भारत में अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसक आंदोलन की धार मजबूत करने वाले और दुनिया को सत्ता के खिलाफ आवाज बुलंद करने के लिए असहयोग और सत्याग्रह जैसे नये प्रयोग सामने लाने वाले महात्मा गांधी एक मिसाल हैं. आज के दिन 30 जनवरी 1948 की शाम नाथूराम गोडसे ने हिंसा के खेल में भले ही उनकी जान ले ली, लेकिन वो अपने विचारों से पूरी दुनिया में अमर हो गए. आइए विस्तार से आंदोलन को लेकर उनकी विचारधारा को समझते हैं.
गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत कहते हैं कि 30 जनवरी 1948 को उनकी हत्या के साथ ही अनवरत चला आ रहा उनका संघर्ष खत्म हो गया. वो सिर्फ अंग्रेजों से नहीं अपनों से भी लड़ते रहे. जो उनके दाहिने हाथ कहे जाते थे, वो उन्हें भी आंदोलन, धरने, प्रदर्शन और सत्याग्रह को लेकर गांधी जी क्या सोचते थे, इस पर बात की जाए तो उनके लिए ये लोकतंत्र की प्राणवायु के समान था. वो कहते थे कि लोकतंत्र में जन संघर्ष को सतत चलाते रहना चाहिए. ये डेमोक्रेसी के लिए रक्त संचार जैसा है. ये पुरातन को तोड़ते हैं और विकास की नई इबारत लिखते हैं.
कुमार प्रशांत एक वाकया बताते हैं कि जब आजादी मिल गई तो किसी ने गांधीजी से पूछा कि अब सत्याग्रह, असहयोग जैसे आपके पुराने हथियार क्या होंगे. इस पर महात्मा गांधी ने जवाब दिया कि तुम्हें ये अंदाजा नहीं है कि मेरे हथियार पुराने कभी नहीं होंगे. आने वाले भविष्य में मैं वेपन ऑफ पब्लिक ओपिनियन यानी जनमत को हथियार बनाकर लड़ने वाला हूं. हथियार का रूप बदल गया लेकिन संघर्ष नहीं रुकेगा.
घनश्याम दास बिड़ला से एक जगह वो समझाते हुए कहते हैं कि अब जो आजादी के बाद लड़ाई शुरू करूंगा वो अंग्रेजों के साथ हुई लड़ाई से भी भारी पड़ने वाली है. उनकी कल्पना में जनता का संघर्ष लगातार चलते रहना चाहिए. लोकनायक जयप्रकाश ने एक जगह पर गांधी के बारे में कहा है कि वो सतत संपूर्ण क्रांति हैं, हमेशा चलने वाली और पूर्णता की ओर ले जा रही लोकतंत्र को मजबूत करने वाली क्रांति है.
कुमार प्रशांत कहते हैं कि रही बात भटकने की तो यह समझने वाली बात है कि क्रांति एक ज्वाला है, वो कभी कभी भटकती है, कभी कभी अधूरी रह जाती है. जब कोई रोशनी के लिए आग जलाता है तो व्यवस्था करता है कि उसका घर ही न जल जाए. इस प्रक्रिया के अपने खतरे हैं, ठीक वैसे ही जैसे असहयोग आंदोलन के दौरान चौरी चौरा हो जाने का खतरा रहता ही है.
चौरी चौरा कांड के बारे में वो बताते हैं कि असहयोग आंदोलन उस वक्त जीत की कगार पर पहुंच गया था, उसको गांधीजी ने वापस ले लिया क्योंकि उन्हें लगा कि ये भटक रहा है. कई लोग ये भी कहते हैं कि साल 1922 में ये आंदोलन इतना तेज था कि अंग्रेजों पर दबाव पड़ता और हमें तभी आजादी मिल जाती.
लेकिन गांधीजी का सोचना अलग था, जो क्रांति में विश्वास रखता है वो ये नहीं देखता कि सफलता मिल रही, वो देखते हैं कि मैं जैसा चाह रहा हूं, वैसा हो रहा है कि नहीं. अहिंसा पर जिस तरह का उनका विश्वास था वो कोई भी जीत हिंसा की शर्त पर नहीं चाहते थे. इसी तरह कई बार जब उन्हें लगा कि किसी आंदोलन में हिंसा का कोई तत्व शामिल हो रहा है तो वो अपने पैर पीछे कर लेते थे. ठीक इसी तरह हरिजनों के मंदिर प्रवेश को लेकर चले आंदोलन में दक्षिण भारत से हिंसा की सूचना सामने आई तो उन्होंने आंदोलन को रोक दिया.
उनकी असहमति अपने उसूलों को लेकर थी. कुमार प्रशांत कहते हैं कि आप यही उदाहरण ले लीजिए कि जब उन्हें लगता है कि कांग्रेस पॉलिटिक्स की ओर जा रही है, वो सामाजिक परिवर्तन की बात नहीं कर रही तो वो कांग्रेस से इस्तीफा दे देते हैं. फिर कांग्रेस की चार आने की मेंबरशिप तक नहीं लेते लेकिन कांग्रेस उन्हें नहीं छोड़ती, लेकिन वो कांग्रेस छोड़ देते हैं. वो बताना चाह रहे हैं कि लोग खुद तुम्हारे साथ आएंगे अगर आप अपने मूल्यों को नहीं छोड़ते. वो अपने आंदोलनों को भी लगातार परखते रहते थे. उनका होल्ड ऐसा था कि किसी को भटकने नहीं देते थे लेकिन वो अहिंसा के विचार के सामने समझौता कभी नहीं करते थे.
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