती गांधी को जान से हाथ धोना पड़ा. उसी साल 31 अक्तूबर को दो सिख अंगरक्षकों ने उन्हें गोली मार दी. उसके बाद देश भर में गुस्साई भीड़ ने 8 हजार से ज्यादा सिखों को मौत के घाट उतार दिया. उनमें से 3 हजार सिर्फ दिल्ली में मारे गए थे.
दुखती रग है ऑपरेशन ब्लूस्टार
ऑपरेशन ब्लूस्टार में 83 सेनाकर्मी और 492 नागरिक मारे गए. स्वतंत्र भारत में असैनिक संघर्ष के इतिहास में यह सबसे खूनी लड़ाई थी. भिंडरांवाले और उसकी छोटी-सी टुकड़ी को काबू करने के लिए मशीनगन, हल्की तोपें, रॉकेट और आखिरकार लड़ाकू टैंक तक आजमाने पड़े. सिखों का सर्वोच्च स्थल अकाल तख्त तबाह हो गया. ब्लूस्टार के तूफान से सनडाउन और उसकी महंगी तैयारियां रॉ की गुप्त फाइलों में दबकर रह गईं. ऑपरेशन ब्लूस्टार आज भी भारत और विदेश में एक दुखती रग है. कुछ संगठन इसकी बरसी मनाते हैं.