गजल गायकी के लिए हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बराबर मशहूर इकबाल बानो की आज पुण्यतिथि है. उनका निधन 21 अप्रैल 2009 को हुआ था. वह गजल और सेमी क्लासिकल गीत गाने के लिए जानी जाती थीं. उनका जन्म 27 अगस्त, 1935 को दिल्ली में हुआ था. बानो ने छोटी सी उम्र में ही संगीत से अपने आप को जोड़ लिया था.
उन्होंने उस्ताद चांद खान से संगीत की तालीम ली. बचपन में उनकी आवाज की कशिश और संगीत के प्रति दीवानगी देखकर बानो के पिता ने उन्हें संगीत सीखने की पूरी आजादी दी. उन्होंने शास्त्रीय संगीत पर आधारित सुगम संगीत की विधा ठुमरी और दादरा में खासी महारत हासिल कर ली थी. जिसके बाद वह ऑल इंडिया रेडियो में गाना शुरू किया. आपको बता दें, उनकी उम्र 17 साल थी जब उनकी शादी हो गई.
भारत-पाक में बराबर मशहूर थीं इकबाल बानो, इस शायर को गाकर मिली पहचान
जब पाकिस्तान पर छा गई बानो
साल 1952 में इकबाल बानो पाकिस्तान चली गई थीं. पाकिस्तान में उन्होंने अपनी गायकी का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन पांच साल बाद लाहौर आर्ट काउंसिल में किया. बानो ने गुमनाम (1954), कातिल (1955), इंतकाम (1955), सरफरोश (1956), इश्क-ए-लैला (1957) और नागिन (1959) जैसी पाकिस्तानी फिल्मों के लिए भी अपनी आवाज दी है.
वो एक गाना जो बन गया ट्रेडमार्क
पाकिस्तान में जनरल जिया-उल-हक के शासन के दौर के आखिरी दिनों में फैज की नज़्म 'लाज़िम है कि हम भी देखेंगे' उनका ट्रेडमार्क बन गया था. जिया-उल-हक ने मुल्क में कुछ पाबंदियां लगा दी थीं. इनमें औरतों का साड़ी पहनना और शायर फैज़ अहमद फैज़ के गाने गाना शामिल था.
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साल 1985 में लाहौर के अलहमरा ऑडिटोरियम में इकबाल बानो उस दिन सिल्क की साड़ी पहन कर आई थीं और पूरे करीब 50 हजार लोगों के सामने फैज की मशहूर नज़्म, ‘हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’. गाना शुरू कर दिया. पूरा ऑडिटोरियम खचाखच भरा हुआ था. तालियों की गूंज के साथ लोग उनके साथ इस गाने को गाने को गा रहे थे. वहीं आगे चल कर ये गाना उनका ट्रेडमार्क बन गया. आपको बता दें, इस गाने को सुनने के बाद देश के युवा जिया-उल-हक के तानाशाही शासन के खिलाफ उठ खड़े हुए थे. भारत में पली-बढ़ीं इकबाल बानो ने जिया-उल-हक के फरमान के खिलाफ साड़ी पहनकर फैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ गाना गाकर पाकिस्तान की सियासत को भी हिलाकर रख दिया था.